सबसे बड़ा सत्य
सबसे बड़ा सत्य


यूँ ही खामोश बैठे अक्सर ख़्याल आता है कि रहस्यों से भरे जगत में सब रहस्य हो कर भी सब उघाड़ है; सब स्पष्ट दिखकर भी अस्पष्ट है। पेड़ से गिरा हर पत्ता आवाज लगाता है कि देखो मैं जा रहा हूँ, घुल रहा हूँ मिट्टी में, अब पेड़ से मेरा कोई नाता नहीं, मैं स्वतंत्र होकर, अपनी यात्रा पूरी कर विलीन हो रहा हूँ, उसी शून्य में जिस शून्य से मैं आया था। मेरे स्थान पर अब नए पत्ते आएंगे और क्रम चलेगा। कितना बड़ा रहस्य खुलता है हम सबके आगे प्रतिदिन,किंतु हम देखकर पास से गुज़र जाते हैं। नहीं करते इस सत्य को आत्मसात। सब स्पष्ट होकर भी हमारे लिए अस्पष्ट है। संसार भ्रम की मुट्ठियों में कैद है। भ्रम उसे उंगलियों में कसा हुआ है। वह हमें वही दिखाता है जो वह हमें दिखाना चाहता है, वही जिसमें हमें कैद मिलती रहे और भ्रम दूर खड़ा रहकर खिलखिला कर हँसता रहे। हम सत्य और स्पष्ट बातों को यूं ही आँखों के आगे से निकाल देते हैं और अटक जाते हैं उन रिश्तों, बातों और व्यवहारों में जो अर्थहीन हैं और जिनसे हमारा नाता बस इस जन्म तक का है। हम वह पत्ता हैं जो टूटने से पहले तो पेड़ से मोह रखता ही है किंतु टूटने के बाद भी पेड़ की ओर तब तक ताकता रहता है जब तक कि वह मिट्टी में न समा जाए। उसे मिट्टी से कभी प्रेम नहीं हो पाता; मृत्यु शब्द है इतना भयानक या हम सब ने मिलकर बना दिया है । जबकि सबसे स्पष्ट और सबसे बड़ा सत्य इस जगत नर्तन का मृत्यु ही है।