वह--पगली-सी औरत !
वह--पगली-सी औरत !
आज फ़िर से मन बहुत बेचैन था। ऐसा लग रहा था, जैसे कुछ ठीक नहीं हुआ। कुछ तो गलत हुआ था। पर क्या! समझ नहीं आ रहा था। कभी बाहर आँगन में रखी कुर्सी पर बैठती, तो कभी अंदर आकर बिस्तर पर लेट जाती।
कभी मन में हलचल होने लगती। तो कभी मन बिल्कुल शांत हो, नीरवता की चादर ओढ़ लेता।
पूरा दिन! ऐसे ही गुजर गया। घर पर भी सभी कहने लगे, कि डॉक्टर को दिखा लो अब। लेकिन मैं क्या जवाब देती, कि मन क्यों बेचैन है--?
जिस प्रश्न का उत्तर मेरे पास ख़ुद ही नहीं, उसका जवाब दूसरों को कैसे दूँ ?
लेकिन जवाब तो देना ही पड़ता है। मगर क्या जवाब दूँ ?
फ़िर अचानक, जैसे काले-घने बादलों की ओट से चाँद झाँकने लगा हो; वैसे ही बेचैनी का सबब भी दिल के कोने से आवाज़ देने लगा। फ़िर एक चलचित्र की तरह, आँखों से गुजरकर दिल को छलनी करने लगा।
आज सुबह-सुबह वही घटना, एक ख़्वाब की तरह आँखों के सामने जीवंत हो उठी थी। उसी ख़्वाब ने मन बेचैन कर दिया था। वह-----
ख़्वाब! वो बचपन-सा अलसाया हुआ था।
ख़्वाब! जो दिल-दर्पण में समाया हुआ था।
मन की बेचैनी, आँखों की नमी उसे दर्द बनाकर तड़पा रही थी। आज चार दिन बाद भी उसकी परछाई दिल में दस्तक दे रही थी। वैसे तो, ऐसे मंज़र कई बार देखे थे। किंतु बारिश में सारी रात भीगकर, काँपती हुई एक पगली-सी औरत पहली बार आँखों के सामने थी। मैंने असहाय होकर सामने खड़े 2-4 लोगों से मदद भी माँगी। किंतु जीवन की रफ़्तार में बहते लोग, उसे अनसुना कर आगे निकल गये। अब मैं क्या करुँ? कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
एक समय था, जब लोग दूर होकर भी मदद करने चले आते थे। लेकिन आज ऐसा लगा, जैसे हृदय की सभी संवेदना खो चुकी हैं। हाँ! उनमें एक मैं भी तो थी। जो केवल दूसरों से ही मदद की गुहार लगा रही थी। स्वयम् तो मैं भी, असहाय-सी खड़ी; होने वाले तमाशे का एक हिस्सा मात्र थी।
ऐसा लगा--जब तक, दिन में घर पहुँचूँगी; तब तक शायद वह दुनिया से विदा हो जाये। तब शायद जिंदगी भर, मैं ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाऊँगी-----।
तभी साथ के Sir( गुरुजी) उस स्थल पर पहुँच गये। मैंने car में बैठते हुए रुँवासे होकर उनसे सिर्फ इतना ही कहा, कि जब तक हम यहाँ लौटकर पहुँचेंगे; तब तक शायद यह मर चुकी होगी।
उन्होंने मेरी ऊँगली के इशारे को समझ उधर देखा, फ़िर कहा, "क्या अपना छाता दे दूँ इसे।"
"हाँ", मैंने थोड़ा तसल्ली के साथ कहा। वे बारिश में कार से बाहर उतरे और कार से छाता निकालकर उसे दे दिया। मैंने मन ही मन उन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद दिया।
फ़िर हम अपने गंतव्य की ओर चल दिये। मैंने घर पर भी कॉल करके कह दिया था कि उसे किसी भी तरह जाकर सूखे कपड़े पहना आयें।
दिनभर मन भारी रहा। छुट्टी के बाद जब हम लौटकर वहाँ पहुँचे, तो बारिश रुक चुकी थी। वह सूखे कपड़ों में अपनी जगह बैठकर खाना खा रही थी----। छाता उसने ऐसे पकड़ रखा था, जैसे कोई उससे; उसकी कीमती चीज़ छीन लेगा।
मैं थोड़ी देर तक उसे ग़ौर से देखती रही। फ़िर घर के लिए निकल गई। तसल्ली थी, कि वह ज़िंदा थी। पर हम! ----ख़ुद शायद अब मर चुके हैं। हमारी संवेदना, हमारी कर्मठता अब जीवित है या नहीं; यह सवाल मुझे अब भी बेचैन कर रहा है !
