बिना बाप की
बिना बाप की
"बहु ये सिंधारा भेजा है तेरी मम्मी ने ? बताओ पहला सिंधारा, अब इसे किसे दिखाए ? क्या बांटे ?"
"मम्मी जी अबकी बार मम्मी के कमरो का किराया आने में लेट हो गया. इसलिए थोड़ा हाथ टाइट था।"
"अरे तो इन सब तीज त्योहारो की तैयारी क्या साथ के साथ होती है।थोड़ा बहुत पहले से करके रखना चाहिए ना"
"सुनते हो।सिंधारा देख लो।"
"सुन लिया सब।देखना क्या है, रख दो सब सामान उठाकर"
"लेकिन अड़ोसी पड़ोसी दस दिन से बोल रहे है शिवानी का पहला सिंधारा आएगा बहन जी ।समधन के यहाँ की मिठाई जरूर खिलाना।"
"अरे तो यही से मंगवा लो।वहाँ की बताकर बाँट देना।अब बिना बाप की बेटी है क्या कर सकते है ?"
"मैंने तो रिश्ता ही इस भावुकता में आकर लिया था कि चलो बाप नहीं है, पता नहींं कौन कब रिश्ते को हाँ कहेगा सो मैं ही हाँ कर देता हूं।"
ये बात शिवानी को हमेशा तीर की तरह चुभ जाती है।मानो पिता ना होने के कारण वो दया की पात्र हो गयी।
माँ ने किसी भी चीज़ में कोई कमी तो छोड़ी नहीं।ना पढ़ाने लिखाने में ना शादी में।।
फिर भी गाहे बगाहे ये बात उठ ही जाती की बिन बाप की है ना।
दो महीने बाद घर मे ननद की शादी थी।खूब चहल पहल थी।सब रिश्तेदार जुड़े थे।
किसी ने पूछा"अरे रघुवर बहु के घर से कोई नहीं दिख रहा ?
"कौन दिखेगा बुआ जी।भाई छोटे है पर इतने छोटे भी नहीं की रिश्तेदारी में आ जा ना सके।बेचारी का बाप है नहींं। माँ को कहाँ इन सब सामाजिक बातो का ज्ञान होगा कि बेटी के ससुराल में शादी है तो क्या करना है क्या नहीं"
"जब तो मैंने हाँ कर दी कि चलो बाप नहीं है।अब सोचता हूं कि समधी जी होते तो तीज त्योहार शादी ब्याह के रीति रिवाज थोड़े अच्छे से निभ जाते। पर चलो जहाँ जोड़ी का संजोग होता है वही रिश्ता होता है।"
आज इतने लोगो के सामने फिर वही जख्म।शिवानी छलनी हो गईं थी।
तभी देखा दरवाजे पर छोटे भाई को लिए माँ खड़ी है।रघुवर और उनकी पत्नी ने भी देखा।जहाँ वो दोनों सकपका गए वहीं शिवानी की आँखों से दर्द, खुशी के मिले जुले आंसुओ की धार बह निकली।।
उर्मिला जी यानी शिवानी की मम्मी सधे हुए और आत्मविश्वास भरे कदमो से आगे बढ़ी।दोनो का अभिवादन किया ।।
जैसे ही शिवानी को गले लगाया वो फूट फूट कर रो पड़ी।अपने ह्रदय पर पत्थर रख उसे चुप कराया फिर रघुवर जी की तरफ देखते हुए उनकी पत्नी से कहा "बहन जी बाहर गाड़ी में शगुन का सामान है जितना हम दोनों ला सके ले आएं बाकी आप कृपया उतरवा लीजिये"
वो बोली"अरे इतना सब करने की क्या जरूरत थी बहन जी।ये तो बस ये चाहते थे की बहू की तरफ से भी कोई सम्मिलित हो ब्याह में।"
उर्मिला जी भावनायों पर काबू करती हुई बोली"बहन जी बेटी को तो मन से जितना भी दो कम ही लगता है।"
दरअसल परसो शिवानी के पापा मेरे सपने में आए और बोले उर्मिला मेरे ना होने पर तूने सिंधारा देने में गड़बड़ कर दी।मेरे समधी को मेरी कमी महसूस होती है बहुत।अबकी कुछ गलती मत करना।
रघुवर जी बहुत ही असहज होकर इधर उधर देखने लगे वो वहाँ से हटने की सोच ही रहे थे कि उर्मिला जी बोली"भाईसाहब आपको हर बात में महसूस होता है कि शिवानी के पापा होते तो ये ऐसे होता ये वैसे होता।आप तो समधी है।सोचिये उनकी बेटी को कितनी कमी महसूस होती होगी।।
"वो भी यही सोचती होगी कि पापा होते तो ये कहती, ये करती"
"मुझे उम्मीद थी कि आप पिता की कमी पूरी करेंगे पर आप तो स्वयं उसे यही कमी महसूस कराते रहते है।"
"शिवानी के पापा नहीं होकर भी उसके साथ है, मेरे साथ है।आपको कभी कोई शिकायत नहीं मिलेगी।"
फिर बेटी की तरफ घूम कर बोली"बेटा कोई भी बात हो मुझे बोलना।तेरे पापा से discuss करके ही कुछ
करूँगी।जानती हैं ना मेरी रूह में बसते है वो।उनका सशरीर सामने होना जरूरी नहीं"
शिवानी फिर से माँ के गले लगी पर इस बार खुश होकर, आत्मविश्वास के साथ।
तभी शिवानी की नन्द वहाँ आई और रघुवर जी से बोली" पापा सुनो ना।शादी के खाने में मटर मशरूम भी रखवाना। मुझे बहुत पसंद है.चाहे खा ना पाउ पर फिर भी।करोगे ना ?"
"हाँ बेटा बिल्कुल।"
"Yeepi मेरे प्यारे पापा" कहकर वो चली गयी।
तभी रघुवर जी के दिमाग मे कौंधा अगर मैं ना होता तो क्या तब भी बेटी के चेहरे पर यही खुशी होती। शायद नहींं।
शिवानी की माँ वहाँ आए मेहमानों से मिल रही थी।शिवानी बहुत उत्साहित होकर सबसे उनका परिचय करा रही थी।
और रघुवर जी देख रहे थे कभी वहाँ रखे सामान को।कभी शिवानी को और कभी अपनी बेटी को।