बंधन
बंधन
विवाह के बाद संयुक्त परिवार में सास-ससुर, नन्द-देवर की ज़िम्मेदारी व सेवा-सुश्रुषा में अनुपमा को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी।अब स्वयं के दो बच्चे जिनकी पढ़ाई एवं परवरिश में समय पंख लगा उड़ गया। इन बीस सालों में पति विवेक भी अपने काम-काज की अति व्यस्तता तथा बहन-भी की पढ़ाई लिखाई व शादी-ब्याह के साथ स्वयं के बच्चों की ज़िम्मेदारी में ऐसा उलझा कि पत्नी अनुपमा को समय ही न दे पाया। जिसे अनुपमा पति की अनदेखी समझती रही। कभी उसने पति से या अन्य किसी से इस बात की शिकायत नहीं की, किन्तु एक टीस मन में सदा ही रही कि विवेक को उसकी रत्ती भर भी फिक्र नहीं, कभी पूछता भी नहीं कि अनुपमा तुम्हें कुछ चाहिए या तुम थक गई हो या तुम्हारी तबियत कैसी है...आदि, जैसा वो घर में प्रत्येक सदस्य के साथ करता है।इसे अनुपमा ने नियति समझ स्वीकार कर लिया था।
अचानक एक कम्पनी में जगह खाली देख उसने पति की सहमति से आवेदन भर दिया। इंटरव्यू हुआ और उसे नौकरी मिल गई।किन्तु ट्रेनिंग के लिए उसे बैंगलोर जाना पड़ा। विवेक ने वुमन्स होस्टल में उसके रहने खाने की व्यवस्था कर दी जो ट्रेनिंग सेंटर से कुछ ही दूरी पर था। और वो वापस घर लौट आया। अब विवेक सुबह, दोपहर, शाम, रात को बिना नागा किये अनुपमा को फोन और मैसेज कर उससे कुशल-मंगल पूछता। यहाँ तक कि उसने चाय पी, नाश्ता किया, दोपहर का भोजन, शाम की चाय और रात का खाना खाया या नहीं, ट्रेनिंग पर समय से पहुँची या नहीं और ट्रेनिंग से वापस होस्टल सकुशल पहुँची या नहीं। जबतक ट्रेनिंग का एक महीना बीता, वह प्रायः रोज़ ही उसकी ख़बर लेता रहा। और अनुपमा इतने सालों के विवेक के बर्ताव पर विचार करती रही... यह कैसा बंधन है दो दिलों का ?
