चार दोस्त
चार दोस्त
दिल्ली से पचास किलोमीटर दूर अमरगढ़ नाम के एक गांव में परमिंदर सिंह के आलीशान फार्म हाउस के बाहर तीन गाडीयां आ कर रुकीं। उनमें से गुरजीत, अनिल और चन्दर बाहर निकले। चारों एक दुसरे को देख कर ऐसे खुश हुए जैसे कोई खजाना मिल गया हो। वो पूरे छः साल बाद इकट्ठे हुए थे। शाम के छः बज रहे थे और उन्होंने हल्का फुल्का नाश्ता किया और सीधे गांव में ही कुछ दूरी पर अपने गुरु महेश कुमार के घर की तरफ चल दिए। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा के वो बच्चों को पढ़ा रहे हैं। उन्होंने अपने गुरु के चरण छुए और गुरु जी भी उन्हें देख कर बहुत प्रसन्न हुए। गुरु जी ने बाकी बच्चों को भी उन चारों की कहानी सुनाई। चारों दोस्तों को उस घर में कोई बद्लाव नजर नहीं आ रहा था और गुरु जी के घर जाकर और उनसे मिलकर उन की बचपन की यादें ताजा हो आईं। जब वो वापिस आकर फार्म हाउस में बातें कर रहे थे तो उनके बचपन उनका आँखों के सामने फ़्लैश की तरह चल रहा था और वो उसमें खो गए।
चारों इसी गांव में पलकर बड़े हुए थे और बड़े ही पक्के दोस्त थे। वो काफी शरारती भी थे और बुद्धिमान भी। महेश कुमार स्कूल में अध्यापक थे और उन्हें पढ़ाते थे। चारों क्लास में भी शरारतें करते रहते थे और बाद में भी पढाई कम ही करते थे पर फिर भी बुद्धिमान होने के कारण अच्छे नंबर से पास हो जाते थे। महेश कुमार उन्हें समझाते रहते कि अगर तुम थोड़ा पढाई पर ध्यान दो तो आगे जा कर बहुत बड़े आदमी बन सकते हो पर वो शरारतों में और मस्ती में ही लगे रहते थे और उनकी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे।
परमिंदर सिंह के पिता जी जमींदार थे और उनकी काफी जमीन थी। स्कूल के बाद वो सब खेतों में चले जाते और खेलते रहते। कभी गन्ने चूपने लगते, कभी गाजर मूली निकाल कर खाने लगते। घर में तो वो बस सोने के वक्त ही जाते थे। अनिल के पापा की गांव में ही परचून की दुकान थी और वो सब रोज ही वहां गोलियां टोफ़िआं लेने चले जाते। अनिल के पापा भी उनसे पैसे नहीं लेते थे। चंद्र के पिता जी टीचर थे और उनकी पोस्टिंग लखनऊ में थी और महीने दो महीने बाद ही घर आते थे। माँ उसको बार बार पढ़ने के लिए कहती थी पर उस के सर पर जूं तक नहीं रेंगती थी। गुरजीत के पिता फ़ौज में थे और उनका तो गांव में आना छः महीने या साल बाद ही हो पाता था।
जब ये सब लोग आठवीं क्लास में पढ़ रहे थे तो स्कूल की तरफ से दिल्ली के लिए एक ट्रिप गया। बस में जाते हुए चारों खूब मस्ती कर रहे थे और शोर भी काफी मचा रहे थे। दिल्ली में इंडिया गेट, लाल किला और लोटस टेम्पल देख कर उन्हें बहुत अच्छा लग रहा था। अब उन्हें क़ुतुब मीनार देखते हुए वापिस घर जाना था। जब उनकी बस क़ुतुब मीनार पहुंची तो एक दिल्ली के स्कूल की बस भी वहां खड़ी थी। इन सब बच्चों ने तो बहुत ही सादा गांव के लिबास पहन रखे थे और दिल्ली के बच्चे अपने कान्वेंट स्कूल की ड्रेस में स्मार्ट बन कर आये थे। वो इन लोगों को थोड़ी हेय दृष्टि से देख रहे थे। क़ुतुब मीनार को देखते और मस्ती करते हुए चारों एक जगह पर बैठ कर गप्पें मारने लगे। तभी वहां सात आठ लड़के उस कान्वेंट स्कूल के आ गए और उन से पूछने लगे '' भैया, कौन से गांव से आये हो ''| उनकी बातों में व्यंग ज्यादा झलक रहा था और वो हंस रहे थे। फिर वो इंग्लिश में कुछ पूछने लगे जो कि इन चारों को ज्यादा समझ में नहीं आया। इससे वो कान्वेंट के बच्चे ठहाके मार कर हंसने लगे और बोले '' भैया क्या तुम्हारे स्कूल में अंग्रेजी नहीं पढाई जाती ''। गांव में तो ये किसी की ऐसे नहीं सुनते थे पर वहां ये चारों की बोलती बंद हो गयी। शायद वो अपने आप को अपमानित महसूस कर रहे थे। जाते जाते वो बच्चे इन चारों पर और कमेंट कर गए और कहने लगे '' कोई बात नहीं, बड़े होकर तो तुम्हे गांव में खेती ही करनी है, कौन सा कोई अफसर बनना है तो खेती में तो अंग्रेजी की जरूरत पड़ेगी नहीं ''
चारों को ये बात बहुत चुभ गयी और शरारत वाले चेहरों पर उदासी सी छा गयी। चारों अब आपस में भी नहीं बोल रहे थे और बस में वापिस जाते हुए भी कोई शरारत नहीं कर रहे थे। जब उनके टीचर महेश कुमार ने पूछा '' क्या हुआ तुम लोग इतना शांत क्यों बैठे ही'', तब भी वो लोग चुप ही रहे। अगले दिन स्कूल में भी वो ज्यादा बात नहीं कर रहे थे। महेश कुमार को ये बड़ा अटपटा लगा और उन्होंने चारों को स्कूल के बाद अपने पास बुलाया और उनके इस बदलाव का कारण पूछा। शुरू में तो वो कहने में थोड़ा हिचकिचा रहे थे पर अपने टीचर के बार बार पूछने पर उन्होंने सारी बात बता दी। गुरु जी ने जब पूछा की अब तुम क्या करना चाहते हो तो वो बोले हम पढ़ लिख कर कुछ बनकर दिखाना चाहते हैं। गुरु जी ने उन सब से वादा लिया कि आज के बाद वो उन सब की शाम को एक्स्ट्रा क्लास लिया करेंगे पर उन्हें भी कुछ गंभीरता दिखानी होगी। चारों ने भी हामी भर दी।
उस दिन से वो रोज शाम गुरु जी के पास पढ़ने लगे और क्लास में भी बड़ी मेहनत करने लगे। दसवीं तक पहुँचते पहुँचते पढाई में वो काफी अच्छे हो गए और सभी के नब्बे प्रतिशत से ज्यादा नंबर आये। दसवीं के बाद सभी के सब्जेक्ट थोड़ा बदल गए थे पर वो सब इकट्ठे ही पढ़ते थे और गुरु जी से भी सलाह मशविरा करते रहते थे। चंद्र ने मेडिकल लिया था और उसने पी एम टी क्लियर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया। वो अपने पूरे डिस्ट्रिक्ट में फर्स्ट आया था। गुरजीत ने एन डी ए ज्वाइन कर लिया। अनिल का आई आई टी मुंबई में एडमिशन हो गया और परमिंदर आगे की पढाई करने विदेश चला गया।
अनिल के आई आई टी में होते हुए उसके परिवार ने भी मुंबई शिफ्ट कर लिया। आई आई टी करने के बाद उसने अपने बिज़नेस शुरू कर लिया और कड़ी मेहनत के कारण वो दो साल में ही एक प्रतिष्ठित बिजनेसमैन बन आया।चन्दर का परिवार भी उसके पापा की नौकरी लखनऊ होने के कारण वहां चला गया। गुरजीत अब मिलिट्री में मेजर बन गया था और उसने माँ को अपने साथ बुला लिया। परमिंदर जो कनाडा गया था वहां से खेती की आर्गेनिक और आधुनिक तकनीक सीख कर गांव वापिस आ गया और वहीँ आर्गेनिक खेती करने लगा और दो साल में ही उसकी फसलों की डिमांड इतनी बढ़ गयी के वो एक समृद्ध किसान और बिजनेसमैन बन गया। उस ने अपने गांव की भलाई के लिए बहुत से काम किये और उनके गांव का नाम आस पास के गांव में मशहूर हो गया। दिल्ली के लोग भी उनके गांव की मिसाल देने लगे। चन्दर, अनिल और गुरजीत गांव में तो अभी तक नहीं आ पाए थे पर परमिंदर से गांव की तरक्की के बारे में सुनते रहते थे और अपना योगदान भी उसे भेजते रहते थे।
अगले दिन सुबह सुबह सब तैयार हो रहे थे। तैयार होकर उन्होंने गुरु जी को अपने साथ लिया और दिल्ली की और चल पड़े। असल में वो राष्ट्रपति भवन जा रहे थे। उनके गांव को आज आदर्श गांव का पुरूस्कार मिलना था और उन चारों को और गुरु जी को भी उस समारोह में सम्मान दिया जाना था।
