Prabodh Govil

Inspirational

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Prabodh Govil

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बोझ

बोझ

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इस संयोग पर मुझे आज भी अचंभा होता है कि मैं जीवन में चार "अनुज" नाम के लड़कों से मिला और वो चारों ही कभी न कभी पत्रकारिता से जुड़े लोग थे।

हां, इस बात पर कोई अचरज नहीं होता कि ये चारों ही स्मार्ट, सुदर्शन और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। इसका कारण यह है कि मैं इनसे इनकी युवावस्था में मिला और मैं ये मानता हूं कि लड़का हो या लड़की, युवावस्था में खूबसूरत होते ही हैं। और लड़कियां तो जीवनपर्यंत।

इनमें से जिस अनुज की बात मैं कर रहा हूं उससे मैं मुंबई में मिला था। बातचीत तो शायद एक- दो बार ही हुई हो, अलबत्ता कुछ समय तक पत्रकारिता के उस संस्थान में वो दिखाई ज़रूर देता रहा था जहां मेरा भी आना - जाना लगा रहता था। वह उन्नीस- बीस वर्षीय युवक था और शायद तब तक प्रशिक्षु पत्रकार ही था।

उससे मिलने और मुंबई छूट जाने के इकत्तीस वर्ष बाद एक दिन अचानक वो मुझे याद आया। और मेरा मन कहने लगा कि कभी उससे बात हो तो उसे बताऊं कि मैंने उसका जिक्र अपनी आत्मकथा में भी किया है, मुंबई के कुछ मित्रों से मिलने पर मैंने उसके बाबत एक दो बार पूछताछ भी की और फिर एक दिन फेसबुक पर उसका पता लग गया। उससे थोड़ी सी चैट हुई और मैंने उसे अपने बारे में बताया। उसने नाम से मुझे पहचान कर खुशी जाहिर की और इस बात पर भी उसे प्रसन्नता हुई कि मैंने अपनी किताब में भी उसे याद किया है। हम जुड़ गए। उसने ये आशा भी जताई कि जब भी मेरा या उसका किसी भी स्थान पर आना जाना हुआ तो हम मिलेंगे।

लेकिन फिर एक दिन बैठे ही बैठे मुझे लगा कि वो मन में सोचता तो ज़रूर होगा कि इतने लंबे समय तक आखिर मैंने उसे क्यों याद रखा? जबकि हमारे बीच कभी सामान्य परिचय से ज़्यादा कोई बात नहीं हुई।

और तब मैंने ये तय किया कि मैं उसे और आपको भी ये ज़रूर बताऊं कि मैंने उसे क्यों याद रखा।

एक दिन मैं एक पत्रकारिता संस्थान में हो रही भाषण प्रतियोगिता के मंच पर निर्णायक के रूप में मंच पर था। एक छात्र बोल रहा था। विषय था - "पत्रकार के विशिष्ट गुण"

बोलने वाले विद्यार्थी ने कहा - पत्रकार को स्वभाव से ही जिज्ञासु होना चाहिए।

न जाने क्या हुआ कि मैं मंच पर बैठे हुए अचानक हंस पड़ा। संयोग से बोलने वाले छात्र ने मुझे हंसते हुए देख लिया जबकि मैंने तत्काल मुंह पर हाथ रख कर अपनी बेवजह मुस्कुराहट को छिपाने की भरसक कोशिश की थी।

वही छात्र बाद में प्रतियोगिता का विजेता बना। लेकिन मैंने गौर किया कि उसे बधाई देते हुए भी वो मेरी ओर शंकालु नज़र से देखता रहा, शायद उसे जीत कर भी ये बात परेशान कर रही थी कि मैं उसकी बात पर हंसा क्यों? बात आई गई हो गई।

लेकिन कुछ दिन बाद वो मुझसे मिलने मेरे घर पर आया। इधर उधर की बातों के बाद उसने कुछ गंभीर होकर मुझसे कहा - सर प्लीज़, यदि आप बुरा न मानें तो मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि उस दिन मेरे भाषण के बीच में हंसे क्यों थे, जबकि मैंने तो सिर्फ़ इतना कहा था कि पत्रकार को जिज्ञासु होना चाहिए। क्या ये बात सच नहीं?

ओह! मुझे इस बात पर कुछ ग्लानि सी हुई कि मेरी ज़रा सी असावधानी से इस मेधावी और होनहार छात्र को इतनी चिंता हो गई कि ये उस बात को अब तक मन में रखे हुए है।

मैंने मन ही मन तय किया कि मैं इसका समाधान ज़रूर करूंगा और इसे बताऊंगा कि मैं इसकी किसी बात पर नहीं बल्कि अपनी किसी पुरानी स्मृति पर हंस पड़ा था।

दरअसल हुआ यह था कि जब मैं वर्षों पहले मुंबई में अपने एक मित्र के घर अनुज से मिला था तब वह फ़िल्म पत्रकारिता कर रहा था। शायद सीख ही रहा था।

बातचीत के बीच वह हम लोगों से बोला - "ये लोग बात करते रहते हैं कि उसने इसकी ले ली, उसकी ले ली... ये मज़ाक करते हैं या सच्ची में ले लेते हैं?"

उसकी इस मासूमियत पर हम लोग हंस पड़े।

और उस दिन जब प्रतियोगिता के बीच छात्र ने कहा कि पत्रकार को जिज्ञासु होना चाहिए तो इतने वर्षों के बाद भी मुझे उस ट्रेनी पत्रकार की जिज्ञासा याद आ गई।

सच्चाई जानकर वो विजेता छात्र भी खूब हंसा और मेरा भी बोझ उतर गया।



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