भुगतान
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चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी।
आंगन का पेड़ भी झूम रहा था।
सुबह का सूरज अपनी ठंडी किरणें बिखेर कर
सब तरफ उजियारा कर रहा था,
पर दादा की झोपड़ी के दरवाजे क्यों सूने पड़े थे,
झांक कर देखा तो , दादी सुबकियाँ लेकर सिसक रही थी,
शायद अब ज़ोर से रोने की हिम्मत ही नहीं बची थी।
खाट पर दादा ,बेसुध से पड़े बस सांसों की माला जप रहे थे।
आंसू की धारा आँख के कोनों से गुजरती हुई मैली सी चादर को भिगो रही थी,
मुझे देख दादी ने यकायक आँसू पोंछे और बोली,
" आओ बेटा, बैठो,"
देखो ना कैसे दिन-रात श्याम की गाँव आने की आस में रोते रहते हैं,आँखे किवाड़ पर ही टकटकी लगाये टिकी रहती है,
वैद्य भी हार कर बोल गया है कि इस मर्ज़ का इलाज़ नहीं है उसके पास, मुझसे तो देखा नहीं जाता इनकी हालत को।"
बरबस ही फूट पड़ी दादी।
"श्याम को बुला लो ना दादी",मैंने सुझाव दिया।
सूनी आँखों से देखते हुए दादी बोली, " श्याम तो कभी का भूल गया इन पगडंडियों को, उसकी तो अब चिट्ठी पत्री भी नहीं आती।पास वाले नंदू के पास कभी फोन आता भी है तो हमारे वहाँ पहुंचने तक कट भी जाता है। उसे क्या पता कि आँगन के पेड़ , ये खेत, ये पगडंडियाँ ,सब उसे कितना याद करती है।"
"जिस बाबा ने उसके अव्वल आने पर गाँव भर में लड्डू बँटवा दिये थ, आज उसकी याद में रोटी भी छोड़कर बैठे हैं।
पास के नंदू ने सच ही कहा था, शहर अपनों से रिश्ता तोड़ देता है। अब तो शायद हमारी आखिरी टीसें उस तक पहुंचने को मनाही कर रही है।"
मैं उठ खड़ा हुआ। एक क्षण को भी उन बेबस और बेसहाय बुजुर्गों का दर्द बरदाश्त नहीं हुआ।
बस मन एक ही प्रश्न से घिर गया,"क्या भविष्य के स्वप्न, स्वप्न दिखाने और पू्र्ण करने वालों से उच्चतर हो जाते है !"