छड़ी

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आज इस उम्रके उतरते ढलान पर खड़े मन वाे गुज़रे हुए बचपन और कल को याद करते कभी कभार ऐसे खो जाता है जैसे सिनेमा के पर्दे पर दृश्यों को निहारते कुछ समय के लिए खुदको भूल जाते है। बचपन के वाे दोस्ती, झगड़े, मनमुटाव, प्यार, नफरत का एहसास आज इस उम्र में जीने की खुराक जगाता है जरूर। आज भी याद में ताजा है किशोर कुमार का वाे यादगार गाना - "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।" काम के जंजीर में जकड़े ये शरीर, मन और बचने के लिए संघर्ष के बीच इतवार ऐसा एक दिन है जिसका सब बेसब्री से इंतज़ार करते है। फुरसत के इस दिन को कौन कैसे बिताते है अलग बात, मैं उस दिन को पढने में गुजरता हूँ।


एक इतवार - दोपहर का खाना खत्म करके मैं अपने पढ़ाई टेबल पे आ गया। टेबल के ऊपर पड़े अखबार को उठाकर यूँ नज़र घुमा रहा था, आंख एक खबर के ऊपर अटक गयी।शीर्षक था- "पाँचवी कक्षा की एक छात्रा के गाल में शिक्षक ने थप्पड मारने के विरुद्ध अभिभावक की बाल-सुरक्षा-समिति में नालिश।" बाल सुरक्षा समिति ने तुरंत कार्यवाही के तहत उस शिक्षक को तुरंत नोटिस जारी की। पूरे खबर को तीन-चार बार पढ़ने के बाद लगा वाे टीचर जो भी किया कुछ गलत तो नहीं। कक्षा में डिसिप्लिन कायम रखने के लिए नखरे या अनुशासन हीनता को ऐसे ही सज़ा देना चाहिए। खुद एक अध्यापक के नाते मेरा दिल उस शिक्षक की तरफदारी की। पर मन इसके खिलाफ। आजकल स्कूलों में दण्ड देना अपराध माना जाता है।


क्योंकि हर विद्यालय दंडमुक्ति अंचल घोषित किए गए है। उस शिक्षक ने सही किया या गलत उस दुविधा में उलझे मैं कब अपने बचपन की यादों में खो गया, खुद मालुम नहीं कर पाया।


20 जून, 1973 के दिन मैंने स्कूल में प्रवेश किया था। उस जमाने में आजकल के बोर्डिंग और अंग्रेज स्कूलोंकी कतार नहीं थी। बस सरकारी स्कूल ही पढ़ाई के माध्यम थे। एक छोटे शहर के निवासी हेतु पापा ने घर के पास सरकारी उच्च-प्राथमिक पाठशाला में भर्ती कर दिया। मेरा भर्ती थोड़ा देर में हुआ था। 8 साल की उम्र में सीधे तीसरे कक्षा में नाम लिखा गया। पापा के हाथ पकड़ कंधे पे स्कूल बैग लेके स्कूल में हम पहुंच गए। पापा मुझे लेकर सीधा प्रधान गुरुजी के प्रकोष्ठ में आ गये और दाखिला लेने के बारे में शायद बातचीत कर रहे थे। प्रधान गुरुजी के प्रकोष्ठ में 5 वी कक्षा के छात्र पढ़ रहे थे। मैने देखा गुरुजी के टेबल के ऊपर एक लंबी "छड़ी" जो वक्त देर वक्त प्रधान गुरुजी हिला कर बच्चों को शासन कर रहे थे। मेरी नज़र बस उस छड़ी और उसके हिलाने के ऊपर थी। प्रधान गुरुजी ने मुझे नाम और कुछ आम सवाल किए, जिसका उत्तर मैंने डर डर के दिया। पापा मुझे वही छोड़ के अपने ऑफिस चले गए।


फिर प्रधान गुरुजी मुझे तीसरी कक्षा में छोड़ने उठ खड़े हो गये। कक्षा छोड़ने से पहले उन्होने वही लम्बी छड़ी को टेबल के ऊपर जोर से मारते हुए बच्चों को चुपचाप अपनी पढ़ाई करने का आदेश दिया। उस छड़ी की प्रहार मानो मेरे दिल पे लग गयी। मैं थर थर कांपने लगा। मेरे वो हालात देख सभी बच्चे जोर से हसने लगे तो प्रधान गुरुजी ने "ए चुप" चिल्लाते छड़ी को फिर एक बार टेबल पे मार दिया। मैंने डर के मारे आंख मूंद ली।


प्रधान गुरुजी मुझे तीसरी कक्षा में उस कक्षा के मास्टरजी के हवाले छोड़ लौट गए। मास्टरजी ने अपने बाएं हाथ में मेरा हाथ और दाएं हाथ में एक लम्बी छड़ी पकड़ते हुए अपने कुर्सी के पास आये। कुर्सी में बैठने के उपरान्त बिलकुल अपनेपन से मेरे नाम, धाम, घर, भाई-बहन के ऊपर सवाल पूछे जिसके जवाब मैं सहमे हुए दे रहा था। और जवाब देते वक्त मेरी नज़रें वही लम्बे छड़ी के ऊपर टिकी हुई थी। मास्टरजी मेरा डर देख कर मुस्कुरा दिए और ना डरने को कहा। मैंने हां में गर्दन हिलाई, लेकिन हाथ-पैर कांप रहे थे। वह और कुछ पूछने वाले थे, तभी पीछे बैठे हुए दो बच्चों ने आपस में लड़ाई शुरू कर दी। दोनों ने एक दूसरे की चोटी खीचते मारा मारी शुरू कर दी। उन दोनों की झड़प मास्टरजी की नज़र से छुपी नहीं।


मास्टरजी ने दहाड़ते हुए उन दोनों को पास बुलाया, जो निडर सामने आकर खड़े हो गए। फिर मास्टरजी के आदेश हेतु अपने दोनों हाथ जोड़कर गुरुजी के सामने फैला दिए। मास्टरजी ने अपनी लम्बी छड़ी से उनके हाथाें के ऊपर सपक-सपक वार बरसाने लगे। उनके ऊपर छड़ी की पिटाई देख मैं इतना डर गया और घबरा गया कि मैंने जोर से रोना शुरु कर दिया। मास्टरजी हड़बड़ा गए। उन्होने मुझे "चुप" रहने का इशारा किया। छड़ी को हिलाते हिलाते चुप होने को कहा। उस छड़ी के हिलने से मैं और डर गया। पैर जोर से कांपने लगे और मैं और जोर से रोने लगा। मुझे ऐसे रोते हुए देखकर कक्षा के और बच्चे भी मेरे साथ रोने लगे। मास्टरजी ने जितनी बार चुप रहने को कहा मैं और रोने लगा। रोने की इस झुंड से पास वाली कक्षा के शिक्षक और बच्चे आकर जमा हो गए। अपमान, गुस्सा और अचम्भ में मास्टरजी ने मुझे चुप कराने के लिए मेरे पीठ में एक जमकर थप्पड़ लगाया और थप्पड़ लगते ही मेरा रोना बंद हो गया। बाकी बच्चे भी चुप हो गए।


फिर कुछ पल के बाद मास्टरजी ने मुझे अपनी गोद में बिठाकर एक लेसन दिया और रोने का कारण पूछा। तो मैंने अपनी मासूमियत से कहा-गुरुजी आपकी वाे लम्बी छड़ी से डर के मैं रो पड़ा। फिर गुरुजी और पूरी कक्षा बच्चे ठहाका मारते हस दिए। गुरुजी ने समझा दिया- ये छड़ी उन बदमाश और दुष्ट बच्चो के लिए है जो कक्षा में श्रृंखला तोड़ते है। तुम जैसे अच्छे बच्चो के लिए ये लेसन है। इसीलिए डरो मत।


जब घर वापस आया, पहले दिन के सारे किस्से घरमें बताए। सोचा पापा जाकर कल प्रधान गुरुजी को जरूर नालिश करेंगे। लेकिन अगले दिन पापा मुझे साथ लेकर तीसरी कक्षा के हमारे मास्टरजी के पास पहुंचे और कहा- इसे आपके हवाले करता हूँ मास्टरजी आप जैसे चाहे, जो मर्जी कीजिये पर एक श्रृंखल और अनुशासित आदमी होने के रस्ते पे चलना सिखाइए। मास्टरजी मुस्कुरा दिए।


मैं वास्तव दुनिया में लौट आया। अखबार को टेबल के ऊपर रखते अनुभव किया कि गुरुजी की उस छड़ी ने मुझे और मेरे हमउमर को सही आदमी बना के खड़ा कर दिया। पर अब की ये दंडमुक्ति नियम बच्चों को सही के बदले अनुशासनहीन बना रहा है।


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