बिदाई । पर्यावरण लघु कथा
बिदाई । पर्यावरण लघु कथा
जब भी किसी के यहां मैं बड़ा बगीचा देखती हूं तो मन में कसक सी होती है। अपने घर का बगीचा याद आता है। आज फिर वहां की यादें एक बार फिर वहां ले गई।
जब मैं पहली बार विदा होकर ससुराल आई थी। शुरू में तो मुझे घर से कोई लगाव नहीं था। पुरानी कोठी थी बंटवारे के कारण कोठी के पुराने नक्शे में काफी बदलाव आ गया। गांव में होने के कारण वहां के कुछ नियम कायदे भी थे। बाहर आना जाना कम पर घर के अंदर कोई रोक-टोक नहीं थी। मैं गांव की निर्सग के समीप रहने वाली ,हवा सी अल्लहड़ बहने वाली बालिका ही तो थी । बस एक संस्कारी बहूू के समान अपना फर्ज निभा रही थी। लेकिन वहां का विशाल बगीचा पहले ही दिन से मन को भा गया ।कहने को तो बगीचे के लिए माली आता था पर मुझे भी भरपूर समय होने के कारण उसकी देखभाल करना अच्छा लगता था। धीरे-धीरे यह शौक कब आदत में परिवर्तित हो गया पता ही नहीं चला। उस बगीचे में हर तरह के पेड़ चंपा ,अशोक ,नीम ,आंवला ,आम ,जामुन ,अमरूद साथ ही फूलों में भी गुलाब ,जूही गेंदा इत्यादि थे। पूरे साल फूलों फलों से बगीचा हरा भरा रहता था। सुख दुख में अपने मन की बात साँझी करना ,उनकी भी सुनना वक्त कहां बीतता पता ही नहीं चलता था
।हालात ने कोठी बेचने की मजबूरी पैदा कर दी। सौदा भी हो गया छ्ह महीने बाद उसे खाली भी करनी थी। पर अभी भी मैं उस बगीचे की देखभाल कर रही थी। मुझे उन पेड़ पौधों को छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था। मैं अपने आप को परिवार होते हुये भी असहाय, अकेला महसूस कर रही थी। कभी सोचा भी नहीं था कि जिन पेड़ पौधों के बीच तीस साल निकाले हैं उनको भी छोड़ कर जाना पड़ेगा। आए दिन बुखार आने लगा घर वाले भी परेशान थे आखिर हुआ क्या ? उधर बगीचे में जाने की भी मनाही होगई। पर छुपते छुपाते मैं बगीचे में जाकर बैठ ही जाती थी।
इसी बीच के समय में मैंने एक आश्चर्यजनक बात देखी। बगीचे के फूलों के पौधों में एक भी कली नहीं आई ,न हीं बड़े पेड़ों में फल लगा ,साथ ही पेड़ों के तनों से पानी शुरू हो गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था क्या पेड़ भी मेरी ही तरह चुपचाप रो रहे थे ? और अपने घर से मेरी विदाई कर रहे थे।