चाय वाली कहानियाँ - २००८ की वो शाम
चाय वाली कहानियाँ - २००८ की वो शाम
२००८ में बड़ा कठिन दौर था वो। हर दिन एक अग्नि परीक्षा का होता। कभी न ख़त्म होने वाला युद्ध चल रहा था। एक चक्रव्यूह में फॅसा हुआ महसूस करता।
हर दिन की शाम को ५:३० बजे वो मीटिंग होती थी। ४:३० बजे से मेरे दिल की धड़कने तेज हो जाती। पता नहीं होता आज क्या कहूँगा? और शायद मै कहने और सुनाने की सीमा से कहीं दूर जा चुका था। ज्यादातर मीटिंग में , मै सुनता ज़्यादा और बोलता कम। मेरे संवाद निश्चित होते "आय एम सॉरी !" किसी मोटी चमड़ी वाले व्यक्ति के लिए शायद कोई फर्क नहीं पड़ता। पर सिद्धांतो पर चलनेवाले, अपना सर्वस्व देनेवाले, मेहनती लोगो के लिए तो, जैसे यह रोज़ रोज़ घूँट कर मरने से कम ना था।
ऐसे ही एक शाम की मीटिंग में, मै और मेरे ख़ास दोस्त , जो कि मेरा सहकर्मी भी था, आमने सामने आ गए। वेदना तो यह थी की उसकी डेस्क भी कुछ दूर पर, मेरे विपरीत, सामने ही थी। और एक ही कस्टमर के लिए, एक ही प्रोजेक्ट में हम दोनों अलग अलग टीमों का नेतृत्व कर रहे थे। उस दिन राज ने (मेरे दोस्त ने), मेरे प्रोजेक्ट की कुछ खामियाँ निकाली। वह तो सिर्फ अपना कर्तव्य कर रहा था, पर उसके आवाज में असहजता और कम्पन मै महसूस कर रहा था। पर उस डाटा के आधार पर एक नकारात्मक मंधन शुरू हो गया और ख़ासकर वो लोग जिन्होंने इस परिश्थिति का निर्माण किया, मुझसे सवाल ज़वाब करने लगे। सब्र की भी एक सीमा होती है। और आखिर मैंने कुछ शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया दे दी। सभी दंग रह गए। मीटिंग आनन फ़ानन में ख़त्म हो गई।
मैं और परेशान हो गया। परेशानी इस बात की ज़्यादा थी की, पता नहीं शायद मैंने सिर्फ अपने आप को नहीं , पर अपने एक अच्छे दोस्त भी खो दिया। वक़्त बुरा था, अपने ही सिर्फ चंद रेटिंग की फ़िराक में अपनो का गला कटाने में लगे थे। अज़ीब पॉलिटिक्स चल रहा था। ऐसे में कुछ अच्छे दोस्त जरूरी होते है , जो इस सफर में बैसाखी होते है। और ऐसे दो दोस्त सहकर्मी थे - राज और आशिक। पर शायद आज उन्हें भी खो दिया।
मैं डेस्क पर अपना सिर रखकर बैठ गया। अचानक कंधे पर किसी का हाथ होने का भास हुआ। सर उठाया तो देखा , दोनों खड़े थे। वो बोला "चल ". लगा की अब दोनों पिटाई करेंगे। मुझे उसका डर नहीं था , पर आत्मग्लानि हो रही थी। मैंने सॉरी कहा। उसने फिर कहा "चल ". मै कुछ समझ
पाता, इसके पहले उन्होंने मेरी बांह पकड़कर मुझे कुर्सी से उठाया और चल पड़े। मै पीछे पीछे चल पड़ा। हम ऑफिस से बाहर आ गए। निकलते ही राज बरस पड़ा। "तू पागल हो गया है। तुझ अकेले की ये लड़ाई है? क्या तुझ अकेले से ये ख़त्म होगा ? ये सभी को सब पता है , पर जब तक तू सभी कुछ अपने ऊपर लेकर चलेगा, कोई क्यूँ ये मुसीबत अपने ऊपर लेगा " वो शायद मुझसे ज्यादा गुस्सा था और खासकर मेरी वजह से, मेरी फिक्र में।
हम ऑफिस के पास की चाय की टपरी पर आ गए। गरमा गरम चाय हाथ में आते ही , अचानक एक संजीवनी जैसे मिल गयी। आशिक जो अभी तक पूरी कहानी से अनभिज्ञ था, ने पूरी कहानी पूछी और राज ने चाय पीते पीते, कहानी में मसाला लगाते हुए पूरी कहानी को मजेदार बना दिया। मै हँसते हँसते लोट पोट लगा। हम चाय के ग्लास लेकर, थोड़ी दूर किनारे आ गए जहाँ कोई और हमारी बात नहीं सुन सकता था। फिर हमने जी भरके उन्हें कोसा जिनकी वज़ह से पूरा प्रोजेक्ट बंठाधार हुआ था। थोड़ी ही देर में हमारी चाय ख़त्म हो गई पर कहानी में मज़ा आ रहा था।
हम फिर टपरी पर आये और अपनी चाय और कॉफी उठाई और पुराने जगह पर आये। जैसे ही चाय की एक घूँट मुँह में जाती, यह काल्पनिक कहानी और बढ़ जाती। हमारी हँसी थम नहीं रही थी। बड़ा मज़ा आ रहा था। चाय फिर ख़त्म होने लगी। सो तक़रीबन आधे घंटे चली इस चाय भरी दोस्तों की मीटिंग ने मुझमे एक नई जान डाल दी। मैंने बाँहे फैलाकर दोनों को गले लगा लिया। दोनों ने मेरी पीठ थपथपाई पर किसी ने कुछ नहीं बोला। सभी की भावनाये एक जैसी थी। हम सब एक ही परिस्थतियो से गुजर रहे थे।
चाय का ग्लास टपरी पर रख हम लौटने लगे। टपरी वाले को मैंने थैंक यूँ बोला। उसने भी मुसकराकर अभिवादन किया। यह तो सही मायने में हमारा "एच आर" (कर्मचारियों का ध्यान रखने वाला विभाग) था, जहाँ हम अपने मन को हल्का कर पाते, तरो ताज़ा कर पाते।
लौटते वक़्त, ऊपर देखा तो आसमान में बादल छट गए थे। बारिश कुछ देर पहले ही हुई। सब कुछ साफ़ साफ़ दिख रहा था। जिंदगी में भी यही हो रहा था। टपरी पर की चाय और दोस्तों की मीठी नमकीन बातो से, मन और दिमाग़ भी पटरी पर आ गए थे।
इस वाक़ये के बाद, यह हमारा रोज़ की कहानी हो गई। मेरी हर ५:३० बजे मीटिंग के बाद हमारी टपरी वाली मीटिंग होने लगी। इस टपरी मीटिंग से मुझे मानसिक शक्ति मिलती थी। और यह राज़ था मेरे इस प्रोजेक्ट को आखिर में सकारात्मक रूप से पूरा करने में। और बढ़ गया महत्व, मेरी जिंदगी में चाय की टपरी और चाय के साथ दोस्तों के बेसिर पैर के हँसी के ठिठोले।
