भिखारी और कर्फ्यु
भिखारी और कर्फ्यु


दो-तीन बार करवटें बदल चुका हूँ। एक बार अपना चार-पाँच इंच पैर भी अटपटे-से कम्बल से बाहर निकाल चुका हूँ। कान पर कुछ पतंगा चल रहा है जिसे फ़िर से हटाया है। शायद ये वही है जो पिछले कुछ घंटों में कई बार अपना हक़ जता चुका है।
खैर इतनी सारी सुगबगाहटों के बावज़ूद और सो भी कैसे सकता था।
आँखें खुलते-खुलते खुलने लगी हैं। तभी मेरे सर के पास रखी पानी की पतली लेकिन लम्बी-सी बोतल गिर गई। यही अंतिम सम्भावित ख़लल थी जो अपना काम अच्छे से पूरा कर चुकी थी।
रोशिनी अपनी दिशा ले रही है मतलब वो मेरे बदन को बुहाड़ना शुरू कर चुकी है। अब मैंने पलकों को पहले थोड़ा भींचा और हाथों को ऊपर खींचा। आँखें क़रीबन पैंतालीस डिग्री का कोण बनाते हुए अलसाई-सी खुलने लगी।
ऐसा लगता है सूरज महाराज आप मुझसे थोड़ा ही पहले जागे हो क्योंकि लाली काफ़ी है आपकी थाली में। थाली से याद आया मेरे कटोरे में दो सिक्के पड़े थे और किसी की मेहरबानी के दस रुपय।
खड़े होते ही पता चल गया की बाएँ पैर की सूजन नेक-सी कम है लेकिन दाएँ की कल से ज़्यादा। ये तो तब जब कल पानी के हाथ से थोड़ा सहलाया था। किसी तरह से जूतों को फँसाया अपने बाँस जैसे पैरों में।
मेरे पास ले दे के एक बड़ा थैला है और एक छोटा। बड़े में कम्बल, एक पैज़ामा, उधड़ी बुशट, एक छोटी-बड़ी जुराब रहती है। और हाँ मेरा कोट भी जिसे पहनकर मैं आज इस दशा में भी स्वयं को लाटसाब समझने लगता हूँ। बड़े थैले को दाएँ कंधे पे डाला और छोटे की लटकन पकड़ कर चल दिया। चलना ही जीवन है मेरा। कब से बस चलता जा रहा हूँ। दिन दीन-सा दिखता है और हर शाम किसी बोझ में दबती आदत-सी।
दो दिनों से छोटे थैले में एक बिस्कुट का पैकेट कुड़बुड़ा रहा था सो खोला तो निकले डेड़। खा तो लिया लेकिन कुछ पता नहीं चला। शायद मेरा पेट रसातल होता जा रहा है ऐसा सोच कर मन को भटकाया और आगे कदम घिसटने लगे।
पिछले कुछ दिनों की कहानी कुछ और ही है। सड़कों पर या तो मैं दिखाई देता हूँ या मेरी परछाइयाँ या फ़िर बड़बड़ाते कुत्ते।
वैसे हम बेघरों को कुछ देने का ज़िम्मा घरद्वार वालों का ही होता है। लेकिन वो ही नदारत हैं। जाने कहाँ गए वे सारे। पता नहीं कहाँ गया शहर का शोर। अब तो शहर में सन्नाटा ही चिल्लाता है।
ये चौराहा चुप है, चाय वाले की दुकान बंद है। पता नहीं कहाँ गया मोहनलाल - बेचारा देखते ही मुझ बेचारे को एक प्याली दे देता था। सब्ज़ी की दुका
न के बाहर केवल दो सड़े आलू पड़े हैं। और ये बड़ी दुकान लम्बी-सी गाड़ी वाले साहब की है जो अपनी जेब से हफ़्ते में कई बार दो-चार रुपय फेंक देते थे।
तभी कहीं से किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई - “ओ मंगू”
मेरे पैर काँपने लगे। भला इस बीयावान में सहसा कौन। देखा तो एक पुलिस का सिपाही खड़ा था।
मैंने सिकुड़ते हुए जवाब दिया - “जी बाओ जी”
“अबे तू कहाँ चले जा रहा है, दीखता नहीं कर्फ़्यू है कर्फ़्यू” - सिपाही ने कहकर ज़मीन पर डंडा पीटा।
“जा भाग अपने ठिकाने पर, शहर में महामारी फैली है। देखता नहीं सारे लोग अपने-अपने घरों में हैं।” - सिपाही बोलकर आगे चला गया।
“महामारी” मैंने तो आजतक हैजा या जरैया बुखार ही सुना था। ये ज़रूर कोई ख़तरनाक ही होगी तभी इस बालकों के विद्यालय के दरवाज़ों पर केवल कबूतर क़तार में बैठे हैं।
कुछ कदम आगे को बढ़ाए फ़िर सोचने लगा की - मैं कहाँ जाऊँ, मेरा तो कोई ठिकाना नहीं। मेरे पास कोई चारदिवारी नहीं, कोई परिवार नहीं। किसको बचाऊँ, कैसे बचाऊँ। बचाने की सोचूँ या खाना ढूँढने की। ना तो बड़ी गाड़ी वाले साब हैं, ना मोहनलाल चाय वाला और ना ही आते जाते दुआ लेने को लोग।
सिपाही कुछ महामारी की बात कर रहा था। उसका क्या करूँ? कैसे ख़ुद को बचाना है? मेरा ना घर और ना ही कोई ठिकाना है, ना परिवार और ना ही समाज में कोई भागीदारी।
सुना है लोग अपने घरों में अपने परिवार वालों के साथ हैं। - खुशनसीब होंगे वे...पर मेरा क्या... आज तो छोटे थैले में वो कुड़बुड़ाता बिस्कुट भी नहीं बचा....
सोचते सोचते चला जा रहा हूँ बस। आज शहर में केवल दो ही जन बचे हैं जिन्हें कोई काम का डर नहीं है, जिसे केवल एक दूसरे के साथ ही रहना है और वो है मैं और मेरी भूख। तभी एक कोने पर पीपल के पेड़ के नीचे एक केला पड़ा मिला। शायद ऊपर वाले ने यही संजो रखा था आज के लिए।
भटकते-भटकते शाम हो गई। सोता शहर जैसे दोबारा सोने को है। मैंने भी फ़िर एक गली के नुक्कड़ का एक कोना ढूँढ लिया। फ़िर अपना बड़ा थैला नीचे गेरा और पसर गया।
सिपाही की बात अब भी गुंज रही है - “जा अपने ठिकाने पर”।
काश मेरा भी कोई घर होता, बच्चे होते, परिवार होता। मेरी भी कोई ज़िम्मेदारियाँ होती। फ़िर सहेजता अपने आप को, सम्भालता अपने अपनों को और सो जाता सिहरन में अपने घर की चारदीवारियों के बीच... अपनों के बीच...
©आशीष मिश्रा