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Ashita Sharma

Classics

4  

Ashita Sharma

Classics

चार साहिबजादे

चार साहिबजादे

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ये कहानी जो मैं आज यहाँ लिखने जा रही हूँ हो सकता है इस कहानी से सब वाकिफ हो लेकिन इस कहानी ने मेरे दिल पर बहुत गहरी छाप छोड़ी है |

अगर मैं इतिहास बदल सकती तो मैं वजीर खान को अपने गुरुर अभिमान और ताक़त का सही प्रयोग करते देखना चाहती जिसकी बदौलत चार साहिबज़ादों और बंदा बहादुर जी को उस अत्याचार को भोगना नहीं पड़ता और जो हिन्दू मुसलमान का फर्क आज भी है उसे रोका जा सकता|


जब भी इस कहानी को पढ़ती हूँ आज भी मेरी रूह कांप जाती है|ये कहानी विभिन्न स्त्रोतों से लिखी है मेरा मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचना नहीं है बस इस कहानी से सबको अवगत कराना चाहती हूँ|इन वीरों के बलिदानों को कभी भुलाया नहीं जा सकता|इस कहानी में मुझसे कोई गलती हुई हो तो मुझे माफ़ करें|


गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में 05 जनवरी 1666 को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गये थे। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था वही उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये थे1670 में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया।मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। चक नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलता है।


गोविन्द राय जी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।


काश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध शिकायत को लेकर तथा स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण 11 नवम्बर 1675 को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात वैशाखी के दिन 29 मार्च 1676 को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।10वें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा धनुष चलाना आदि सम्मिलित था। 1684 में उन्होने चंडी दी वार कि रचना की। 1685 तक वह यमुना नदी के किनारे पाओंटा नामक स्थान पर रहे।


गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।


उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।


1699 में जब सभी जमा हुए तब गुरु गोबिंद सिंह ने एक खालसा वाणी स्थापित की “वाहेगुरुजी का खालसा, वाहेगुरुजी की फ़तेह”. ऊन्होने अपनी सेना को सिंह (मतलब शेर) का नाम दिया। साथ ही उन्होंने खालसा के मूल सिध्दांतो की भी स्थापना की।‘दी फाइव के’ ये पांच मूल सिध्दांत थे जिनका खालसा पालन किया करते थे। इसमें ब़ाल भी शामिल है जिसका मतलब था बालो को न काटना। कंघा या लकड़ी का कंघा जो स्वछता का प्रतिक है, कडा या लोहे का कड़ा (कंगन जैसा), खालसा के स्वयं के बचाव का, कच्छा अथवा घुटने तक की लंबाई वाला पजामा; यह प्रतिक था। और किरपन जो सिखाता था की हर गरीब की रक्षा चाहे वो किसी भी धर्म या जाती का हो।


गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया।


चार साहिबज़ादे शब्द का प्रयोग सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार सुपुत्रों - साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, ज़ोरावर सिंह, व फतेह सिंह को सामूहिक रूप से संबोधित करने हेतु किया जाता है।

भारत पर मुगलों ने कई सौ बरस तक राज किया…उन्होंने इस्लाम धर्म को पूरे भारत में फैलाने के लिए हिन्दुओं पर जुल्म भी किए… मुगल शासक औरगंजेब ने तो जुल्म की इंतहा कर दी और जुल्म की सारी हदें तोड़ डाली…हिन्दुओं को पगड़ी पहनने और घोड़ी पर चढ़ने की रोक लगाई गई… और एक खास तरह टैक्स भी हिन्दु जाति पर लगाया गया जिसे जजिया टैक्स कहा जाता था…हिन्दुओं में आपसी कलह के कारण जुल्मों का विरोध नहीं हो रहा था… इन्हीं जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाई दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी ने…उन्होंने निर्बल हो चुके हिन्दुओं में नया उत्साह और जागृति पैदा करने का मन बना लिया…इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए गुरू गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की…कई स्थानों पर सिखों और हिन्दुओं ने खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… मुगल शासकों के साथ साथ कट्टर हिन्दुओं और उच्च जाति के लोगों ने भी खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… कई स्थानों पर माहौल तनाव पूर्ण हो गया…सरहंद के सूबेदार वजीर खान और पहाड़ी राजे एकजुट हो गए और 1704 पर गुरू गोबिन्द सिंह जी पर आक्रमण कर दिया…सिखों ने बड़ी दलेरी से इनका मुकाबला किया और सात महीने तक आनन्दपुर के किले पर कब्जा नहीं होने दिया–आखिर हार कर मुगल शासकों ने कुरान की कसम खाकर और हिन्दु राजाओं ने गऊ माता की कसम खाकर गुरू जी से किला खाली कराने के लिए विनती की…20 दिसम्बर 1704 की रात को गुरू गोबिन्द जी ने किले को खाली कर दिया गया और गुरू जी सेना के साथ रोपड़ की और कूच कर गए…जब इस बात का पता मुगलों को लगा तो उन्होंने सारी कसमें तोड़ डाली और गुरू जी पर हमला कर दिया…लड़ते – लड़ते सिख सिरसा नदी पार कर गए और चमकौर की गढ़ी में गुरू जी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला…ये जंग अपने आप में खास है क्योंकि 80 हजार मुगलों से केवल 40 सिखों ने मुकाबला किया था…जब सिखों का गोला बारूद खत्म हो गया तो गुरू गोबिन्द सिंह जी ने पांच पांच सिखों का जत्था बनाकर उन्हें मैदाने जंग में भेजा|


अजीत सिंह श्री गुरु गोबिन्द सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। चमकौर के युद्ध में अजीत सिंह अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए पांच प्यारों ने अजीत सिंह को समझाने की कोशिश की कि वे ना जाएं, क्योंकि वे ही सिख धर्म को आगे बढ़ाने वाली अगली शख्सियत हो सकते हैं लेकिन पुत्र की वीरता को देखते हुए गुरु जी ने अजीत सिंह को निराश ना किया। ‌उन्होंने स्वयं अपने हाथों से अजीत सिंह को युद्ध लड़ने के लिए तैयार किया, अपने हाथों से उन्हें शस्त्र दिए थमाए और पांच सिखों के साथ उन्हें किले से बाहर रवाना किया। कहते हैं रणभूमि में जाते ही अजीत सिंह ने मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अजीत सिंह कुछ यूं युद्ध कर रहे थे मानो कोई बुराई पर कहर बरसा रहा हो।

अजीत सिंह एक के बाद एक वार कर रहे थे, उनकी वीरता और साहस को देखते हुए मुगल फौज पीछे भाग रही थी लेकिन वह समय आ गया था जब अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे थे। जैसे ही दुश्मनों को यह अंदाज़ा हुआ कि अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे हैं, उन्होंने साहिबजादे को घेरना आरंभ कर दियालेकिन तभी अजीत सिंह ने म्यान से तलवार निकाली और बहादुरी से मुगल फौज का सामना करना आरंभ कर दिया। कहते हैं तलवार बाजी में पूरी सिख फौज में भी अजीत सिंह को कोई चुनौती नहीं दे सकता था तो फिर ये मुगल फौज उन्हें कैसे रोक सकती थी। अजीत सिंह ने एक-एक करके मुगल सैनिकों का संहार किया, लेकिन तभी लड़ते-लड़ते उनकी तलवार भी टूट गई।फिर उन्होंने अपनी म्यान से ही लड़ना शुरू कर दिया, वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने शहादत को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए।


इनके नाम पर पंजाब के मोहाली शहर का नामकरण साहिबज़ादा अजीत सिंह नगर किया गया।

अजीत सिंह से छोटे जुझार सिंह अपने बड़े भाई के बलिदान के पश्चात् नेतृत्व संभाला तथा पदचिन्हों पर चलते हुए अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।…बड़े साहिबजादें छोटी सी उम्र में मुगलों से मुकाबला करते हुए शहीद हो गए…


दूसरी ओर सिरसा नदी पार करते वक्त गुरू जी की माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे बिछुड़ गए…गुरू जी का रसोईया गंगू ब्राहम्ण उन्हें अपने साथ ले गया …रात को उसने माता जी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली…सुबह जब माता जी ने गठरी के बारे में पूछा तो वो न सिर्फ आग बबूला ही हुआ…बल्कि उसने गांव के चौधरी को गुरू जी के बच्चों के बारे में बता दिया…और इस तरह ये बात सरहिन्द के नवाब तक पहुंच गई…सरहंद के नवाब ने उन्हें ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया….नवाब ने दो तीन दिन तक उन बच्चों को इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा…जब वो नहीं माने तो उन्हें खूब डराया धमकाया गया ,मगर वो नहीं डोले और वो अडिग रहें …उन्हें कई लालच दिए गए…लेकिन वो न तो डरे , न ही किसी बात का लोभ और लालच ही किया…न ही धर्म को बदला…दोनों साहिबजादे गरज कर जवाब देते, ' हम अकाल पुर्ख (परमात्मा) और अपने गुरु पिताजी के आगे ही सिर झुका‍ते हैं, किसी ओर को सलाम नहीं करते। हमारी लड़ाई अन्याय, अधर्म एवं जुल्म के खिलाफ है। हम तुम्हारे इस जुल्म के खिलाफ प्राण दे देंगे लेकिन झुकेंगे नहीं।

सुचानंद दीवान ने नवाब को ऐसा करने के लिए उकसाया और यहां तक कहां कि यह सांप के बच्चे हैं इनका कत्ल कर देना ही उचित है…आखिर में काजी को बुलाया गया…जिसने उन्हें जिंदा ही दीवार में चिनवा देने का फतवा दे दिया…उस समय मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खां भी वहां उपस्थित थे…उसने इस बात का विरोध किया…फतवे के अनुसार जब 27 दिसम्बर 1704 में छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिना जाने लगा तो…जब दीवार गुरू के लाडलों के घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काट दिया गया ताकि दीवार टेढी न हो जाए…जुल्म की इंतहा तो तब हो गई…जब दीवार साहिबजादों के सिर तक पहुंची तो शाशल बेग और वाशल बेग जल्लादों ने शीश काट कर साहिबजादों को शहीद कर दिया…छोटे साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर उनकी दादी स्वर्ग सिधार गई…इतने से भी इन जालिमों का दिल नहीं भरा और लाशों को खेतों में फेंक दिया गया…जब इस बात की खबर सरहंद के हिन्दू साहूकार टोडरमल को लगी तो उन्होंने संस्कार करने की सोची..उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए…उतनी जगह पर सोने की मोहरें बिछानी पड़ेगी…कहते हैं कि टोडरमल जी ने उस जगह पर अपने घर के सब जेवर और सोने की मोहरें बिछा कर साहिबजादों और माता गुजरी का दाह संस्कार किया…संस्कार वाली जगह पर बहुत ही सुन्दर गुरूव्दारा ज्योति स्वरूप बना हुआ है जबकि शहादत वाली जगह पर बहुत बड़ा गुरूव्दारा है…यहां हर साल 25से 27 दिसम्बर तक शहीदी जोड़ मेला लगता है…जो तीन दिन तक चलता है…धर्म की रक्षा के लिए …नन्हें बालकों ने हंसते हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए मगर हार नहीं मानी…मुगल नवाब वजीर खान के हुक्म पर इन्हें फतेहगढ़ साहिब के भौरा साहिब में जिंदा चिनवा दिया गया …यही नहीं छोटे साहिबजादे बाबा फतेह सिंह के नाम पर इस स्थान का नाम फतेहगढ़ साहिब रखा गया था….


सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत । पूर्जा पूर्जा कट मरे, कबहू न छोड़े खेत ।।


जी हां धर्म ईमान की खातिर दशम पिता के इन राजकुमारों ने शहीदी पाई …लेकिन वो सरहंद के सूबेदार के आगे झुके नहीं …बल्कि उन्होंने खुशी खुशी शहीदी प्राप्त की…पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में हर साल साहिबजादों की याद में तीन दिवसीय मेला लगता है… गुरूव्दारा श्री फतेहगढ़ साहिब में बना ठंडा बुर्ज का भी अहम महत्व है…यही पर माता गुजरी ने तकरीबन आठ वर्ष तक दोनों छोटे साहिबजादों को धर्म और कौम की रक्षा का पाठ पढ़ाया था..इसी ठंडे बुर्ज में पोष माह की सर्द रातों में माता गुजरी ने बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह को धर्म की रक्षा के लिए शीश न झुकाते हुए अपने धर्म पर कायम रहने की शिक्षा दी थी …गुरू गोबिन्द सिंह जी के चारो साहिबजादों की पढ़ाई और शस्त्र विद्या गुरू साहिब की निगरानी में हुई …उन्होंने घुड़सवारी , शस्त्र विद्या और तीर अंदाजी में अपने राजकुमारों को माहिर बना दिया….दशम पातशाह के चारों राजकुमारों को साहिबजादें इसलिए कहा जाता है …क्योंकि दो दो साहिबजादें इक्टठे शहीद हुए थे … इसलिए इनको बड़े साहिबजादें और छोटे साहिबाजादे कहकर याद किया जाता है…जोरावर सिंह जी की शहीदी के समय उम्र 9 साल जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र 7 साल की थी ….इनके नाम के साथ बाबा शब्द इसलिए लगाया क्योंकि उन्होंने इतनी छोटी उम्र में शहादत देकर मिसाल पेश की …उनकी इन बेमिसाल कुर्बानियों के कारण इन्हें बाबा पद से सम्मानित किया गया…


चारों तरफ श्रद्धा और भक्ति का उमड़ता जन सैलाब…हर कोई रंगा है भक्ति के रंग में …जगह जगह छोटे साहिबजादों की शहीदी दिवस को समर्पित लंगर लगाए जाते हैं…दाल रोटी के लंगर तो लगाए ही जाते हैं वहीं सर्दी का महीना होने के कारण जगह – जगह चाय के लंगर लगाए जाते हैं … रास्तों में लंगर लगाए जाते हैं ताकि आने जाने वाला कोई भी राही लंगर छके बिना न जा सके पोष के महीने में गुरू गोबिन्द सिंह जी के साहिबजादों को समर्पित प्रभात फेरिया निकाली जाती है …नगर कीर्तन निकाले जाते हैं …निहंग सिंहों के हैरत अंगेज कारनामे देखकर हर कोई दांतों तले उंगुलियां दबाने को मजबूर हो जाता है …छोटे निहंग सिंहो के करतब देखते ही बनते है कि देखने वाले बस देखते ही रह जाते हैं …


पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में शहीदी जोड़ मेले में लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. ताकि इस महान शहादत को वो श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकें…देशभर में दशमेश पिता के साहिबजादों की स्तुति में भजन कीर्तन होते हैं…दिसम्बर महीने में लगने वाले इस तीन दिवसीय मेला इस बार 24 से 26 दिसम्बर तक चला …हर श्रद्धालु तन मन और धन से सेवा करता है….सारे भेदभाव को मिटाकर हर कोई गुरू घर में सेवा करता है…लंगर के अलावा चाय के लंगर लगाए जाते हैं …हर श्रद्धालु की तमन्ना होती है गुरू घर के नजदीक से दर्शन करने की …श्रद्धालु दूर दूर से सरहंद पहुंचते हैं और कार सेवा करते हैं उन्हें ठंड की कोई परवाह नहीं होती…मगर लगता है कि इन धार्मिक मेलों पर भी राजनीतिक रंग चढ़ता नजर आ रहा है…पहले दिन गुरूव्दारा ज्योति स्वरूप में अखंड पाठ शुरू होता है…जबकि दूसरे दिन लीडरों की सियासी कान्फ्रेंस होती हैं… और तीसरे दिन गुरूव्दारा फतेहगढ़ साहिब से गुरूव्दारा ज्योति स्वरूप तक नगर कीर्तन निकाले जाते हैं…साहिबजादें अपनी शहीदी का बेमिसाल पैगाम दे गए…गुरू घर के खास उद्देश्य की खातिर उन्होंने हंसते हसते अपनी जान न्यौछावर कर दी…हर बरस हम उन महान सूरमाओं को याद करते हैं … जिन्होंने धर्म की खातिर अपने प्राणो की बाजी लगा दी…साहिबजादों की शहीदी जहां मनुष्य की क्रूरता को पेश करती है…वही साहिबजादों की सबर सन्तोष के भी प्रकट करती है…जिन्होंने देश और कौम की खातिर अपने प्राणों की बाजी लगा दी…खालसा अपने गुरू की मौज में रहता है वो अपने गुरू को तन मन और धन उसके सपुर्द कर देता है …वो किसी भी तरह के जुल्मों …अत्याचारों की कोई परवाह नहीं करता…


ज्यो त्यो प्रेम खेलन का चाऊ सिर धरि गली मेरी आऊ।।

इतु मारगि पैरू धरीजै सिर दीजै काणि न कीजै

अरु सिख हों अपने ही मन कऊ इह लालच हऊ गुण तऊ ऊचरौ।।

जब आव की औध निधान बनै अति ही रण में तब जूझ मरो।।


आज जरूरत है हमें भी दशमेश पिता के बच्चों से सीख लेने की और उनकी महानता को समझने की …दशम पातशाह साहिब श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने अपने लखते जिगर शहीद करवा कर सिख कौम को नई जिन्दगी बख्शी थी …हमारे मनुष्य जीवन का फायदा तभी हो सकेगा …जब हम एक दूसरे के काम आएं… और एक दूसरे की सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहें …इंसान ही एक दूसरे के काम आ सकते हैं पशु पक्षियों की बोली तो हम समझ नहीं सकते…और न ही वो ही हमारी कोई सहायता कर सकते हैं…इसलिए हमें एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए ।

इस महान शहादत के बारे में हिन्दी के कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है …


जिस कुल जाति देश के बच्चे दे सकते हैं जो बलिदान…उसका वर्तमान कुछ भी हो भविष्य है महा महान


गुरूमत के अनुसार अध्यात्मिक आनन्द पाने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व मिटाना पड़ता है…और उस परम पिता परमेश्वर की रजा में रहना पड़ता है…इस मार्ग पर गुरू का भगत , गुरू का प्यारा या सूरमा ही चल चल सकता है…इस मार्ग पर चलने के लिए श्री गुरू नानक देव जी ने सीस भेंट करने की शर्त रखी थी…एक सच्चा सिख गुरू को तन , मन और धन सौंप देता है और वो किसी भी तरह की आने वाली मुसीबत से नहीं घबराता…इसी लिए तो कहा भी गया है…


तेरा तुझको सौंप के क्या लागै है मेरा

इसी बीच अपने पुत्रों की शहादत और सिख कौम की सुरक्षा की चिंता से विचलित गुरु गोविंद सिंह जी का नांदेड़ आना हुआ. स्थानीय लोगों द्वारा ने गुरु जी को माधो दास के बारे में बताया.


चूंकि, स्थानीय लोग माधोदास से बहुत प्रभावित थे इसलिए गुरु जी ने उससे मिलने की इच्छा जताई.


माधोदस को देखते ही गुरु जी समझ गए कि यह एक योद्धा है तथा इसका जन्म वैराग के लिए नहीं अपितु मजलूमों की रक्षा के लिए हुआ है. गुरु जी ने माधो दास को समझाते हुए कहा कि “राजपूत अगर वैराग धारण कर लेंगे फिर असहाय लोगों की रक्षा कौन करेगा ?”


गुरु जी के ज्ञान और उनके मासूम पुत्रों द्वारा जनहित में अपने प्राणों का बलिदान देने की कथा सुन कर माधोदास विचलित हो उठे तथा उन्होंने गुरु जी की बात मान कर शस्त्र उठाने का मन बना लिया.


3 सितंबर 1708 ई को गुरु गोविन्द सिंह जी ने माधोदास को अमृतपान कराने के बाद एक नया नाम दिया, जो था बंदा सिंह बहादुर


बन्दा सिंह बहादुर का जन्म 27 , 1670 को ग्राम तच्छल किला, पु॰छ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों ने गुरूदेव को बताया कि गोदावरी नदी के तट पर एक वैरागी साधू रहता है जिसने योग साध्ना के बल से बहुत सी सिद्धियाँ प्राप्त की हुई हैं। जिनका प्रयोग करके वह अन्य महापुरूषों का मजाक उड़ाता है। इस प्रकार वह बहुत अभिमानी प्रवृत्ति का स्वामी बन गया है। यह ज्ञात होने पर गुरूदेव के हृदय में इस चंचल प्रवृत्ति के साधू की परीक्षा लेने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। अतः वह नादेड़ नगर के उस रमणीक स्थल पर पहुँचे, जहाँ इस वैरागी साधू का आश्रम था। संयोगवश वह साधू अपने आश्रम में नहीं था, उद्यान में तप साध्ना में लीन था। साधू के शिष्यों ने गुरूदेव का शिष्टाचार से सम्मान नहीं किया। इसलिएगुरूदेव रूष्ट हो गये और उन्होंने अपने सेवकों ;सिक्खोंद्ध को आदेश दिया कि यहीं तुरन्त भोजन तैयार करो।


इस कार्य के लिए यहीं आश्रम में बकरे भÚटका डालो। उनके आदेश का पालन किया गया। बकरों की हत्या देखकर वैरागी साधु के शिष्य बौखला गये किन्तु वे अपने को असमर्थ और विवश अनुभव कर रहे थे। सिक्खों ने उनके आश्रम को बलात् अपने नियन्त्राण में ले लिया था और गुरूदेव स्वयँ वैरागी साधु के पलंग पर विराजमान होकर आदेश दे रहे थे। वैरागी साधू के शिष्य अपना समस्त सिद्धियाँ का बल प्रयोग कर रहे थे जिस से बलात् नियन्त्राकारियों का अनिष्ट किया जा सके किन्तु वह बहुत बुरी तरह से विफल हुए। उनकी कोई भी चमत्कारी शक्ति काम नहीं आई। उन्होंने अन्त में अपने गुरू वैरागी साधू माधेदास को सन्देश भेजा कि कोई तेजस्वी तथा पराकर्मी पुरूष आश्रम में पधरे हैं जिनको परास्त करने के लिए हमने अपना समस्त योग बल प्रयोग

करके देख लिया है परन्तु हम सफल नहीं हुए। अतः आप स्वयँ इस कठिन समय में हमारा नेतृत्त्व करें।


संदेश पाते ही माधेदास वैरागी अपने आश्रम पहुँचा। एक आगन्तुक को अपने पलंग ;आसनद्ध पर बैठा देखकर, अपनीअलौकिक शक्तियों द्वारा पलंग उलटाने का प्रयत्न किया परन्तु गुरूदेव पर इन चमत्कारी शक्तियों का कोई प्रभाव न होता देख,माधे दास जान गया कि यह तो कोई पूर्ण पुरूष हैं, साधरण व्यक्ति नहीं।


उसने एक दृष्टि गुरूदेव को देखा – नूरानी चेहरा और निर्भय व्यक्ति।


उसने बहुत विनम्रता से गुरूदेव से प्रश्न किया – आप कौन हैं?


गुरूदेव ने कहा – मैं वही हूँ जिसे तू जानता है और लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा है।माधेदास


तभी माधेदास अन्तर्मुख हो गया और अन्तःकरण में झाँकने लगा। कुछ समय पश्चात् सुचेत हुआ और बोला – आप गुरू गोबिन्द सिंह जी तो नहीं?

गुरूदेव – तुमने ठीक पहचाना है मैं वही हूँ।

माधे दास – आप इध्र कैसे पधरे? मन में बड़ी उत्सुकता थी कि आप के दर्शन करूँ किन्तु कोई संयोग ही नहीं बन पाया कि पँजाब की यात्रा पर जाऊँ। आपने बहुत कृपा की जो मेरे हृदय की व्यथा जानकर स्वयँ पधरे हैं।

गुरूदेव – हम तुम्हारे प्रेम में बंधे चले आये हैं अन्यथा इध्र हमारा कोई अन्य कार्य नहीं था।

माधे दास – मैं आप का बंदा हूँ। मुझे आप सेवा बताएं और वह गुरू चरणों में दण्ड्वत प्रणाम करने लगा।

गुरूदेव उसकी विनम्रता और स्नेहशील भाषा से मंत्रामुग्ध् हो गये। उसे उठाकर कंठ से लगाया औरआदेश दिया


"यदि तुम हमारे बंदे हो तो फिर सँसार से विरक्ति क्यों? जब मज़हब के जनून में निर्दोष लोगों की हत्या की जा रही हो, अबोध् बालकों तक को दीवारों में चुना जा रहा हो। और आप जैसे तेजस्वी लोग हथियार त्याग कर सन्यासी बन जायें तो समाज में अन्याय और अत्याचार के विरू( आवाज कौन बुलंद करेगा? यदि तुम मेरे बंदे कहलाना चाहते हो तो तुम्हें समाज के प्रति उत्तरदायित्त्व निभाते हुए कर्त्तव्यपरायण बनना ही होगा क्योंकि मेरा लक्ष्य समाज में भ्रातृत्त्व उत्पन्न करना है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब स्वार्थी, अत्याचारीऔर समाज विरोधी तत्त्व का दमन किया जाये। अतः मेरे बंदे तो तलवार के ध्नी और अन्याय का मुँहतोड़ने का संकल्प करने वाले हैं। यह समय सँसार से भाग कर एकान्त में बैठने का नहीं है। तुम्हारे जैसे वीरऔर बलिष्ठ योको यदि अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़े तो चूकना नहीं चाहिए क्योंकि यह बलिदान घोर तपस्या से अध्कि फलदायक होता है।"


माधेदास ने पुनः विनती की कि मैं आपका बंदा बन चुका हूँ। आपकी प्रत्येक आज्ञा मेरे लिए अनुकरणीय है। फिर उसने कहा – मैं भटक गया था। अब मैं जान गया हूँ, मुझे जीवन चरित्रा से सन्त और कर्त्तव्य से सिपाही होना चाहिए। आपने मेरा मार्गदर्शन करके मुझे कृत्तार्थ किया है जिससे मैं अपना भविष्य

उज्ज्वल करता हुआ अपनी प्रतिभा का परिचय दे पाउँगा।

गुरूदेव, माधे दास के जीवन में क्रान्ति देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे गुरूदीक्षा देकर अमृतपान कराया। जिससे माधेदास केशधरी सिंह बन गया। पाँच प्यारों ने माधेदास का नाम परिवर्तित करके गुरूबख्शसिंह रख दिया। परन्तु वह अपने आप को गुरू गोबिन्द सिंह जी का बन्दा ही कहलाता रहा। इसी लिए इतिहासमें वह बंदा बहादुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

गुरूदेव को माधेदास ;बंदा बहादुरद्ध में मुग़लों को परास्त करने वाला अपना भावी उत्तराध्किारी दिखाई दे रहा था। अतः उसे इस कार्य के लिए प्रशिक्षण दिया गया और गुरू इतिहास, गुरू मर्यादा से पूर्णतः अवगत कराया गया। कुछ दिनों में ही उसने शस्त्रा विद्या का पुनः अभ्यास करके फिर से प्रवीणता प्राप्त कर ली। जब सभी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी तो गुरूदेव ने उसे आदेश दिया – ‘कभी गुरू पद को धरण नहीं करना में न बंधना, अन्यथा लक्ष्य से चूक जाओगे। पाँच प्यारों की आज्ञा मानकर समस्त कार्य करना। बंदा बहादुर ने इन उपदेशों के सम्मुख शीश झुका दिया। तभी गुरूदेव ने अपनी खड़ग तलवारद्ध उसे पहना दी। किन्तु सिक्ख इस कार्य से रूष्ट हो गये। उनकी मान्यता थी कि गुरूदेव की कृपाण ;तलवारद्ध पर उनका अध्किार है, वह किसी और को नहीं दी जा सकती। उन्होंने तर्क रखा कि हम आपके साथ सदैव छाया की तरह रहे हैं जब कि यह कल का

योगी आज समस्त अमूल्य स्वामी बनने जा रहा है।

गुरूदेव ने इस सत्य को स्वीकार किया। खड़ग के विकल्प में गुरूदेव जी ने उसे अपने तरकश में से पाँच तीर दिये और वचन किया जब कभी विपत्तिकाल हो तभी इनका प्रयोग करना तुरन्त सफलता मिलेगी। आशीर्वाद दिया और कहा – जा जितनी देर तू खालसा पंथ के नियमों पर कायम रहेगा। गुरू तेरी रक्षा करेगा।तुम्हारा लक्ष्य दुष्टों का नाश और दीनों की निष्काम सेवा है, इससे कभी विचलित नहीं होना। बन्दा सिंह बहादुर ने गुरूदेव को वचन दिया कि वह सदैव पंच प्यारों की आज्ञा का पालन करेगा। गुरूदेव ने अपने कर-कमलों से लिखित हुक्मनामे दिये जो पँजाब में विभिन्न क्षेत्रों में बसने वाले सिक्खों के नाम थे जिसमें आदेश था कि वह सभी बन्दा सिंह की सेना में सम्मिलित हो कर दुष्टों को परास्त करने के अभियान में कार्यरत हो जाएं और साथ

ही बन्दा सिंह को खालसे का जत्थेदार नियुक्त करके ‘बहादुर’ खिताब देकर नवाज़ा और पाँच प्यारों – भाईविनोद सिंह, भाई काहन सिंह, भाई बाज सिंह, भाई रण सिंह और रामसिंह की अगुवाई में पँजाब भेजा। उसे निशान साहब ;झंडाद्ध नगाड़ा और एक सैनिक टुकड़ी भी दीऋ जिसे लेकर वह उत्तरभारत की ओर चल पड़ा।


बंदा बहादुर के जाने के बाद वजीर खान ने दो पठानों जमशेद खान और वासिल बेग से जब गुरु सो रहे थे तब उनके विश्राम कक्ष में उन पर आक्रमण करवाया|

गोबिंद सिंह के दिल के ऊपर एक गहरी चोट लग गयी थी|


जिसके कारण 7 अक्टूबर, 1708 को, हजूर साहिब नांदेड़, नांदेड़ में 42 वर्ष की आयु में ही इस दुनिया को छोड़ कर चले गये|

दूसरी तरफ बंदा बहादुर गुरु गोविन्द सिंह जी द्वारा दिए पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर पंजाब के रस्ते में उसने अपने दल का विस्तार करना शुरू कर दिया था और गुरु जी के साथ हुए अत्याचारों का बदलना लेने की लिए उत्सुक था दिहली के समीप सही खजाना लूटा और सेना को मजबूत किया ।


फिर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। उन्होंने श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।


बाँदा बहादुर गुरु जी के छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने के लिए उतावला था जेसा की गुरु जी के चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। बंदा सिंह बहादुर के पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे। युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा सिंह बहादुर का माँस नोचा जाता रहा।


काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी।एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है। बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया – मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है।


बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया। भयभीत करने के लिएउनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया।


बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस बन्दा के मुँह में ठूँस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। फिर भी आठ जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा सिंह बहादुर अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये।

देह शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं


न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं,


अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,


जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥२३१॥



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