ईंट का बोझ
ईंट का बोझ
यह एक बचपन की कहानी है। भूख में बहुत ताकत होती है। खासकर जब आप गरीब हो। यह वो दौर था , जब १० रुपये में पूरे परिवार के लिए एक दिन की दाल आ जाती थी। १० रुपये की कीमत थी। खासकर भूखे गरीब परिवार के लिए तो वह जीवनदान होता था। फिर आपकी उम्र जो भी हो , कमाना जरूरी होता था। मिलजुल कर काम करना। कोई रोटी कमाए , तो कोई दाल और कोई छत बचाये। हर दिन एक युद्ध होता था। इसलिए उम्र से जुड़े प्रश्नो को दूर रखकर हर हाथ को काम करना था।
ईंट ढोने का काम मिला। एक एक ईंट पर दस पैसे मिलने थे। तेज धूप थी। समय बीतता जा रहा था। अब तक 6 रुपये इकट्ठा हो गए, पर दस रुपया नही बना था। सोचा, 2 और ईट जोड़ लूँ तो शायद काम बन जाए, पर नही संभला जा रहा। शायद गिर जाऊंगा।पर नही, कोशिश करूंगा। गिरने नही दूंगा, नही तो मालिक पूरे पैसे काट लेगा। मारेगा भी। अपना सलीब खिंच रहा था। पर किसे बोल भी नहीं सकता था। हर एक ईंट पैसा था। हर एक पैसे से दाल और रोटी मिलनी थी। जितने ईंट, उतने लोगो के लिए खाना।
आखिरकार काम पूरा हुआ। बदन टूट रहा था , पर मन खुश था। हाथ छिल गए थे , पर हथेलियों में १० रुपये का नोट था। और आँखों में माँ के चेहरे का संतोष था। पता था की वो मन में दुखी भी होगी। छुपकर रोएगी भी। पर भूखे पेट रोने से अच्छा, पेट भर कर रोना। अब ईंट का बोझ दर्द नहीं था, बल्कि आत्मसम्मान था।
