बरगद का पेड़ और वो------
बरगद का पेड़ और वो------
बरगद का पेड़ और वो------
सुनकर बरबस ही दिमाग उसी गुजरे वक़्त में पहुँच गया------
यह बात उन दिनों की है, जब मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी। हमारे घर से लगभग 2 किमी दूर एक नया साईं मंदिर बना था। अगले दिन गुरु पूर्णिमा थी। जिसके कारण मंदिर प्रांगण में भजन संध्या, फिर कलश यात्रा का बहुत बड़े स्तर पर आयोजन किया हुआ था।पूरा मंदिर लड़ियों से सजा हुआ जगमगा रहा था। चारों ओर साईं साईं की धूम थी।
इसलिए शाम को अगले दिन मेरी माताजी, और बहनें भी भजन संध्या एवं कलश यात्रा के लिए चली गईं। कलश यात्रा में शिव परिवार, सीता-राम, राधा-कृष्ण आदि की कई सुंदर-सुंदर और बड़ी बड़ी झाँकियाँ थीं। पूरी कलश यात्रा लगभग 5 किमी की दूरी तय करते हुए हमारे मोहल्ले से भी होकर गुजरी थी। कलश यात्रा की मनमोहक छवि और लोगों की भक्ति इस आयोजन को पूर्ण कर रही थी। दूर-दूर तक जयनाद घोष गूँज रहा था। लोगों की भीड मंदिर में उमड़ रही थी। मंदिर समिति ने लोगों के आने-जाने के लिए मुख्य सड़क तक गाड़ियों का इंतजाम करवा रखा था। इसलिए हमारे मोहल्ले से भी कई परिवार मंदिर चले गये थे। त्योहार जैसे माहौल से सभी लोग बहुत खुश थे। मंदिर का प्रोग्राम देर रात तक समाप्त हुआ। जिसके चलते रात को 12:45 बजे के लगभग सभी लोग मिलजुल कर घर वापस लौट आये ।
चूँकि मैं मंदिर नहीं गई थी। इसलिए मेरी बहनें प्रोग्राम की बातें बताने लगीं । उनकी बातों से उनकी खुशी साफ झलक रही थी। मेरी बीच वाली बहन सिम्मी कुछ डरी-सहमी सी नजर आ रही थी। धीरे-धीरे उसे तेज बुखार चढ़ने लगा। मैंने उसका बुखार मापा, तो वह 104 डिग्री के लगभग था। मेरी माँ ने उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखनी शुरू कर दी और मुझे उसे बुखार की दवा देने को कहा। दवा खाकर भी उसका बुखार कम होने का नाम नहीं ले रहा था। वह बुखार में बड़बड़ा रही थी।
ज्यादा थके होने के कारण आस-पड़ोस के लोग भी सो गये थे। इसलिए हेल्प के लिए किसी को कहने जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं कभी उसके हाथों को तो कभी पैरों को दबाती। क्योंकि उसका पूरा शरीर तेज दर्द कर रहा था। वह बेहोशी जैसी अवस्था में भी दर्द से छटपटा रही थी। अचानक रात के 3 बजे वह चिल्लाकर उठ बैठी, और ज़ोर से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी कि वो------ वो मुझे----- बुला ------रही है। वो-- बुला रही है----!
उसका ऐसा व्यवहार देखकर हम सब बहुत परेशान हो गए। वह तेज बुखार से अर्द्ध बेहोशी की हालत में भी ज़ोर-ज़ोर से हाथ-पैर चला रही थी। ऐसा लग रहा था, जैसे कि उसमें ज्यादा ताक़त आ गई हो। उसे संभालना मुश्किल हो रहा था।
थोड़ी देर में ही पड़ोसी भी जाग गए। उन्होंने आवाज़ देकर बाहर से पूछा, तो मैंने उन्हें स्थिति से अवगत कराया। वे लोग तुरंत हमारे घर आ गए। सभी उसे देख रहे थे और समझने का प्रयास कर रहे थे।
तभी एक आण्टी जी ने कहा, कि वो लौट आई है---- लौट आई है। अब कोई नहीं बचेगा।
उनकी बातें सुनकर सभी हैरान-परेशान से दिखने लगे। मैंने उनसे पूछा कि कौन लौट आई है? कहाँ लौट आई है? मेरी माँ बहुत ज्यादा दुःखी और परेशान हो गई। मैं नासमझ सी कभी आंटियों को देखती, कभी अपनी माँ को तो कभी तड़पती बहन को------।
वो------ वो ------ वो जो रास्ते वाले बरगद के पेड़ पर रहती थी।
कौन रहती थी?
बार-बार पूछने पर पता चला कि कई साल पहले एक महिला ने उसी पेड़ के नीचे आत्महत्या की थी। सबका कहना था कि उसकी आत्मा बरगद के पेड़ पर ही रहती थी। एक बार एक तांत्रिक के प्रयास से उस आत्मा को पेड़ से पकड़कर किसी पहाड़ की खाई से नीचे फेंक दिया गया था। तब से कोई घटना वहाँ नहीं घटी थी।
अब कई सालों बाद ये घटना घटी देख सबके होश उड़ गए थे।
बस, फिर क्या था? घर में कोहराम मच गया। झाड़ फूँक करने वाले तांत्रिक को बुलाने की जी तोड़ कोशिशें की गई। लेकिन कोई भी बरगद का पेड़ जानने के बाद आने को तैयार नहीं हुआ। ऐसे करते वक़्त बीतने लगा । लेकिन न सिम्मी का बुखार उतर रहा था और न ही उसकी चीखें कम हो रही थीं। सभी थक-हार चुके थे। सुबह के 5 बज गए थे। कई घरेलू उपाय जैसे हनुमान जी का टीका, हनुमान चालीसा आदि भी किए जा चुके थे। पर सिम्मी की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। तभी हमारे पड़ोस के भैया ने कहा कि उन्हें NCC परेड के लिए जाना है। मैं अपने Sir से बात करके देखता हूँ। शायद कोई मिल जाए। यह कहकर भैया चले गए। लेकिन 10 मिनट बाद ही वे लौटकर सीधे मेरी बहन के पास आ गए।
भैया ने मेरी बहन को तेजी से झिंझोड़ते हुए कहा," सिम्मी, सिम्मी क्या देखा था तुमने बरगद के पेड़ पर? जल्दी बता ------ । बोल सिम्मी ------ क्या देखा था? सिम्मी ने डरकर चिल्लाते हुए कहा कि वहाँ ------गुड़िया -----लटकी है, -----जो ---- जो मुझे -----बुला रही है।
वो मुझे ----- मार डालेगी---- । यह सुनकर भैया ने बड़े अंकल जी कुछ कहा। फिर अंकल जी और भैया सिम्मी को खींचकर वहाँ ले जाने लगे।
सभी अचरज से उन्हें देख रहे थे।
भैया कह रहे थे --चल मुझे बता, कौन-सी गुड़िया है ? जिसने तेरी ये हालत कर रखी है? आज उसे नहीं छोड़ूंगा। ------तू चल मेरे साथ।----- उसकी इतनी हिम्मत कि -----हमारी सिम्मी को------ परेशान करे। चल---- जल्दी उठ बच्चे।
सिम्मी भैया का हाथ झटकने लगी। मुझे नहीं जाना। वह मुझे मार डालेगी। सभी पड़ोस की आण्टियाँ और अंकल जी भैया को डाँटने लगे।
तब भैया ने कहा, आप सब भी इसे लेकर वहाँ पहुँचो। देखना वहाँ पहुँचते ही सिम्मी बिल्कुल ठीक हो जायेगी।
सभी बहुत ज्यादा परेशान हो चुके थे। शायद ये उपाय कारगर हो जाए, ये सोचकर सबने सिम्मी को वहाँ ले जाने की जी तोड़ कोशिश की। आखिर जबरदस्ती सिम्मी को लेकर सब बरगद के पेड़ के पास पहुँचे। सिम्मी ने ज़ोर से अपनी आँखें बंद की हुईं थीं और वह थर- थर काँप रही थी। भैया ने कहा, सब ऊपर पेड़ को देखो------। यह सुनते ही सबकी नज़र ऊपर उठ गई। सबने देखा- एक बहुत बड़ा रुई का टुकड़ा पेड़ की टहनियों से उलझकर लटका हुआ था। वही हवा के झोंकों से हिलते हुए गुड़िया की तरह लग रहा था। शायद कलश यात्रा की झाँकी से ही टहनियों में रुई का गुच्छा उलझकर रह गया था और हवा के झोंकों से इधर-उधर झूल रहा था।
बस फिर क्या था, दस मिनट में ही पूरा माहौल बदल गया। सिम्मी अब तक अपनी आँखें बंद किए खड़ी थी। डर अब भी उसके चेहरे पर दिखाई दे रहा था।
भैया ने सिम्मी से कहा, आँखें खोलो सिम्मी। देखो कोई गुड़िया नहीं है यहाँ।
आँखें खोलकर देख तो सही। फिर भी सिम्मी वैसे ही आँखें बंद किए जड़वत खड़ी रही। अब सभी लोग सिम्मी को कहने लगे। आखिरकार थोड़ी देर में सिम्मी ने डरते-डरते आँखें खोली। उसने चारों ओर देखा। सभी खड़े हुए उसे ही देख रहे थे। अब भैया ने उसे ऊपर देखने को कहा। डरी हुई आँखों से उसने धीरे धीरे ऊपर देखा। सुबह की सूरज की किरणें सारी सच्चाई को बयां कर रही थी।रुई का बड़ा सा टुकड़ा बरगद की टहनियों में उलझकर झूलते हुए उसे चिड़ा रहा था। धीरे-धीरे सिम्मी के मन का डर खत्म होने लगा। अब वह सामान्य नजर आ रही थी।मेरी माँ खुशी से उसे गले लगाकर रो पड़ी।
सारी परेशानियाँ झट से छूमंतर हो गई थी। सिम्मी भी अब पूरी तरह ठीक हो गई थी। उसका बुखार तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गया था । सभी लोग हँसते मुस्कराते हुए घर की ओर चल दिए। सारे रास्ते भैया और उनकी सूझ-बूझ की बातें और तारीफें होती रहीं।
रात की सारी परेशानियाँ, सुबह के उजाले में खोकर नई मुस्कराती सुबह ले आई थी।
बरगद का पेड़ और वो, जो कोई थी ही नहीं। फ़िर भी सारी रात जगा गई।
आज भी जब यह घटना याद आती है, हमें मन के डर से होने वाली परेशानियों से आगाह करती है और बरबस ही लबों पर मुस्कान छोड़ जाती है।
@Pratima
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