बोया पेड़ बबूल का ...

बोया पेड़ बबूल का ...

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यूँ तो इस खोली में अकेली रहने का यह पहला मौका नहीं था, किन्तु इस बार उसे लग रहा था जैसे उसके आस-पास के घरों में भी सन्नाटा है, पूरा शहर खाली हो गया है, कहाँ चले गये सबके सब, वह मधुआ जो चन्द्र को गोद में टाँगे रहता, उसके हाथ से बने गुलाब जामुन खाने के लोभ में, प्रकाश के जन्म के समय भी ये लोग ही थे आसपास। अस्पताल से लेकर घर तक देखभाल में लगे। उसने भी तो कभी मधुआ को पराया नहीं समझा, चन्द्र को बाद में मधुआ को पहले दिया जो कुछ भी बनाया। यह तो जग की रीति है कि, ‘‘कोई किसी का बचवा दुलारे, तो कोई किसी का बुढ़वा।’’ शुरू-शुरू में जब गाँव से आई थी, यह छोटी सी खोली उसे छोटे गले के ब्लाउज जैसी लगती, गले में फंसी फंसी। एक ही जगह बार-बार वस्तुएँ धरो फिर दूसरे काम के लिए जगह खाली करो। अपने बड़े से आँगन उसमें लगे अमरूद के पेड़ को याद कर रोया करती थी। मधुवा की माँ जानकी उसे समझाती - ‘‘अपने आदमी के साथ रहने आई हो, इसी में खुश रहो। घर ही बड़ा हो और घर वाला न हो तो वह घर किस काम का ?’’

उसने ठीक ही कहा था, वर्ष पर वर्ष बीतते गये वह खोली ही उसका संसार हो गई, अरे एक बार तो गजब ही हो गया ! 25 जनवरी की रात थी, पिता जी गाँव से आये हुए थे बेटी-दामाद से मिलने, देर रात तक बतकही होती रही, बिस्तर भी तो उस समय एक ही था, वही जो गवन में मिला था, प्रेम ने मेला ड्युटी के दौरान अपना पूरा बिस्तर वहीं छोड़ दिया था, काम चल रहा था इसलिए ध्यान नहीं दिया था उसने। पिताजी पुराने आदमी, ठंड में अपना कंबल लिए बिना कहीं जाते नहीं थे, उनका तो जम गया, उसे बोरे जैसा कंबल बिछाकर जमीन पर सोना पड़ा दो चादरें ओढ़कर परन्तु अभाव का भाव नहीं था दूर-दूर तक, पिताजी आये थे, आनंद था मन में।

न जाने कब रात के समय वर्षा शुरू हुई वे तीनों ही नहीं जाने। जब नींद खुली तो देखा, खोली में पानी बह रहा था, जैसे छिछली नदी हो, उसका सारा बिस्तर भींगा हुआ था, प्रेम की रजाई, पिताजी का कंबल भीग कर एक दम बोथा हो चुका था।

‘‘हाय ! ये पानी कहाँ से घुस आया खोली में ?’’ वह चीख पड़ी थी। वे दोनों उठकर बैठ गये। प्रेम ने ऊपर देखा, खपरैल जगह-जगह से टपक रहा था।

‘‘यह खोली इतना टपकती है पता नहीं था।’’ प्रेम ने शर्म से निगाहें झुका रखी थी। सुबह पिताजी ऊपर चढ़कर खपरैल ठीक करने लगे थे। खोली के सामने पाँच फीट की जो रसोई है वह तो लबालब भरी थी, सूखी लकड़ी, माचिस, मसाले सब कुछ भींग चुका था। प्रेम छाता लेकर दुकान गया, माचिस, चायपत्ती आदि लाकर मिट्टी तेल के सहारे लकड़ी सुखाई गई तब कहीं घंटों में चाय बन पाई। प्रेम ने अपने मित्र को भोजन का न्यौता दे रखा था, पानी दिन भर बरसता रहा, पूड़ी निकालने के लिए कड़ाही चढ़ाई तो पानी छन्न....छन्न करके तेल में टपकने लगा। पूरा घर कीचड़ हो चुका था, दो बार फिसल-फिसलकर गिरी थी। वह अकेले में मुस्करा पड़ी थी, हर साल ही तो बरसात यूँ ही गुजरी है। अंग्रेजों की बनवाई खोली है, वे भारतीय सिपाहियों को मनुष्य समझते ही कब थे, स्वतंत्र देश की सरकार अभी तक इतिहास बदलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई है। और वह जो खोली अब तोड़ी जा चुकी है, साहब की हुआ करती थी। सिपाही माने साहब का गुलाम, उसकी बीवी साहब की गुलाम।

‘‘साहब से चिरौरी करिह ....त तोरे मनसवा के डिपटी दुइ पइसा मिलै वाली जगह पर लगाई देवा करिहैं, देश छोड़ परदेश आय हन, तो काहे लिए ? दुइ पइसा बनावै के लिए तो ?’’ समझाया था, एक पड़ोसन ने, मन में आ गया तो रास्ता भी बन गया।

प्रेम का क्या ? बस गांजे की तीन चार चिलम मिल जाय, बैठने को कुर्सी, पंखा लगा हो तो आ! हा..!..हा.!.. फिर मतलब नहीं मेहरारू के देह पर कपड़ा है या नहीं।

एक दिन तो जैसे ही वह अन्दर घुसी, किसी दूसरी औरत को देखकर जल भून गई, जी तो हुआ लूगा खोल कर नचा दे पुरी लाइन में, परन्तु अगली और तेज थी।

‘‘भागती है कि उठाऊँ लाठी, तू ने खरीद लिया है क्या साहब को, या सिन्दूर दरवा ली है ? दिन में तो घूंघट डाले रहती है और रात में ?’’

उसे साहब की इज्जत का भी ख्याल करना पड़ा, अगले 15 दिन प्रेम, क्वार्टर गाॅर्ड में बंदूक लिए घूमता रहा। घर में भी डाँट पड़ी थी,

‘‘अरे जब देख ली कि कोई और पहुंँच गयी है, तुझे चुपचाप चली आना था न ......... ! बेवकूफ कहीं की !’’

शरीर खोखला हो गया था उसका, माँस तो कभी चढ़ा ही नहीं, सूखता ही चला गया था। अलबत्ता चन्द्र प्रकाश हट्टे-कट्टे, एकदम अंग्रेज जैसे ! कुछ पक्का नहीं किसके अंश है, प्रेम जैसे तो एक भी नहीं हैं। नाम तो उसी का चलेगा न ..... ?

चन्द्र थोड़ा ठीक था पढ़ाई में, प्रकाश बोदा। हर साल एक बार वर्दी पहन कर जाता था प्रेम, मास्टर को सलाम करने।

प्रकाश आठवीं के आगे नहीं जा सका, चन्द्र की बहू आई चाँदनी उसे देख-देखकर वह इतराया करती, ’’है किसी की बहू इतनी खूबसूरत ? इतनी शालीन ? धूप में खड़ी करा दो, उफ्फ तक न करेगी।’’ चन्द्र घूम रहा था पढ़कर नौकरी नहीं मिल रही थी।

‘‘तुम्हें मेरे रहते रत्ती भर चिन्ता की जरूरत नहीं है बहू, चाहे जैसे हो तुम्हारा खर्च पूरा करूँगी।’’ उसने छाती ठोक कर कहा था।

गाँव से सास आ गई थी, खोली का आधा भाग उसी के नाम,

‘‘माँ का सिर दबा दो, तेल लगा दो, दवाई पिला दो !’’ बस छुट्टी लेकर पड़ा था घर में, दिन भर गू....मूत...., बकरी की नाक जैसी खोली में, लगता था, बुढ़िया के पहले बाकी लोग ही मर खप जायेंगे।

‘‘मुझसे नहीं होगा, न ही मेरी बहू से होगा, चार दिन की आई लड़की से यही सब करवाऊँगी क्या ? मेरा करम तो भुंज ही गया, इसे भी उसी आग में नहीं धकेल सकती।’’ चिढ़ कर कह दिया था उसने, करे क्या ? खुद का नाटा शरीर भारी हो चुका था, जरा सा आराम के लिए ठौर नहीं। किसी प्रकार दो कौर खा लो तो पचना मुश्किल, छोटी सी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा तो दवाई में घुसा जा रहा था।

छः महिना खाट पर पड़ी भोगी थी, जब तक जाँगर रहा गाँव में अकेली रही, जब पसर गई तब बेटे की याद आई। इसी खोली में उद्धार हुआ उसका भी। ऐसा आशीर्वाद देकर गई कि खुद कमाने वाला ही पड़ गया। पूरी देह फूल गयी, यादाश्त कमजोर हो गई ।

‘‘बस पड़े-पड़े खा रहा है, इसके साथ जिन्दगी नर्क से भी बदतर बीत रही है।’’ वह मन ही मन बड़बड़ाती, वह सारी गालियाँ सुनता, चादर ओढ़े चुपचाप पड़ा पड़ा ।

‘‘ये क्या चन्द्र की माँ, कुछ सेवा सहाय करो उनकी, बेचारे जिन्दगी भर कमाये, अभी तो नौकरी बाकी है, अच्छे हो जायेंगे तो फिर कमायेंगे।’’ समझाने वालों की कमी थोड़ी है दुनिया में ?

‘‘आखिर इन्होंने किया क्या पूरी जिन्दगी गाँजा पीने के सिवाय ? किस लिए इनकी सेवा की जाय ?’’ उसने उसे सुना कर साफ कह दिया था ।

‘‘बेटा घूम रहा है बेरोजगार, अरे और कुछ नहीं कर सके तो नौकरी ही मिल जाने देते ।’’ दिल की बात उसकी जबान पर आ गई थी ।

एक बार कातर आँखों से उसे निहारा था उसने, न जाने कितनी बातें कितने प्रश्न, कितनी लाचारी थी उनमें ? उस दिन से अन्न जल छोड़ दिया था उसने, अस्पताल न जाने की जिद्द कर ली ।

उसे बहू को देखते रहना अच्छा लगता, बेटे के ऊपर दया आती, सपने आते, वह बाप की वर्दी में सजा है। प्रकाश लगा रहता बाप के आस-पास, चन्द्र अपनी ही कुण्ठा में अन्दर ही अन्दर जलता रहता ।

‘‘माँ दीया क्यों नहीं जलाई खोली में ?’’ प्रकाश था, अभी अभी, बाजार करके भाभी को सामान देकर लौटा था ।

‘‘माचिस नहीं मिली बेटा ! देखो तो कहीं है ?’’ वह मरी आवाज में बोल पाई ।

‘‘चिन्ता क्यों कर रही है माँ ? हम तो सदा इसी खोली में रहे है। इसका अपना महत्व है। पिता जी की यादें जुड़ी हैं इस खोली से।’’ प्रकाश उसके मन के हाहाकार का अंदाजा लगा रहा था ।

’’हाँ, सारी दुनियाँ में सन्नाटा और मन में भाटे जैसी खलबली।’’

‘‘जब तक रहे कभी आधी जबान नहीं कहा, जैसे खुश रहो वैसे मंजूर, अब तो सबका सुनना पड़ेगा।’’

चन्द्र बड़ा था, उसे ही दिलवाया था उसने अनुकंपा नियुक्ति, जिस दिन वह पुलिस की वर्दी लेकर आया था, उसके कलेजे में ठंडक पहुँची थी, हुलसकर उसने चन्द्र का माथा चूमा था। आज जैसे उसका पति लौट आया था, एक नवयुवक सिपाही बनकर, बीमार, जर्जर काया से पिण्ड छुड़ाकर।

बीस लाख की मोटी रकम कभी देखना तो कौन कहे सोचा भी नहीं था, कि इतनी होगी।

‘‘अब खुश हैं सब लोग, नौकरी मिल गई रूपया मिल गया, राज करें । जानेवाला तो तरसता चला गया।’’ इसी तरह की चर्चा थी पूरी लाइन में।

माँ ! रूपया रखे-रखे उसका मूल्य घटता जाता है, कहो तो घर खरीद लेते हैं तुम्हारे लिए।’’ चन्द्र ने गोद में सिर रखा था उसके। उसकी अंगुलियाँ धीरे-धीरे उसके बालों में फिर रहीं थीं। चाँदनी उसके पैरों को गोद में रखे हुए धीरे धीरे दबा रही थी।

‘‘हाँ अम्मा जी, कब तक इस छोटी सी खोली में सड़ेंगे, न कोई सामान खरीद सकें न घर सजा सकें, हमारे लिए सिर छिपाने का जुगाड़ कर दीजिए आप।’’ विनयी स्वर था चाँदनी का।

‘‘हे भगवान् ! इतना भी सुख लिखा था उसके भाग्य में ? बहू बेटे तो साक्षात् राम-सीता हैं। घर लेना तो उसका भी सपना रहा है।’’

‘‘बेटा ! जो उचित समझो करो, लेकिन एक बात कहूँगी, प्रकाश को साथ लेकर चलना, मैंने बड़े विश्वास से तुम्हें पापा की नौकरी दिलवाई है। उसने धीरे से कहा था।’’

‘‘तुम्हें विश्वास नहीं तो मत दो पैसा, रखे रहो! जाना तो लादकर ले जाना, जैसे एक जने ले गये! वह ऐसे उछला जैसे बिच्छू ने डंक मारा हो। वह सहम गई, सुख का स्वर्ण घट दरक गया।

‘‘मैंने मना तो नहीं किया न.......... ?’’

‘हलफनामा ले लो, तुम्हारे बेटे का झोझर भरूँगा, मैं खाऊँ या न खाऊँ।’’ वह लाल पीला हुआ जा रहा था।

‘‘ठीक है घर पसंद कर लो।’’ उसने कह दिया था।

घर तय हुआ पच्चीस लाख में, 5 लाख लोन लेना पड़ा।

‘‘चाँदनी के नाम से लेता हूँ माँ, तुम कहाँ दौड़-दौड़ कर कोर्ट कचहरी जाओगी ? तुम्हारी उमर तो घर बैठकर आराम करने की है। बस चेक पर दस्तखत कर दो!’’

उसे लगा कुछ गलत हो रहा है, उसने कहा भी था - ‘‘मैं चली जाऊँगी बेटा ! घर मेरे ही नाम से खरीदो ?’’

‘‘घर तुम्हारे नाम से खरीदने में कोई तकलीफ नहीं है। बैंक से लोन लेने में दौड़ते-दौड़ते नानी मर जायेगी, समझो जरा!’’ उसने नर्मी से कहा, चुप रहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था उसके पास।

‘‘बेटा कुछ कम का नहीं देख लेते, हाथ एकदम खाली करना ठीक नहीं, फिर लोन कैसे पटाओगे यह भी सोचा है ?’’

‘‘जैसा मैंने सोचा है, उसमें सब कुछ बड़ी आसानी हो जायेगा। मेरे वेतन से लोन पट जायेगा।’’

‘‘और घर का खर्च ?’’

‘‘पेंशन से चलायेंगे। थोड़ा हाथ दबा के ही खर्च कर लेंगे। बस फिर जैसे ही लोन पटा, समझो सारे झंझट दूर।’’ वह ऐसे चहका जैसे अभी अभी लोन पटा कर आया हो।

घर देखकर सारे दुःख भूल गई थी वह। दो बेड़रूम, बड़ा हाॅल, बैठक, रसोई, प्रसाधन आँगन सब कुछ।’’ उसे लगा अंक में भरकर घर को दिल से लगा ले। ‘‘जो जीते जी न दे सके, वह मर कर दे गये।’’ उसकी आँखों में नमी तैरने लगी थी।

एक जाई सबको न्यौता दिया था उसने गृहप्रवेश का, सभी आये, सारी बातें भूलकर घर और खाने की प्रशंसा करते वापस गये।

खोली का सारा सामान खाली कर दिया गया। एक तखत, दरी, तकिया और दो कथरियाँ, जिन्हें उसकी सास ने सिल कर दिया था, इतना ही रह गया था।

वह दिन भर में दो बार घर को धोती पोंछती, सड़क के किनारे से पानी भरते जिन्दगी बीत गई अब जाके घर मिला, जिसमें दसियों जगह नल लगे हुए हैं। जब चाहो पानी निकाल लो। चलो रूपया गया तो गया घर तो हो गया।

चन्द्र ड्यूटी जाता, प्रकाश सुबह से घर बाहर का सारा काम संभालता, वर्दी प्रेस करना, जूते चमकाना, बाजार-हाट सारी जिम्मेदारी उसी की, ’’चलो ठीक है जवान लड़का है नहीं है नौकरी तो क्या हुआ? घर को सम्भालने वाला भी तो कोई हो!’’

‘‘अम्माँ जी ! खोली छोड़ना ठीक नहीं है, घर तो लोन पर है, लोन न पटा तो बैंक वाले घर नीलाम कर देंगे। तब हम कहाँ रहेंगे? अच्छा हो आप वहीं चलकर रहें, पिताजी की खोली यदि खाली रही तो कोई न कोई कब्जा कर लेगा। यदि आप रहेंगी तो बाद में चन्द्र के नाम से हो जायेगी।’’ बड़े रहस्य भरे स्वर में समझाया था बहू ने।

‘‘ये क्या कह रही हो बहू ? मैं वहाँ अकेली कैसे रहूँगी ?’’ उसका गला भर आया था।

‘‘अकेली कैसे ? अभी जो इतने मरभुक्खे खा के गये हैं वे क्या आपका साथ नहीं देंगे ?’’ उसने बड़े रूखे अन्दाज में कहा था।

‘‘मैं तो वहीं रहूँगा माँ ! प्रकश भी तुम्हारे साथ रहेगा, तुम्हे अकेलापन कैसे महसूस होगा ?’’ चन्द्र सहमत था इस व्यवस्था से।

‘‘तो मैं वहाँ अलग बनाऊँ-खाऊँगी ?’’

‘‘नहीं अम्माँ जी ! प्रकाश खुद खाकर आपका खाना पहुँचायेगा दोनों वक्त, आपको चिन्ता करने की जरूरत नही है।’’

‘‘मोटर साइकिल पर बैठाकर चन्द्र अपने साथ ही उसे खोली तक लेता आया था।

दिन में प्रकाश दाल भात ले आया था। सारा दिन अकेले क्या करे वह ?

‘‘मैंनें अंतिम पाप कर लिया, प्रकाश का हक मार कर, जब आज यह हाल है तो आगे क्या होगा ? उसके मन से प्रश्न उठ रहा था।

‘‘माँ मैं खाना लेकर जल्दी आ जाता हूँ, फिर बैठूंगा’’ वह साइकिल लेकर चला गया।उसे लगा वह कोई पेड़ है, जिसकी सारी शाखाएँ कट चुकी हैं, अब उसे ठूंठ कहा जायेगा।


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