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Dineshkumar Singh

Abstract Tragedy

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Dineshkumar Singh

Abstract Tragedy

खूबसूरत मोड़

खूबसूरत मोड़

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फोन रिसीवर पर पटक दिया। आखिर समझ क्या रखा है अपने आप को। कोई कुछ भी बोल कर चला जाए और मै चुपचाप सुनता रहूँ। बहुत क्रोध आ रहा था। पर झगड़ा बढ़ाना नहीं चाहता था। इसलिए, फोन काट दिया।

दोस्त अच्छे थे, पर ऐसा क्या की उसमें भी कोई सीमा ना हो। दोस्तों ने, उसकी चुप्पी को उसकी कमजोरी समझ उसको बार बार ज़ख्म देना उनका हक समझा।

दिन बीतते गए। ना फोन आया, और ना ही फोन किया गया। एक अजीब सी खामोशी थी। वो बेचैन था। उसे लगा था, दोस्त है, मना लेंगे, अपनी गलती का एहसास होगा और माफी मांग लेंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। महीना, दो महीना बीत गया। कई बार हाथ फोन तक पहुंचे पर रूक गया। अहम नहीं था, पर डर था कि इसका गलत मतलब निकाला जाएगा। उन्हें कभी समझ में ही नहीं आएगा कि उन्होंने जो किया वह अनुचित था। कई सालों की दोस्ती दांव पर लगी थी। कभी क्रोध आता, तो कभी दुःख होता। कभी कभी तो मन के भाव समझ ही नहीं आते। और यह सब बांटता तो किससे?

समय बीतने लगा, और लगा कि एक नई शुरुआत करते है। सबसे पहले मैंने खुद ही फोन करने का निर्णय लिया, पर एक निश्चित दिन को। मन शांत हुआ। पर यह भी तय किया कि बातचीत और व्यवहार की सीमा क्या होगी। नजदीकी का पता नही, पर दूरी निश्चित कर ली गई। यह तो अब मन की मन से लड़ाई थी। और यह कोई नई बात नही थी।

यह एक मौका था, फिर से अकेले शुरुआत करने का। तिनका तिनका बटोरने का। मैंने कविताओं पर ध्यान केंद्रित किया। अपने अधूरे काम को पूरा करने का निर्णय लिया। कही बाहर निकलने के बारे में सोचना शुरू किया। ईश्वर का साथ मिलता गया। लगा, मैं गलत नहीं था। मैंने किसी को ठेस नही पहुंचाया। ईश्वर मेरे साथ है।

चित्र बदलने लगा। आखिर वो दिन आया और मैंने फोन घुमाया। बातें हुईं, जैसे सब कुछ कल की ही बात हो। कहीं कुछ मजाक सा लगा, पर मैंने नजरअंदाज कर दिया। बातें खत्म हो गई।

मैं खुश था। मैंने अपना किरदार निभाया। मै अगले पथ पर चल पड़ा।

पर क्या मैं वास्तव में खुश हूं? शायद नही, क्योंकि, कुछ खोना इतना आसान नहीं होता है। पर हर रिश्ता दो तरफा होता है। और जो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।


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