बुजुर्ग
बुजुर्ग


घर के आगे वाले कमरे में सुरेश के पिताजी का शव पड़ा हुआ था। कल रात को ही वह अपने जीवन के नब्बे वर्ष पूर्ण कर, प्रभु धाम को सिधार गये थे। गमगीन माहौल था किन्तु सब संतुष्ट भी थे। लीना, सुरेश की पत्नी तो चेहरे पर उदासी का मुखौटा लगाये, मन ही मन प्रसन्नता भरी संतुष्टि का अनुभव कर रही थी। पिताजी की सेवा से उसको छुटकारा जो मिला था, साथ ही उनकी टोकाटाकी से भी।
पिताजी की मृत्यु को अभी महीना ही गुज़रा था, घर में सभी को आजादी के पंख लग गये थे। जो लीना सदैव घर को व्यवस्थित रखती थी, आजकल लापरवाह सी हो गई थी। उसने महिला क्लब जॉइन कर लिया और बच्चों की तरफ से तो जैसे ध्यान ही हटा दिया था। घर में आए दिन होटल से खाना आने लगा था। रुचि, सुरेश व लीना की पुत्री जो कभी भी सात बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकलती थी, अब दस-ग्यारह बजे तक घर से बाहर रहती थी। लेट नाइट पार्टीज में जाने लगी थी। राहुल, रुचि का भाई सारा दिन मोबाइल व टी वी के साथ बिताने लगा था। और जो सुरेश अपने पिताजी के समक्ष ऊंची आवाज में बात नहीं करता था, आजकल रोज ही शराब पीकर आने लगा और लीना व बच्चों पर चिल्लाने लगा था। सभी आजादी का जश्न कुछ इस तरह से मना रहे थे।
उनके पड़ोस में एक बुढ़िया रहती थी जिसे पिताजी ने अपनी मुँह बोली बहन बना रखा था, उनके घर की हालत देख अपने बेटे से बोली, " देख रहा है बेटा, घर की छत ही टूट जाये तो क्या होता है। बुजुर्गों के बिना घर चल सकता है पर तब तक जब तक उनके दिये संस्कारों को जिन्दा रखा जाये अन्यथा घर मात्र जर्जर दीवारों का खंडहर रह जाता है। बुजुर्ग घर के चौकीदार होते हैं।
किसी भी अनुचित आदत, व्यक्ति अथवा संस्कार को घर में नहीं घुसने नहीं देते।