प्रवीण कुमार शर्मा

Classics

4.5  

प्रवीण कुमार शर्मा

Classics

भिखारी

भिखारी

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सुबह का वक्त था।मैं स्नानघर से निकला ही था कि मुझे बाहर रास्ते से बजती हुई घँटी की आवाज सुनाई दी। यह आवाज़ उस कावड़ में लटकी हुई घँटी से आ रही थी जिसे एक वृद्ध अपने कांधे पर लिये हुए आटा मांगता फिर रहा था।निश्चय ही वह व्यक्ति किसी पाप का प्रायश्चित कर रहा था जैसा कि मेरी माँ ने मुझे यह उत्तर सुझाया जब मैंने इस तरह ही उस व्यक्ति के द्वारा आटा मांगे जाने पर आपत्ति जाहिर की।

इस प्रकार मेरे द्वारा आपत्ति प्रकट किये जाने पर मेरी माँ ने मुझे खूब डाँटा और आगे ऐसा न करने की सलाह देते हुए कहा कि हमारी हिन्दू संस्कृति में जो व्यक्ति भिक्षा माँगने आता है तो उसे खाली हाथ नहीं जाने देते हैं और न ही दुर्व्यवहार करते हैं;यह भीषण तथा अक्षम्य पाप होता है।

माँ की इन बातों को गांठ में बांधे हुए मैं अपने कपड़े पहनने ,बालों में तेल डालने तथा कंगी करने जैसे दैनिक कार्यों में लग गया क्योंकि मुझे तो ट्यूशन जाने के लिए देरी हो रही थी लेकिन चंद समय में ही वह व्यक्ति हमारे दरवाजे के ठीक सामने अपनी ही घंटी की आवाज को काटने का असफल प्रयास करते हुए राधे - श्याम ------ राधे$$$$श्याम! जैसे शब्दों का उच्चारण करते हुए रुका।

तभी माँ का रसोई से मेरे लिए उस आटा माँगने वाले के लिए आटा डालने का आदेश आया।मैं भी पूरी तरह से आज्ञाकारी होकर माँ के पास गया और वहां से आटा लेकर आदेशानुसार उस व्यक्ति के लिए आटा डालने चल दिया।

  फिर भी मेरे मन में एक उत्कंठा जगी कि मैं यह जानू कि इस व्यक्ति द्वारा इस प्रकार दर-दर भटकते हुए आटा माँगने का मूल कारण क्या है? अपनी उत्कंठा को न दबा पाने के कारण मैंने उस व्यक्ति को रोक लिया और उसकी कुशलक्षेम जानने लगा।धीरे-धीरे मैं अपने उद्देश्य की तरफ बढ़ता गया और दस मिनट फालतू बर्बाद करने के पश्चात मैंने उसके समक्ष अपनी मूल बात रख दी।

  अकस्मात इस प्रकार की बात सुनकर पहले तो वह व्यक्ति सकपकाया लेकिन तुरंत सम्भलते हुए बोला,"क्या बताऊँ बेटा! मैं भी तेरी तरह खूब चंगा था और मेरा भी तुम्हारी तरह भरा- पूरा परिवार था।लेकिन समय के आगे हमारी एक न चली बेटा !" कहते हुए बाबा की आंखे भर आयीं। मैं भी भावुक हो उठा और बाबा से पूछा "कैसे,बाबा?"

"समय बहुत बलवान है,बेटा!मेरे पास भी पत्नी,बच्चे सब कुछ था।भगवान की कृपा से दाल-रोटी में भी किसी प्रकार का कोई घाटा न था कि अचानक विपत्तियों का पहाड़ हमारे ऊपर टूट पड़ा। मेरे बड़े बेटे को सर्प ने डस लिया तथा छोटा बेटा मलेरिया का शिकार हो गया और इनकी माँ एक अन्य बच्चे को जन्म देने के दौरान मर गयी। मेरा वो बच्चा भी माँ के साथ ही चला गया और मैं बिल्कुल अकेला रह गया। अभी विपत्तियों का दामन छूट पाता कि तभी अकाल के रूप में एक और विपत्ती आ पड़ी और मेरे सब खेत सूख कर बंजर हो गए। इस तरह एक हंसता-खेलता घर परिवार एक उजड़े हुए कब्रिस्तान में बदल गया।

मेरा हृदय इन विपत्तियों के थपेड़े खा-खा कर पत्थर हो गया है।एक ऐसा पत्थर-------- जिसमें प्रेम लेश-मात्र को न बचा हो। यह दुनिया मुझे रस-हीन लगने लगी है।अब मैं और नहीं जीना चाहता बेटा, लेकिन क्या करूँ मौत भी तो नसीब नहीं! कई बार मरने का प्रयत्न किया लेकिन वहाँ भी असफल रहा--------"। "नहीं, बाबा ऐसा नहीं कहते।सुख-दुख का तो जोड़ा है। यदि आप जैसे वयोवृद्ध ही जीवन से हार मान लेंगे तो हम जैसे किशोरों का क्या होगा फिर? हम जैसी आने वाली नई पीढ़ियों को जीने की प्रेरणा कहाँ से मिलेगी"? मेरा भावुक एवं मंद स्वर अकस्मात फूट पड़ा।

इस करुणामय वार्तालाप में माँ के चेतावनी भरे स्वर ने "ट्यूशन नहीं जाना क्या"? विघ्न डाला और फिर स्वयं माँ भी इसी वार्तालाप में शामिल हो गयीं। एक खामोशी को तोड़ते हुए माँ ने कहा बाबा, इसकी बात का बुरा न मानना। ये तो ऐसी ही बकवास किसी न किसी से करता रहता है। निठल्ला जो ठहरा।" नहीं बेटी ये ठीक ही कह रहा है। भीख मांगना तो आत्मसम्मान को बेच देने के समान है। इस से नीच कार्य दुनिया में और कोई नहीं; इससे तो मरना ही अच्छा पर मौत भी तो नसीब नहीं है--------" बाबा ने रुँधे हुए गले से कहा।

"परिस्थितियों का मारा हुआ हूँ, बेटा! वरना क्यों इस तरह दर-दर भटकता फिरता"? बाबा ने अपनी बात को कड़ीबद्ध तरीके से पहली बात में जोड़ते हुए कहा।बाबा की इस बात ने मेरे चेहरे को शर्म से लाल कर दिया तथा मुझे अपराध बोध की अनुभूति होने लगी। मैं स्वयं भीतर ही भीतर अपने आपको झिड़क रहा था तथा यह सोचकर पानी-पानी हो रहा था कि किसी असहाय व्यक्ति की सहायता तो दूर उसे तंग करने से बाज नहीं आ रहा हूँ।मेरे भीतर मन के सागर में उमड़ती-घुमड़ती हुई लहरों का उफ़ान तब थमा जब बाबा ने कहा 'अच्छा तो चलूं बेटा!'

तभी मां ने कहा ' बाबा,खाना खाकर ही जाना। मैंने अंदर थाली लगा रखी है।चलिए, अंदर चलिए।' 'नहीं, बेटी मुझे देरी हो रही है। मैं स्वयं ही खाना बनाकर खाता हूं ', बाबा ने लगभग अपने स्थान से उठते हुए कहा।' नहीं, बाबा! मेरे दरवाजे से बिना खाना खाये आप नहीं जा सकते।' माँ ने पूरी तरह जिद पर डटे हए कहा।'व्यर्थ में ही जिद कर रही हो, बेटी।' बाबा ने बेमन से अंदर आते हुए तथा एक बच्चे को दवाब पूर्वक किसी कार्य के लिए बाध्य किये जाने की सी चेहरे पर मुद्रा बनाये हुए कहा।

' कहाँ पर रहते हो, बाबा?' मैंने उत्सुकतापूर्वक पूछा।'पास में ही एक मंदिर में रहता हूँ।' बाबा ने रोटी के ग्रास को मुंह में लेते हुए कहा।'बाबा, आपका घर कहाँ पर है?' मैंने पुनः मां की नाराजगी की अवहेलना करते हुए कहा।' सैकड़ों मील दूर है, बेटा।' बाबा ने शांत मुद्रा में जवाब दिया।'आपकी किसी ने सहायता नहीं की?वहां पर कोई और आपका सगा नहीं है?' मैंने थाली में रोटी रखते हुए कहा। 'नहीं,कोई नहीं है, बेटा और न ही किसी ने सहायता प्रदान की। यदि सहायता मिली होती तो मैं इतनी दूर क्यों आता और क्यों घुमक्कड़ सा जीवन व्यतीत करता?' बाबा ने दाल पीते हुए कहा।

'भिखारियों की भी यहाँ पर अनेक किस्में हैं, बेटा।' बाबा ने हाथ धोते हुए तथा भोजन करने के बाद मूछों पर हाथ फेरते हुए कहा जो स्पष्ट रूप से मेरे मन में यह शंका उत्पन्न कर रहे थे कि बस बाबा अब जाने ही वाले हैं। मैं नहीं चाहता था कि हमारा वार्तालाप अधूरा रह जाये और मेरी शंकाएँ, भ्रम और धारणाएँ जो मैंने भिखारियों के प्रति अपने हृदय में पाल रखी थीं वे ज्यों की त्यों दबी रह जाएं क्योंकि अभी तो इस वार्तालाप के माध्यम से केवल सतही मिट्टी ही हट पायी थी चट्टान तो अभी बाकी थी।

बाबा ने लगभग मेरे पांव को पकड़ते हुए खड़े होने के लिए मुझे सहारा के रूप में इस्तेमाल किया। इस प्रकिया ने मेरी कल्पना लोक से यथार्थ लोक में लौटने में मदद की । फिर बाबा ने पास में रखी हुई झोली में से हनुमान चालीसा निकालते हुए कहा"इसके रचयिता ने भी भीख मांगी थी। द्वापर युग में कृष्ण के भक्त सुदामा की पत्नी सुशीला को भी कृष्ण को ले जाने के लिए पड़ोसन से चावल माँगने पड़े थे।

  ' बाबा! आपने थोड़ी देर पहले भिखारियों की अनेक किस्में कहीं थी।वे किस्में कौन-कौन सी हैं?मैंने कहा।'

'अरे मैं तो भूल ही गया ---------, सुनो तो फिर बेटा':-

  ' पहली किस्म के भिखारी तो वे हैं जो बेचारे परिस्थिति के मारे होते हैं और किसी के सामने हाथ फैलाने से पहले उनके हृदय को धक्का सा पहुंचता है पर क्या करें वे परिस्थितियों से मजबूर रहते हैं। लेकिन इस प्रकार के भिखारी अस्थायी समय के लिए ही भीख मांगते हैं और फिर परिस्थितियां या समय अनुकूल आते ही ये लोग अपने आपको संभाल लेते हैं। नरसी, तुलसी , सुदामा इत्यादि लोग इसी कड़ी में आते हैं।'

'दूसरी किस्म के भिखारी वे हैं जो इस कार्य को धर्म के रूप में लेते हैं क्योंकि वे दुनिया से पूरी तरह नाता तोड़ चुके होते हैं। इनका न तो कोई अपना होता है और न ही पराया। इन्हें भिखारी कहना भी पाप से कम नहीं है।ये लोग जब किसी के घर से गुजरते हैं तो बस इतना कहते हैं"दे तो भी भला,न दे तो भी भला" और चलते बनते हैं। इस श्रेणी में वशिष्ठ, विस्वामित्र, गौतम इत्यादि ऋषिगण एवं भर्तिहरि जैसे सच्चे वैरागी ही आते हैं। अब तो ऐसे लोग मुश्किल से ही मिलते हैं। उक्त दोनों प्रकार के लोगों को अपने घर से खाली हाथ भेजना पाप कमाने के समान है।'

' तीसरी किस्म में कुछ लोगों ने भीख मांगने को व्यवसाय के रूप में ले लिया है। ये लोग तीर्थ स्थलों, शहरों, रेल्वे स्टेशनों,बस स्टेण्ड इत्यादि स्थानों पर नाटकीय मुद्रा में देखे जा सकते हैं। तीर्थ स्थलों पर झाड़-फूंक देने वाले व्यक्ति अप्रत्यक्ष व्यवसायिक भिखारी हैं जो अपने उन साथियों से लेशमात्र के लिए ही भिन्न है जो प्रत्यक्ष रूप से बेशर्मी की हद को पार करते हुए हर किसी के सामने अपनी झोली फैला देते हैं। इसके अलावा तीर्थ स्थलों पर कुछ कोढ़ी या लकवे जैसी बीमारियों से ग्रसित लोग भीख मांगते हुए मिल जाएंगे। बेटा! तुम ये समझ रहे होंगे कि इस प्रकार के लोगों को मैंने पहली किस्म में क्यों नहीं अपनाया? वो इसलिए बेटा! क्योंकि बहुत कम लोग ही इनमें से वास्तविक रूप से कोढ़ी या लकवा ग्रस्त होते हैं और तो केवल ढोंग करते हैं। नाना प्रकार के रंग लगाकर या लकवे की मुद्रा बनाकर ये लोग भोले-भाले लोंगों को मानवता के नाम पर खूब लूटते हैं।'

अभी कुछ दिन पहले मैं तीर्थ करके आया था तो यात्रा के दौरान एक बस स्टैण्ड पर मेरी मुलाकात दो ऐसे शख्सियतों से हुई जो मेरे मन में अमिट छाप छोड़ गयीं। मैं बस में बैठा हुआ था तो क्या देखता हूं कि एक दस- बारह साल की बच्ची जिसके सिर के बाल एक-दूसरे में उलझे हुए थे और चेहरा अपने स्थायी रंग (काला) में और इजाफा कर रहा था क्योंकि चेहरे पर मैल जमा हुआ था और आंखों में ढीड भरी हुई थी तथा होठों के आस-पास कुछ सफेद-सफेद सा लगा हुआ था जो प्रत्यक्ष रूप से गवाही दे रहा था कि उसने न तो अपना मुँह धोया है और उसे नहाये हुए न जाने कितने दिन बीत गये।मेरे अनुमान से पांच-छ्ह दिन तो हो ही गये होंगे। वह लड़की बस के पिछले दरवाजे की खिड़की पर बैठे हुए लोगों से पैसे कुछ इस अंदाज में मांगती है" ऐ बाबूजी!कुछ दे दो--------ऐ बाबूजी! कुछ दे दो"

उनमें से एक किशोर ने कुछ मनोरंजनात्मक अंदाज़ में "लाली हम कोनसे बाबूजी हैं जो तुझे पैसे दे दें; तू हमें ही देदे , वैसे भी हम बेरोजगार हैं।" वह लड़की तो बेचारी इन शब्दों को क्या पकड़ पायी होगी लेकिन मैं इन शब्दों को सुनकर जरूर भावुक हो गया और संकल्प करने लगा कि ऐसे लोगों की दयनीय स्थिति को सुधारने का मैं प्रयास करूंगा लेकिन यह सब एक स्वप्न की तरह मेरे हृदय में थोड़े समय के लिए आया और फिर मेरी खुद की दयनीयता को देख के रफ़ूचक्कर हो गया।

   दूसरा व्यक्ति बस के आगे वाले दरवाजे से प्रवेश करता है। मैं अभी तक उस बच्ची की तरफ देख रहा था जो अपराध बोध से ग्रसित होकर नहीं बल्कि निराश होकर उन लोगों की तरफ बार बार मुड़- मुड़ कर देखती हुई बस से दूर जा रही थी कि यकायक आगे के दरवाजे से आता हुआ वह व्यक्ति मेरी सीट से आगे की सीट पर बैठे हुए वयोवृद्ध व्यक्ति से टकरा जाता है और मेरे ध्यान को अपनी ओर खींचने में सफल हो जाता है। वयोवृद्ध व्यक्ति इस घटना से क्षुब्ध होकर उखड़ पड़ता है "न जाने कहाँ से आ जाते हैं, दारूबाज कहीं के! देखकर भी नहीं चल सकते।" वह व्यक्ति जवाब देते हुए कहता है, " मैंने कहां दारू पी है? मैं कोई दारू-बारू नहीं पीता।" इस कथन ने मुझे मन ही मन हंसने के लिये मजबूर कर दिया क्योंकि वह झूठ बोल रहा था और उसने निःसंदेह शराब पी रखी थी। मुझे भी यह विस्वास तब हुआ जब वह मेरी बगल से गुजरा। मैंने पहले तो उसे एक यात्री ही समझा पर जब मेरी नजरों ने उसका पीछा किया तो क्या पाया कि वह एक भिखारी ही था क्योंकि उसने पीछे पहुंचकर वहाँ बैठे हुए लोगों से पैसे मांगने शुरू कर दिए। वह एक-दो फिर क्रमानुसार मेरी सीट तक आ ही पहुँचा और बहुत ही दीन-हीन का सा भाव चेहरा पर लाकर मेरे सामने अपने हाथ बढ़ा दिए। यह सब देखकर मैं चौंक गया और उससे बचने के लिए उपाय ढूंढने लगा और तुरंत जवाब देते हुए मैंने कहा," मेरे पास पैसे नहीं हैं"। ये शब्द मैंने अपने दया से भरे हुए दूसरे हृदय को दबाते हुए कहे। वह भी बेफ़िक्र आगे बढ़ गया क्योंकि उसे विस्वास था कि इस बस में से कम से कम बीस रूपये तो इकट्ठे हो ही जायेंगे और वो भी बिना किसी परिश्रम और पसीना बहाये।'

' इस तरह से बेटा! पहले वाले दृश्य ने मुझे दया से भर दिया था वहीं दूसरे दृश्य ने मुझे पूरी तरह से घृणा से भर दिया था क्योंकि वह व्यक्ति अपने परिवार की जिम्मेदारी को भूलकर दारू के लिए प्रबंध कर रहा था वो भी बिना मेहनत के; मेरे मन को यह गवारा न था। ऐसे लोगों को सही दिशा में लाना चाहिए ।'

' पहले दृश्य ने मुझे केवल बच्ची के प्रति ही दयावान बनाया था बेटा! न कि उसके घरवालों के प्रति, उसके घर वालों के प्रति मैं घृणा से भर गया था क्योंकि वे लोग अपने बच्चों को पढ़ाने के बजाय उन्हें भीख मांगने के लिए प्रेरित करते हैं और खुद भी इस घृणित कार्य में संलग्न होते हैं और विश्व में हमारे देश की एक भद्दी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते, बेटा! केवल दयावान और घृणायुक्त होने के सिवाय।ज्यादा से ज्यादा हम उनके बारे में विचारणीय ही हो सकते हैं।इस समस्या का उपाय सामाजिक एवं प्रशासनिक तौर पर किया जा सकता है। सामाजिक तौर पर तो इस तरह से किया जा सकता है बेटा; ऐसे लोगों की अमीरों एवं समृद्ध लोगों द्वारा थोड़ी बहुत

सहायता प्रदान कर इन्हें व्यवसाय में लगा देना चाहिए जिससे ये लोग अपनी गरीबी से छुटकारा पा सकें और भीख मांगने के लिए बाध्य न हों तथा उन्मादे भिखारियों को समाज द्वारा सामूहिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए। प्रशासन को भी इसमें मदद करनी चाहिए और ऐसे गरीब लोगों को आर्थिक एवं निवास की सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए । तभी इस स्थिति से छुटकारा पाया जा सकता है।'

 मैं भी तो इस घिनौने कार्य में लगा हुआ हूं, बेटा ! और देखो मैं अन्य लोगों की निंदा कर रहा हूँ। बाबा ने मेरी बांह झिड़कते हुए कहा," मैं भी तो एक पापी हूँ न बेटा!" बाबा ने जैसे ही मेरी बांह को झिड़का तब पता चला कि मैं कहाँ पर था वरना मैं तो न जाने कितनी दूर चला गया था और न जाने क्या-क्या सोच रहा था। मैं बाबा की बातों में इतना खो गया था और बाबा बात बताने में इतने लीन हो गए कि हमें पता ही न चला कि हम कब से बाहर गर्मी में ही खड़े हुए थे।माँ भी हमारी बातों को सुनकर उनकी आंखें भर आयीं थी।

  पिता ऊपरी मंजिल से मंदिर में से अभी-अभी आये थे जो लगभग घण्टे भर से वहीं थे वो इस कदर बाबा की बातों से प्रभावित हुए कि बाबा के पैर छूते हुए उन्होंने घर पर ही हम सब के साथ ही रहने की जिद कर दी। माँ ने भी हाथ जोड़ते हुए अपनी सहमति दे दी। बाबा इस दृश्य से पूरी तरह से भाव विभोर हो गए और फूट-फूट कर रो पड़े। मैंने आगे बढ़ते हुए बाबा को संभाला। पिता ने कहा कि 'अब मत रो बाबा सब ठीक हो जाएगा।' "नहीं बेटा, रो नहीं रहा ये तो खुशी के आंसू हैं मेरा भ्रम जो टूट गया। मैं समझता था कि दुनिया में कोई नहीं है लेकिन अभी धरती पर धर्म है, बेटा।"

मैं भी खुश था क्योंकि मेरा भ्रम जो टूट गया था । मैंने भिखारियों के प्रति मन में जो पूर्वाग्रह पाल रखा था वो आज टूट गया था।फिर मैं नई उमंग के साथ घर पर ही पढ़ने लग गया क्योंकि ट्यूशन जाने में देरी जो हो गयी थी और वैसे भी समर वेकेशन्स थीं।


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