भोली भाली सी एक लड़की
भोली भाली सी एक लड़की
रीमा नाम की एक भोली भाली खूबसूरत सी लड़की की ज़िंदगी में संघर्ष के कुछ साल। संपूर्ण कथानक चार भागों में लिखा गया है
रीमा
नवजीवन
समाज सेविका
संघर्ष
रीमा
रीमा का जन्म एक सरकारी हॉस्पिटल में हुआ, जहाँ उसकी माँ को उसके जन्म के वक़्त भर्ती करना पड़ा। जब रीमा की माँ को घर से हॉस्पिटल ले जाया जा रहा था तब कोई यह नहीं जानता था की अब रीमा की माँ कभी घर नहीं आ सकेगी। रीमा के जन्म के वक़्त सब ठीक ठाक था परन्तु कुछ दिन बाद माँ की तबीयत बिगड़ने लगी और फिर हॉस्पिटल से वापिस आया सिर्फ एक शरीर, वह भी सिर्फ चंद घंटों के लिए उसके बाद उस शरीर को भी श्मशान के लिए रवाना कर दिया गया। रीमा ने यह सब सुना है परन्तु देखा नहीं या शायद अपनी नन्ही नन्ही आँखों से देखो हो परन्तु आज उस यात्रा की धुँधली सी याद भी उसके दिमाग के किसी कोने में सुरक्षित नहीं है।
रीमा ने जब से होश सम्हाला तब से अपने पिता को ही देखा। पिता के अलावा यदि और किसी की यादें उसके पास है तो उसके पड़ोस वाली दादी की। वैसे तो रीमा या उसके पिता की उनसे कोई रिश्तेदारी नहीं थी फिर भी रीमा उसे दादी ही कहती थी। जब रीमा की माँ की मृत्यु हुई तब रीमा सिर्फ चंद रोज की थी और उसके पिता नजदीकी मंडी में एक सेठ के यहाँ मजदूरी करते थे। रीमा की देखभाल के साथ मजदूरी करना संभव नहीं था और आर्थिक परिस्थितियों के कारण मजदूरी करना आवश्यक भी था। और उन्हीं आर्थिक परिस्थितियों के कारण ही किसी आया का इंतज़ाम कर पाना भी संभव नहीं था। बहुत सोच विचार के बाद रीमा के पिता ने सोचा की रीमा को उसकी मौसी के पास छोड़ना ही एकमात्र हल है। हलांकि मौसी के अपने खुद के बच्चे भी अभी छोटे थे इसीलिए मौसी के लिए परेशानी तो थी परन्तु इसके अलावा और कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था।
कुछ लोगों का मानना है की यह दुनिया किसी सर्वशक्ति मान ईश्वर द्वारा संचालित है और उसी सर्वशक्तिमान की इच्छा ही सर्वोपरि है उसी की इच्छा से सब कुछ होता है। वहीँ कुछ लोग ऐसा भी मानते है की यह दुनिया अनियमित (रैंडम) घटनाओं से संचालित होती है। अब सच क्या है यह तो पता नहीं परन्तु जब रीमा के पिता को चारों तरफ अंधकार दिखाई दे रहा था तब प्रकाश किरण बन कर पड़ोस वाली दादी सामने आयी। दादी ने रीमा को संभालने की ज़िम्मेदारी स्वयं ही बिना किसी के कहे अपने ऊपर ले ली, और बदले में कुछ माँगा भी नहीं। रीमा इसी पड़ोस वाली दादी की देखभाल और संरक्षण में बड़ी हुई। दिन भर रीमा दादी के पास रहती और उसके पिता मजदूरी करते और रात में रीमा अपने पिता के पास गहरी और सुरक्षित नींद लेती। रीमा की देखभाल से दादी का वक़्त भी आनंददायक गुजरता और रीमा को संस्कार भी हासिल होते। जिस वक़्त दादी की मृत्यु हुई उस वक़्त दादी के परिवार वालों के साथ साथ रीमा भी बहुत ज़ोर ज़ोर से रोई। उस दिन रीमा का रुदन सुनकर आसमान भी रो दिया। जब दादी की मृत्यु हुई रीमा 10 वर्ष की थी और स्कूल जाती थी। 10 वर्ष की आयु में ही रीमा बहुत समझदार हो गयी थी शायद दादी की मेहनत और परवरिश का नतीजा था जो रीमा अपनी स्कूल की परीक्षा में हमेशा प्रथम आयी और घर पर भी बहुत संयम से रहती थी।
दादी की मृत्यु के बाद पिता ने नई व्यवस्था की अब उसने सेठ जी की मदद से अपने काम की जगह पर ही रहने का इंतज़ाम भी कर लिया। सुबह रीमा स्कूल जाती और स्कूल के बाद मंडी में ही बने हुए कमरे में आ जाती जहाँ पर दोनों पिता एवं पुत्री खाना बनाने के साथ सोने का काम भी लिया करते। ज़िंदगी बहुत अच्छे से चल रही थी किसी को कोई शिकायत नहीं थी।
कहते है की जीवन सिर्फ सूख का नाम नहीं है इसमें दुःख भी शामिल है। अब यह नियम उस सर्वशक्तिमान का बनाया हुआ है या फिर रैंडम घटनाओं का परिणाम है यह नहीं मालूम परन्तु जीवन ऐसे ही चलता है। दादी की मृत्यु के बाद के 6 साल रीमा के लिए सुखदायक थे उसके बाद उसपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। एक दिन रात में रीमा और उसके पिता खाना खाने के बाद सोये परन्तु सुबह कमरे में सिर्फ रीमा थी, उसके पिता जा चुके थे हमेशा के लिए पीछे बचा था सिर्फ एक शरीर। सेठ जी सहायता से अंतिम संस्कार भी हो गया। परन्तु 16 वर्ष की रीमा उसका क्या ?
अब रीमा अकेली थी और उसके सामने अपने आप को नए सिरे से स्थापित करने का सवाल पैदा हो गया था। सेठ जी धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे उनका नज़रिया पूरी तरह धार्मिक था और रीमा की सहायता करना पुण्य का काम था इसीलिए उन्होंने रीमा को कमरे में रहने की इजाजत दे दी इसके अलावा उसने रीमा की दूसरी जरूरत के लिए भी कुछ न कुछ इंतज़ाम कर दिया। सुबह रीमा स्कूल चली जाती जहाँ पर उसे बिना फीस दिए पढ़ाया जाता और जरूरत पड़ने पर कॉपी , किताब ड्रेस आदि का इंतज़ाम भी हो जाता दोपहर में वापिस आकर सेठ जी के लिए उनके हिसाब किताब का कुछ काम करती जिससे उसे कुछ पैसे भी मिल जाते और शाम की चाय भी वही मिल जाती और चाय के साथ में बिस्कुट, महंगे वाले बिस्कुट, यह वही बिस्कुट थे जो सेठ जी भी लेते थे और रीमा को बहुत पसंद थे। शाम तक रीमा सेठ जी के ऑफिस में कुछ ना कुछ काम करती और शाम को अपने कमरे में खाना खाने के बाद सो जाती।
रीमा का पूरा दिन भागदौड़ में गुजरता परन्तु हर रात उसके लिए समस्या लेकर आती। दिन भर मंडी में बहुत चहल पहल रहती और रात होते ही सभी ऑफिस बंद हो जाते और चारों तरफ श्मशान जैसा सन्नाटा छा जाता। जब रीमा के पिता ज़िन्दा थे तब भी मंडी में रात में सन्नाटा रहता था परन्तु तब सन्नाटा उसके लिए डर का कारण नहीं था परन्तु अब वह अकेली थी और चारों तरफ का सन्नाटा उसे भयभीत करता। सनाटे को भेदती हुई हलकी सी आवाज़ भी उसे चौंका जाती। मंडी में रात के वक़्त एक चौकीदार रहता था और सेठ जी ने उसे रीमा की सुरक्षा के लिए बोल रखा था परन्तु वह तो मंडी का चौकीदार था एक जगह कैसे बैठ सकता था। उसे तो मंडी में घूमते रहना पड़ता था मंडी का एक चक्कर लगाने में उसे तकरीबन 30 मिनट लगते थे और हर 30 मिनट बाद चौकीदार रीमा के कमरे पर नज़र मार लेता था। सेठ जी ने रीमा के कमरे के पास ही चौकीदार के बैठने का और सर्दी के दिनों में आग जलने का इंतज़ाम भी कर दिया था इसीलिए चौकीदार भी रीमा का पूरा ध्यान रखता परन्तु वह अपनी नौकरी के कर्तव्यों से भी बंधा हुआ था।
उस कमरे में अकेले रहते हुए रीमा को तकरीबन 6 महीने हो चुके थे हलांकि उसे कुछ विशेष परेशानी नहीं थी सेठ जी की मेहरबानी से सब कुछ अच्छे से चल रहा था। फिर भी अक्सर रीमा को एक संरक्षक की आवश्यकता महसूस होती थी और ऐसे में उसे अपनी मौसी ही एकमात्र संरक्षक दिखाई देती।
काफी सोच विचार के बाद रीमा ने अपने मन की बात सेठ जी से साँझा की, सेठ जी रीमा की समस्या को समझ रहे थे परन्तु उनकी नज़र में रीमा अभी छोटी थी इसीलिए उसका अकेले सफर करना सेठ जी नहीं जमा। इसीलिए उन्होंने रीमा को सलाह दी की वह अपनी मौसी को एक पत्र लिख दे जिससे को वह आकर रीमा को ले जाये और तब तक रीमा सेठानी के साथ रह सकती है।
रीमा को मौसी का पूरा एड्रेस नहीं पता था फिर भी उसने अनुमान के आधार पर पत्र लिख दिया। पत्र का कोई जवाब नहीं आया, और इंतज़ार के यह दिन रीमा ने सेठ के घर पर बिताये जहाँ सेठानी की निगरानी में घर के कुछ काम किया करती। पत्र का इंतज़ार करते करते एक दिन रीमा बेचैन हो उठी और उसने दोबारा सेठ जी से मौसी के पास जाने की इजाजत मांगी। कुछ देर सोचने के बाद सेठ जी ने अपने मुंशी को तीन दिन की छुट्टी और रेल का किराया देकर रीमा को उसकी मौसी के पास छोड़ आने के लिए भेज दिया।
रीमा ने अभी तक की ज़िंदगी में रेल में यात्रा नहीं की थी रेल मैं बैठ कर उसे बहुत उत्साह महसूस हो रहा था वह रेल के डिब्बे की खिड़की से बहार देखते हुए हर चीज़ जो पीछे छूटी जा रही थी उसे अचरज से देख रही थी। छोटे स्टेशन पर बिकने वाले रद्दी समोसे भी उसे लाजवाब लग रहे थे। परन्तु मुंशी उसके दिमाग में तो ख़ुराफ़ात चल रही थी।
मुंशी को सेठ ने तीन दिन की छूटी दी थी रीमा को पहुंचा देने के लिए परन्तु मुंशी इन तीन दिन को अपने लिए इस्तेमाल कर लेना चाहता था। उसने रीमा को स्टेशन का पूरा नक्शा समझाया और स्टेशन से मौसी के घर जाने का तरीका समझाया और रीमा के हाथ में उसका टिकट और कुछ पैसे देकर अपने गाँव के स्टेशन पर ही उतर गया।
अब रीमा अकेले रेल में यात्रा कर रही थी। परन्तु इससे क्या रीमा पिछले कई महीनों से अकेले ही रह रही थी। उसे अकेलेपन ने परेशान नहीं किया उसे मालूम था की वह मौसी के पास सुरक्षित पहुँच जाएगी। छुक छुक करती रेल आखिर मौसी के स्टेशन पर आकर शांत हो गयी और रीमा उसने भी स्टेशन से बाहर आकर मौसी के मोहल्ले के लिए रिक्शा पकड़ लिया।
रिक्शा ने रीमा को उस मोहल्ले में पहुंचा दिया जिसमें उसकी मौसी रहती थी इसके आगे तो उसे पूछताछ करके ही मौसी के घर पहुँचना था। और यही पर ही रीमा उलझ गयी उसने जिससे भी पूछा उसने अनभिज्ञता प्रकट कर दी। आखिर में एक किराने वाले से मालूम हुआ की रीमा की मौसी तकरीबन एक साल पहले मोहल्ला छोड़ कर चली गयी और अब कहाँ है इसका पता नहीं। यहां तक रीमा अकेले आ गयी थी परन्तु अब कहां जाये कैसे कुछ करे इस बारे में रीमा को कुछ नहीं पता था।
रीमा अपनी मौसी को तलाश करना चाहती थी इसके लिए वक़्त चाहिए था। रीमा मेहनती लड़की थी उसे मेहनत करने से कोई परहेज नहीं था उसके कुछ होटल वालों से काम भी माँगा परन्तु बिना किसी जान पहचान के काम मिलना आसान नहीं था। एक सरदार जी अपने ढाबे में उसे काम देने के लिए तैयार थे परन्तु रीमा को तो सर छुपाने के लिए छत्त की भी जरूरत थी ऐसे में ढाबे वाले सरदार जी भी मजबूर हो गए। 5 या शायद 7 दिन रीमा ने वहां काम किया भी परन्तु रात में तो ढाबे में सोया नहीं जा सकता था इसीलिए रीमा नज़दीकी गुरुद्वारे में जाकर सोने लगी। परन्तु आखिर उसे कुछ न कुछ पक्का इंतज़ाम तो करना ही था इसीलिए आखिर रीमा ने सेठ जी के पास वापिस लौटने का निश्चय किया। रीमा को मुंशी जी के बारे में भी चिंता थी क्योंकि मुंशी जी ने वापिस लौट कर कह दिया होगा की वह रीमा को उसकी मौसी के पास छोड़ आये है ऐसे में रीमा वापिस सेठ जी के पास लौट कर क्या कहेगी। और यदि सच कहेगी तो हो सकता है की मुंशी जी समस्या में फंस जाए। इसीलिए रीमा कुछ और दिन वही ढाबे पर काम करती रही। परन्तु आखिर कब तक ?
फिर एक दिन रीमा ने तय कर लिया और सेठ जी के पास लौट जाने के लिए निकल पड़ी। उसने दोबारा ट्रैन पकड़ी और इस बार अकेले ही लम्बे सफर के लिए खुद को तैयार कर लिया। रेल एक बार फिर छुक छुक करती मंज़िल की तरफ जा रही थी। उसके सामने की सीट पर एक 25-28 वर्ष की अन्य महिला अपने बच्चे के साथ बैठी थी उसका पति भी उसी डिब्बे में कहीं बैठा था और उसके दायी तरफ एक व्यक्ति तकरीबन 35 से 40 की उम्र का अपने हाथ में ली हुई किताब में डूबा आस पास की दुनिया से बेखबर और बस इतना देख कर रीमा ने अपनी गर्दन घुमाकर खिड़की की तरफ कर ली। रीमा बाहर के दृश्य का आनंद लेते हुए एक ऐसी कहानी का ताना बाना बुनने का प्रयास कर रही थी जिससे की मुंशी जी के लिए भी परेशानी न हो और उसका अपना बचाव भी हो सके की तभी किसी ने उसे पुकारा। पलट कर देखा तो सामने टीटी खड़ा टिकट चेक कर रहा था। रीमा ने भी अपना टिकट टीटी की तरफ बड़ा दिया और फिर जैसे रीमा के पैरों तले से ज़मीन ही खिसक गयी। रीमा गलत ट्रैन में बैठ गयी थी वह अपनी दिशा से भटक कर बिलकुल उलटी दिशा में जा रही थी।
क्रमश...
