Sanjay Aswal

Drama

4.8  

Sanjay Aswal

Drama

बसु

बसु

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एक बड़े पैसे वाले परिवार की लाडली इकलौती बेटी,अपने चार भाइयों की इकलौती बहन बसु जिसके पिता सेना में सूबेदार पद पर आसाम में तैनात थे। ताऊजी गांव के प्रधान, दोनों चाचा सरकारी सेवा में आकाश वाणी और भारतीय प्रेस में नौकरी करते थे। बसु एक नेक और समझदार लड़की थी, जो अभी आठवीं कक्षा की छात्रा थी। सारे गांव में इठलाती, मंडराती हंसमुख स्वभाव की बसु लाडली बसु को उसकी दो मां कुछ भी करने नहीं देती थी। हां दो मां, आपने सही पढ़ा,उसके पिता की दो पत्नियां थीं। चारों भाई भी इकलौती बहन को कुछ भी काम करने नहीं देते,लाडली जो ठहरी। बसु अभी मात्र १५ की हुईं होगी तो उसके लिए रिश्ते आने शुरू हो गए, पर वो पढ़ना चाहती थी मगर उस दौर में आठवीं कर लेना ही काफी माना जाता था। एक दिन सखियों संग पंधेर (पनघट) में पानी लेने गई तो देखा कोई उसे निहार रहा है,और वो ना समझ उसे समझ नहीं आ रहा था कि कुछ लोग उसे यूं क्यूं देख रहे हैं। घर लौटने पर पता चला लड़के वाले देखने आए थे और उन्होंने उसे पसंद भी कर लिया। वो ये सुन कर बहुत रोई,उसे अभी शादी नहीं करनी,उसे तो अभी पढ़ना है। मां ने जब समझाया तो कि शादी तो सभी को करनी होती है,और तेरी उम्र की लड़कियों की शादियां भी हो रही है कुछ भी असामान्य नहीं है। ये सुन कर वो कुछ समय के साथ सामान्य हो गई। अब बसु की शादी तय हो गई, लड़का सरकारी सेवा में लोक निर्माण विभाग में क्लर्क पद पर था। शादी की खुशियां और सपनों के बीच वो कब मायके से विदा हो गई पता ही नहीं चला। एक बड़े परिवार में जिसमे सोलह सदस्य थे, और वो इकलौती बहू जिसके दो देवर और ननद तो अभी मात्र २-३ साल के अबोध बच्चे थे।

जिन्हें उसे ना सिर्फ संभालना था, बल्कि इसके साथ साथ बहू का फर्ज भी निभाना था। इतने बड़े परिवार में रहना जिम्मेदारियों का उठना उसके लिए एक चुनौती थी। उसने तो मायके में काम सीखा ही नहीं, मांओं की दुलारी अब बड़े परिवार के साथ सामंजस्य बैठाने में उसे काफी मुश्किल हो रही थी। अक्सर सही से काम ना कर पाने के कारण सास के ताने शुरू से ही मिलने लगे, सुबह भेाैर में उठना,गाय बैलो को पिंडू (रात का बचा खाना) खिलाना रोज की दिनचर्या थी उसकी।

सुबह उठ के छन ( गौशाला) में जाना वहां से पानी लेने फिर पंधेर जाना, घर आ के इतने बड़े परिवार के लिए सुबह का कलेवा तैयार करना कमर ही टूट जाती थी, पर काम खत्म नहीं होता। खुद आधे पेट खाकर वो बुण ( जंगल) घास और लकड़ियों के लिए जाती तो अक्सर सोचती अगर मायके में खैर( परिश्रम) खाया होता तो आज ये दिन नहीं देखने पड़ते। थकी हारी घास लकड़ियां ला कर बिना कुछ खाए शाम की खाने की तैयारी शुरू कर देती, पर उसकी कोई कद्र परिवार में नहीं थी। वो दिन रात खटती मन से सब को खुश करने का जितना भी जतन करती फिर भी कम ही पड़ता। खैर समय मानो पंख लगा के कब उड़ गया पता ही नहीं चला। सास की कड़कड़, छोटे देवरों ननद की चाकरी सब करने लगी थी पर सास से कभी प्यार के दो मीठे बोल सुनने को नहीं मिले। बूण में मां को याद करके खूब रोती पर इससे उसके दर्द में जरा भी कमी नहीं आती। अब तो उसकी भी लड़की हो गई जो बिल्कुल कमजोर सी अपने मां बसु पर ही गई थी। बसु उसे थोड़ा ही निहार पाती और फिर काम में लग जाती उसके काम की कोई सीमा ही नहीं वो ख़तम ही नहीं होता। पति भी बड़े परिवार के भरण पोषण में दिन रात लगा रहता, साथ में दो भाइयों को पढ़ा भी रहा था, पर इतना नहीं कमाता कि परिवार की जरूरतों को पूरा कर पाता, इसलिए शाम को नौकरी से आके टाइपिंग इंस्टीट्यूट में कुछ पेज टाइप कर के कुछ एक्स्ट्रा पैसे कमा लेता, पर जरूरतों की कोई सीमा नहीं होती है।

बसु कुछ साल गांव में संघर्ष करने के बाद अपने पति और देवरों के लिए खाना बनाने जी हां सही पढ़ा खाना बनाने अपने पति के साथ लखनऊ आ गई,जहां उसे अपने दो देवरों के नखरे ताने सुनने पड़ते।पति भी इतना नहीं कमाता कि घर का खर्चा चल सके तो बसु ने बुनाई सीखने की ठानी ताकि कुछ पैसे कमा कर पति के साथ घर का खर्च चला सके। अभी उसका एक बेटा भी हो गया,बसु अपने पिता के दिए जेवरों से हाउसिंग बोर्ड के घर के लिए अप्लाई करती है,किस्मत ने उसका साथ दिया,उसका नाम लॉटरी में आ गया। जल्द ही उसको घर भी मिल गया अपने परिवार के लिए। अब बसु ने परिवार के लिए अपना दिन रात एक कर दिया। इसी उधेड़बुन में कि उसके परिवार को अब पैसों के लिए मजबुर ना होना पड़े। इसी बीच उसे एक सरकारी विभाग में नौकरी का अवसर भी मिला परन्तु पति ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया जिस के कारण वो ये नौकरी कर ना सकी। लखनऊ में समय तेजी से निकलता रहा, बच्चे भी अब बड़े होने लगे। इसी बीच उसके पति का ट्रांसफर दूर पहाड़ों में छोटे से शहर पौड़ी हो गया, वो वहां उस दुर्गम में नहीं जाना चाहती थी पर सास के दवाब में उसे और उसके पति को झुकना पड़ा और वो पौड़ी आ गए।

बहुत ही दुर्गम चारों तरफ बर्फ ही बर्फ इस पहाड़ी शहर पौड़ी में फिर से एक नई शुरुआत अपने में एक चुनौती थी,पर बसु ने हार नहीं मानी और परिवार के लिए जुट गई। इस बीच समय के साथ साथ उसके तीन लड़कियां और हो गई अब वो पांच बच्चों की मां थी। दिन रात अपने बच्चों और पति के लिए चिंता करती, उसने आस पास खाली खेतों में मेहनत करके सब्जियां उगाना शुरू कर दिया, पति की कम सैलरी में घर चलाना पांच बच्चों का लालन पालन करना आसान ना था। अपनी तो उसे चिंता ही नही थी,इसी बीच वो बीमार पड़ गई, अस्पताल में भर्ती रही, वहां भी उसे सिर्फ अपने बच्चों, पति की चिंता लगी रहती कि अगर उसे कुछ हो गया तो मेरे बाद इनका क्या होगा,इसी दुख में वो अंदर ही अंदर घुटती रही, भगवान से प्रार्थना करती कि उसे कुछ समय दे दे ताकि वो अपने बच्चों को इस लायक बना दे कि वो अपना भरण पोषण कर सके।

कहते हैं सच्चे दिल की आवाज उपर वाला जरूर सुनता है और उसने बसु की बात सुन ली। डॉक्टरों के काफी कोशिशों के बाद बसु ठीक हो गई, बसु ठीक होते ही फिर से परिवार के लिए जुट गई, इसी तरह परिवार के लिए मरते खपते बसु और उसका परिवार आगे बढ़ते गए।आज कई साल बीत गए बसु के सब बच्चों की शादियां हो गई है। बेटियां अपने पतियों बच्चों के साथ अपने जीवन की नई इबारत लिख रहे हैं। बसु अपने पति, बेटे बहू और पोतों के साथ दून में रह कर जिंदगी की हर वो चुनौतियां जो उसने झेली और जिस जज्बे से उसने उन से पार पाया अपने बच्चों को वो सीख दे रही। परिवार में बहुत से कठिनाइयां आती है,सुख दुःख भी आते है उनको मिल कर हंस कर साथ साथ निभाना होता है ये बातें सिर्फ कहने की नहीं होती उन्हें महसूस भी करना होता है जीना होता है,बसु के जीवन की हर कठिनाइयां, संघर्ष, बड़े परिवार के बीच रह कर सुख दुःख के साथ सामंजस्य स्थापित करना बसु ने बखूबी सीखा और वही अनुभव वो अपने बेटियों और बेटे बहू को दे रही है,उन्हें भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार रहने और वर्तमान के लिए जीने की सीख देती बसु आज भी परिवार के लिए संघर्ष रत है।


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