भोला "द हीरो"
भोला "द हीरो"


अभी सावन का मस्त महीना चल रहा है।क्या कस्बा क्या शहर क्या गांव हर तरफ इस महीने का नशा छाया हुआ है।लोग गांव से कस्बा और कस्बा से गांव भागदौड़ करने में लगे हैं। जो नौकरी या रोजगार के चलते गांव से कस्बों में जा बसे हैं उन्हें खेेेती के कार्य ,खेतों और बागों की हरियाली गांव खींच लाती है और जो गांव के भोले-भाले किसान हैं उन्हें कस्बों के शिवालयों और मेलों की रौनक लुभाती है जहां शिव भक्त दूर-दूर से भगवान् शिव को जलार्पण करने आते हैं और जहां शिव भक्तों और आम लोगों को लुभाने के लिए तरह तरह के खिलौनों कपड़ों आदि की दुकानें लग जाती हैं और जहां बच्चों के मनोरंजन के लिए काठ के घोड़े, ताराघर, बच्चों की रेल,आसमानी झूले आदि का खास इंतजाम होता है।
इन दिनों तो गांवों की छटा ही कुछ निराली होती है।आसमान में काली-काली घटाएं उमड़-घुमड़ कर ग्रामिणों के मन को आल्हादित और रोमांचित करती है। जो लोग खेतों में काम कर रहे होते हैं उन्होंने जोरों की बारिश का इंतजार है क्योंकि बारिश में भीग-भीग कर काम करने का मजा ही कुछ और होता है।जो लोग बाग-बगीचों और घरों के आसपास दिनचर्या वाले कामों को निपटाने में लगे हैं, जो लोग गांव के चौपाल पर जमा होकर गपशप और मंनोरंजन में लगे हैं और जो बाकी बचे लोग ग्रामीण सड़कों पर तफरीह के लिए निकले हैं वर्षा के आसार देखकर जल्दी-जल्दी घर वापस जाने की होड़ में हैं।मगर इन सबसे अलग बच्चे मनमोहक घनी काली-काली घटाओं को देखकर तो शोरगुल करते हुए नाचने ही लगे हैं। थोड़े-थोड़े बच्चे अलग-अलग गुट बनाकर बारिश का किस प्रकार आंनंद उठाना है योजना बना रहे हैं।
चौपाल में बैठे हुए लोगों में भी चर्चा चल रही है।
"भाई शंभू ,लगता है आज की बरखा कयामत ढायेगी "--- भोला ने शंभू से काले गहराते बादलों की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए कहा।
"हां लगता तो ऐसा ही है।कुदरत की मर्जी पर किसका जोर है भैया अब देखो ना बादल जब नहीं बरसना चाहती है तो सुखाड़ ला देती है और जब बरसने पर आती है बाढ़ लाकर सारा गांव तहस नहस कर देती है। भगवान करे इस बार हमारी फसल डूबने से बचें।"--शंंभू ने मर्माहत होते हुए कहा।
"शायद तुम ठीक ही कह रहे हो मैया।रोज-रोज की बारिश सचमुच नाक में दम कर देता है। घर-बाहर के कामों में परेशानी ही परेशानी होती है। मवेशिययां भी घर के अंदर पड़े-पड़े उकताने लगती हैं। लोग बाजार हाट नहीं जा पाते हैं।"
"बाजार से तूने याद दिलाया भोला।चुनियां को आज मेले घुमाने का वादा किया था मैंने।पर लगता है नहीं जा पाऊंगा। आज फिर रोएगी वो।"----शंभू ने उदास होते हुए कहा।
"हां भैैैया जाना तो मुझे भी था अपने बच्चों को लेकर पर कैसे जाऊं। ये देखो बूंदें बरसनी भी शुरू हो गयी हैं। अब चलो चलते हैं यहां से"----भोला ने बदन पर गिरी पानी की बूंदों को हथेलियों से साफ करता हुआ बोला और उठ खड़ा हुआ।
"हां-हां चलो भाई अब तो जाना ही पड़ेगा यहां से। बारिश गहराने से पहले उससे निपटने का इंतजाम भी करना पड़ेगा।"---शंभू उठ खड़ा हुआ।साथ ही वहां बैठे अन्य सभी लोग भी एक-एक कर अपने-अपने घरों की तरफ जाने लगे।
हवाओं के साथ धीरे-धीरे बारिश तेज होने लगी और थोड़ी ही देर में रौद्र रूप धारण कर लिया। घर से बाहर और खेतों में काम करने वालों लोगों में अफरातफरी मच गयी।सभी आधे-अधूरे काम को छोड़ घर की तरफ भागने लगे।क्योंकि समतल मैदानी इलाके के नदी किनारे बसे इस गांव मेंअक्सर ऐसा होता है कि तमूसलाधार बारिश में विस्तृत धरती से भारी मात्रा में रेंगकर जलराशि बड़ी तेजी से लोगों के घरों में घुसने लगता है।उपर से बहकर आता निरंकुश पानी और नीचे नदी का बढ़ता जलस्तर। बारिश अगर चौबीस घंटे की हो गयी तो गांव का जलमग्न होना तय है।
भोला को जिस बात का अंदेशा था आज वैसा ही होता प्रतीत हो रहा था।पांच छः घंटे हो चुके थे बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।अगर और इतनी ही देर वर्षा हुई तो....,हे भगवान्। सोचकर भोला कांप गया।
हम गरीबों की जिन्दगी भी क्या जिन्दगी है।हर साल बरसात की मार को झेलना पड़ता है। बचाते-बचाते ढेरों अनाज और सामान बर्बाद हो जाता है।और अगर बड़ी बाढ़ आयी तो कभी-कभी अपनी जान भी बचाना मुश्किल हो जाता है।इतने पैसे भी नहीं हम गरीबों के पास कि हम अच्छे और पक्के मकान बनवाएं जो इस पानी की मार को झेल सके और हमें भी सुरक्षित रख सके।
जब ईश्वर ने ही हमारे भाग्य में घुट-घुटकर जीना लिखा है तो हम कर ही क्या सकते हैं। देश की सरकार भी नाम मात्र की सहायता कर अपना पल्ला झाड़ लेती है जबकी निगोड़ी बाढ़ हमारी कमर तोड़कर छोड़ जाती है हमें लिए भूखमरी और बेरोजगारी की आग में जलाने।
सोचते-सोचते भोला के ऊपर निराशा हावी होने लगी मगर उसने मन ही मन ठान लिया कि चाहे जो हो जाय इस बार वह बाढ़ को जीतने नहीं देगा।
जोरों की वर्षा जारी थी। उसने देखा बारिश का पानी आंगन में घुटनों से नीचे तक होकर निकल रहा है।ऐसे मौकों के लिए वहां के घरों की बनावट ऐसी होती है कि कमर से ऊपर तक आ जाने के बाद ही पानी घर के अंदर घुंस पाता है।भोला इन्हीं सब विचारों में मग्न था कि उसकी पत्नी बोली पड़ी जो दोनों बच्चों को दबोचे उसी के साथ तख्त पर बैठी थी।
" गुमसुम सा बैठकर क्या सोच रहे हो जी..?तनिक हमें भी तो बतलाओ।"
"और क्या सोचना ओंकार की अम्मा।सोच रहा हूं कि यदि बाढ़ की नौबत आयी तो कैसे निपटेंगे।"
"क्यूं बेकार में डर रहे हो जी,बाढ़-वाढ़ कुछ नहीं आने वाला।और आएगा भी तो जब आएगा तब निपट लेंगे।थोड़ा सा पानी है वो निकल जाएगा।"---पत्नी ने हिम्मत से ढांढ़स बंधाते हुए कहा तो भोला को उसपर गर्व महसूस हुआ और मुस्कुराया।ऐसी मुश्किल घड़ी में जीवन-संगिनी द्वारा उसके हौसले को बढ़ाने वाली बात करना उसे बहुत अच्छा लगा। अतः उसने मुस्कुराकर प्यार से कहा।
"तुम ठीक ही कह रही हो डरना नहीं चाहिए।पर एक कम करो ओंकार की अम्मा जितनी बना सकती हो रोटियां बना लो पानी और बढ़ जाएगा तो मुश्किल हो जाएगी।बच्चे भूखे नहीं रह पाएंगे।"
"हां जी.!! मैं भी यही सोच रही हूं।लो बच्चों को संभालो मैं रोटियां सेंकने का इंतजाम करती हूं।"
रह-रहकर बादलों के चिंघाड़ने और बिजली कड़कने की आवाजें आ रही थीं मगर अब वर्षा रुक-रुक हो रही थी।शाम हो चली थी ।इस पहर गांव में क्या चहल-पहल रहती थी मगर बाढ़ के भय से सबको सांप सूंघ गया था। चारों ओर सन्नाटा ही सन्नाटा। कहीं से किसी प्रकार की कोई आवाजें नहीं आ रही थी।बाढ़ के भय से सब अपने-अपने घरों में दुबके पड़े थे।जिन लोगों के घर पक्के थे उन्हें तो खास चिंता नहीं थी पर कच्चे घर वालों की तो अंतरात्माएं कांप रही थीं।
थोड़ी देेर में अंधेरा भी छाने लगा।भोला ने टार्च जलाकर देखा पानी का जलस्तर और वेग बढ़ता ही जा रहा था।बिजली आने से तो रही इसलिए भोला ने लालटेन जलाकर तख्त पर रख दी । ओंकार और मनियां दोनोें बच्चे वहीं तख्त पर सो गये थे।भोला भी वहीं लेट गया और सोचने लगा।तभी किसी के चिल्लाने की आवाज उसके कानों में पड़ी।वह चौंककर उठ बैठा और अपनी पत्नी से बोला।
"ये आवाज़ कैसी है ओंकार की अम्मा,क्या तुम्हें भी सुनाई दे रहा है...?"
"हां जी.!! लगता है कोई मुसीबत में है"---परबतिया ने शंका जाहिर करते हुए कहा।
"मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। मैं जरा बाहर से देखकर आता हूं"---कहकर भोला उठा।
"नहीं, नहीं अकेले मत जाइए जी।"----वह घबराकर बोली।
"तो क्या तुम भी साथ चलोगी ?"---भोला ने लाठी और टार्च हाथ में लेते हुए कहा।
"नहीं जी.!! पर देख नहीं रहे बाहर क्या तूफ़ानी रात है,आपको कैसे जाने दूं.?"
"क्या पता कोई मुसीबत में हो किसी की जिन्दगी और मौत का सवाल हो ओंकार की अम्मा..? हो सकता है वहां किसी को मेरी जरूरत हो और हो सकता है मेरे जाने से किसी की जान बच जाय।"----भोला ने पत्नी को समझाते हुए कहा।
"वो सब तो ठीक है पर मेरा दिल घबरा रहा है जी।"
"घबराओ मत ओंकार की अम्मा मुझे कुछ नहीं होगा। जिसने कभी किसी का बुरा न किया हो उसका भी कभी बुरा नहीं हो सकता।"---पत्नी की हिम्मत बढ़ाते हुए भोला ने कहा।
"जाओ मगर ध्यान रखना मैं भी यहां अकेली रहूंगी इन छोटे-छोटे बच्चों के साथ"
"तुम बिल्कुल चिंता मत करो अगर कोई खास बात ना होगी तो मैं तुरंत लौट आऊंगा।"
"ठीक है जाओ लेकिन जरा संभल के चारों तरफ पानी ही पानी है।और बारिश भी हो रही तेज हो रही है।"
एक प्लास्टिक की चादर को ओवर कोट की तरह बदन से बांधकर,एक हाथ में लाठी और एक हाथ में टार्च लेकर भोला घर से निकला और आवाज की दिशा में धीरे-धीरे बढ़ने लगा।
एक तो यूं ही पानी में चलना मुश्किल होता है उसपे घुटनों से ऊपर पानी में उसके बहाव के विपरित दिशा में चलना और भी मुश्किल।आवाज को लक्ष्य बनाकर लाठी से जमीन को टोहते हुए वह आगे बढ़ रहा था।कुछ पल बाद उसे बस्ती के अगले शिरे पर टार्च की रोशनी चमकती दिखाई दी।आवाजें भी वहीं से आ रही थीं।वह उसी दिशा में तेजी से बढ़ने का प्रयास करने लगा।
जल्दी ही वह उस स्थान पर पहुंच गया मगर अंधेरे में कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बस केवल टार्च की रोशनियां चमक रही थीं। टार्च की रोशनियों से हिसाब लगाया, करीब आठ-दस लो वहां मौजूद थे। फिर उसने हरि काका की आवाज सुनी जो एक अधेड़ अवस्था का आदमी था।वह कह रहा था---"अरे कोई उसको बचा लो भैया.!! हरखू,भीमा कोई तो आगे बढ़ो।"
"क्या हुआ काका किसे बचाने की बात कर रहे हो.?"---भोला ने चलते -चलते आवाज की दिशा में टार्च की रोशनी फेंककर पूछा।
"अरे भोला, आ गये तुम.? बेचारी बुधनी काकी फंस गयी है अपनी मड़ैया में।उसे बचा लो बेटा।"----हरि काका ने भी बोला के उपर टार्च की रोशनी डालते हुए कहा।
"पर यह सब हुआ कैसे काका.?"
"अरे और कैसे..? तुम तो जानते ही हो वो यहां अकेली पड़ी रहती है।जिस कदर आज बारिश आयी है अच्छे-अच्छों को संभलने नहीं दिया तो काकी क्या कर पाती।बेचारी से चला तो जाता नहीं भागती क्या खाक.?वो तो शुक्र है कि इसके चिल्लाने की आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मैंने किसी तरह से भीमा को बताया फिर उसने हरखू ,शंभू, भैरो को बता कर साथ लाया है मगर किसी की हिम्मत नहीं हो रही काकी की मड़ैया तक जाने की"
"हे भगवान, हरखू ,भीमा कहां हो तुम लोग.?"-----भोला जोर से चिल्लाया।
"हम यहीं हैं भोला भैया इधर इस पेड़ की तरफ" ---भीमा ने भी चिल्लाकर बताया।
भोला ने आवाज की तरफ टार्च जलाया।देखा एक छोटे से पेड़ का सहारा लेकर वह खड़ा था।फिर उसने चारों तरफ टार्च की रोशनी फेंककर देखा सब लोग मड़ैया से दूर-दूर किसी ना किसी चीज का सहारा लेकर खड़े थे।पर उसे आश्चर्य था कि अब तक किसी ने काकी को बचाने की पहल क्यों नहीं की।उसने टार्च की रोशनी में देखा मिट्टी की कच्ची दीवार पर फूस की छप्पर से बनी मड़ैया में खाट पर काकी अधलेटी पड़ी थी जो शायद इस अचानक आयी मुसीबत से घबराकर निढाल हो गयी होगी।
दरअसल काकी की मड़ैया गांव के अगले शिरे पर एक ऊंचे टीले नुमा जमीन पर थी। जहां से वह अपने अगल-बगल के खेतों में लगे फसलों की निगरानी किया करती थी। वह इस दुनिया में बिल्कुल अकेली थी।औलाद के नाम पर एक मात्र बेटी थी जो जाहिर है अपने ससुराल में ही रहेगी।उसकी देखभाल करने वाला यहां अपना कोई न था पेट भरने के लिए थोड़ी खेती बंटवारे पर करवा लेती थी यानि कोई अन्य किसान उसके खेतों में फसल लगाकर कुछ हिस्सा उसे दे दिया करते थे।इसके अलावा पर्व-त्योहार एवं खास मौकों पर उसे चाहने वाले उसे खाना वगैरह दे दिया करते थे।कुल मिलाकर यही उसकी जीवन-चर्या थी।
उसकी मड़ैैैया ऊंची जमीन पर होने की वजह से वहां तक जाने के लिए गहरे पानी के तेज बहाव से होकर गुजरना पड़ता।उसने सोचा काकी को वहां से लाने के लिए किसी ना किसी को तो पहले करनी ही पड़ेगी वरना बेचारी बूढ़ी जान वहीं ठिठुरकर मर जाएगी रात भर में।या हो सकता है जल-प्रलय और बढ़े और मड़ैया समेत उसे भी बहाकर ले जाय। अतः भोला ने उसे बचाने का संकल्प लें लिया और भीमा को आवाज लगाया।
"भीमा, हरखू तुम लोग मेरी बात सुन पा रहे हो.?"
"हां भोला भैया बोलो हम सुन रहे हैं।"
" भीमा एक रस्सी का इंतजाम कर लाओ जल्दी।तभी काकी को बचाया जा सकता है"
"हां पर जाने आने में थोड़ी देर लगेगी"
"ठीक है जल्दी जाओ,तेरे घर ना हो तो रस्सी मेरे घर से भाभी से मांग लाना"
"ठीक है भैया मैं अभी आया"
भीमा रस्सी है लेकर आया।भोला ने रस्सी का एक शिरा पेड़ से बांधकर दूसरा शिरा अपने कमर से बांधा और भीमा को कुछ हिदायतें देकर लाठी टेकते हुए मड़ैया की तरफ बढ़ा। वहां पहुंच कर उसने पहले काकी को देखा।वह ठीक थी।भोला को देखकर वह उठी और उससे लिपट कर रोने लगी।भोला ने उसे ढांढ़स बंधाया,अब चिंता की कोई बात नहीं काकी।हम तुम्हें लेेेने आ गये हैं। उसने अपनी लाठी को गीली हो चुकी जमीन में गाड़कर कमर से रस्सी खोला और खींचकर लाठी से बांध दिया। फिर भीमा को पुकारा----" अब आ जाओ भीमा,मगर एक बार रस्सी की गांठ अवश्य देख लेना।"
"ठीक है भैय्या.!!!"
भोला ने रस्सी को सावधानी के लिए पकड़ रखा और भीमा धीरे-धीरे उसके सहारे भोला के पास पहुंच गया।
"तुम इस रस्सी को थामे रहना भीमा मैं काकी को हरि काका के पास छोड़कर आता हूं।उसके बाद काकी के और जरूरी सामान लेकर हम दोनों निकल चलेंगे।चलो काकी उठो..!"
भोला ने काकी को अपने कंधे पर लादा।काकी ने भी अपनी बाहों से भोला के गर्दन के आस-पास घेरा बनाकर उसे कसकर पकड़ रखा।फिर धीरे-धीरे उसे हरि काका के पास छोड़ आया।
इसी तरह अगली दो खेप में उसके कपड़े-लत्ते और अनाज की बोरियां लाकर उस साहसिक कार्य को अंजाम दिया और सबने मिलकर काकी को एक सुरक्षित जगह पहुंचाया। इस काम में एक तरफ उसके साथ भीमा और दूसरी तरफ हरि काका,हरखू और शंभू आदि था। बरसाती रात गुजर जाने के बाद सुबह भीमा और उसके सहयोगियों की गांव में खूब चर्चा और सराहना हुई।