बुढ़ापे की सनक
बुढ़ापे की सनक
आमतौर पर सनक अनोखे व्यवहार को कहते हैं। एक सनकी की आदतें सामान्य व्यक्ति की समझ से बाहर होती हैं। निरंकुश तानाशाह शासकों की सनक के नतीजों से इतिहास के पन्ने रक्तरंजित हैं।ये अपनी खिलाफत बर्दाश्त नहीं करते।मानव जीवन इनके लिए कोई माने नहीं रखता।इंसान इनके लिए खिलौने होते हैं।दूसरी ओर यह भी देखा गया है कि अति प्रतिभाशाली लोग भी सनकी होते हैं।ये विशिष्ट होते हैं और समाज इन्हें अपने से अलग पाकर इन्हें सनकी की उपाधि दे देता है। समाज में उनकी इन आदतों को किस रूप में लिया जाता है, उसके प्रति यह पूर्ण तरह उदासीन होते हैं।कुछ व्यक्ति जो जीवन की भागादौड़ी में यदि युवावस्था में रोजी रोटी के अलावा कुछ नहीं के पाए मगर सेवानिवृत्ति के पश्चात समाज के लिए कुछ लीक से हटकर करने लगते हैं,समाज शुरू शुरू में उन पर हंसता है,उन्हें बुढ़ापे में सनक गए हैं ,ऐसा कहता है।
आज ऐसे ही एक प्रेरक व्यक्तित्व के धनी की लग्न,जिसे दुनिया बुढ़ापे की सनक कह कर हंसती थी,वह लग्न दुनिया के लिए उदाहरण बन गई है और वे खुद नज़ीर बन गए हैं।
उत्तराखंड के पौड़ी जिले में कल्जीखाल ब्लॉक में सांगुडा गांव है, यूं तो यह गांव भी दूसरे गांवों की तरह ही है। आसपास के सीढ़ी नुमा खेतों में घास पतवार यह एहसास कराती है कि नई पीढ़ी खेती से विमुख होती जा रही है।
सड़क से लगभग 1 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई के बाद गांव के अंतिम छोर पर पहुंचने पर चारों ओर फैली हरियाली देख ,आंखे आश्चर्य और सुकून दोनों से खुली रह जाती हैं। झूमते सेव, नारंगी, खुमानी के पेड़ों को देखकर तबीयत खुश हो जाती है।
किसने किया है यह चमत्कार !कौन सी जगह है यह ? यह है, मोती बाग, यहां के 83 वर्षीय श्री विद्या दत्त शर्मा के हाथों ओर इरादों का कमाल है यह!
श्री विद्या दत्त शर्मा के अथक परिश्रम से यह गांव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना रहा है। इन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनी है जिसका शीर्षक है ,'मोती बाग' ।गर्व की बात है कि यह डॉक्यूमेंट्री ऑस्कर में धूम मचाने को तैयार है।
विद्याधर शर्माजी बताते हैं कि खेती का शौक कब जुनून बन गया उन्हें पता ही नहीं चला। वे भू-माप विशेषज्ञ थे। 1964 में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और खेती करने का रास्ता चुना ।1967 में उन्होंने अपने बिखरे खेतों को ग्रामीणों से बदल करीब ढाई एकड़ का एक-चक बनाया।
वह कहते हैं ," इतनी ऊंचाई पर पहाड़ की पथरीली जमीन को उर्वरक बनाना आसान नहीं था, जानवरों का भी डर था और सिवाय बारिश के सिंचाई का और कोई जरिया नहीं था।"तब लोगों ने इन्हें सनकी मान लिया था।
इन्होंने रेन वाटर हार्वेस्टिंग से सिंचाई का रास्ता निकाला, वह भी पहाड़ की चोटी पर ! इसके लिए उन्होंने 20 फीट गहरा 15 फीट लंबा और 10 फीट चौड़ा एक टैंक बनाया। टैंक में बारिश का पानी एकत्र करने के लिए पहाड़ पर छोटी-छोटी नालियां बनाई और ऐसी नालियां टैंक से बगीचे तक बनाईं।
युवाओं को गांवों से पलायन करता देख , उन्हें प्रेरणा देने और खेती को रोजगार का जरिया बनाने की प्रेरणा देने के लिए उन्होंने यह कदम उठाया था।
एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड के 16,000 गांवों में से करीब 7000 गांव पलायन की मार झेल रहे हैं। जहां गांवों में खेतों की दुर्दशा मन को पीड़ित करती है, वहीं 83 वर्ष की आयु में ऐसे काम का बीड़ा उठाने वाले व्यक्ति के जोश को महज सनक कहेंगे ?
मेरी राय में तो यह मिसाल है।आप सनक कहते हैं तो ऐसी सनक ..अच्छी है।