Pawanesh Thakurathi

Inspirational

5.0  

Pawanesh Thakurathi

Inspirational

भीतर की आंखें

भीतर की आंखें

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"अंधी साली ! काम की न काज की दुश्मन अनाज की। खाली बोझ है मेरी जिंदगी पर। मर क्यों नहीं जाती रे..." ऐसा कहकर शराबी पिता ने नैना के गाल पर दो थप्पड़ जड़े। डरी-सहमी बारह वर्षीय वह अबोध बालिका हाथों के सहारे से चारपाई के नीचे जा छिपी।

 

नैना जब पैदा हुई तो पिता ने अपनी किस्मत को कोसा। माँ ने भी खुद को बदकिस्मत बताया। अम्मा-अब्बू ने कहा- "बजर पड़ जाये इस किस्मत के ख्वर ( सिर ) में।"


माता- पिता की ख्वाहिश थी कि एक बेटा जरूर पैदा हो। आखिर कोई तो हो, जो उनके बुढ़ापे का सहारा बन सके। इसी ख्वाहिश को पूरा करने की कोशिश में दलीप राम और हरूली देवी की लगातार पांच बेटियाँ पैदा हो गयीं। दोनों को पक्का भरोसा था कि इस बार जरूर बेटा पैदा होगा लेकिन भाग्य पर आज तक किसी का वश चला है! छठे नंबर में भी बेटी ही हुई। भूरी-भूरी खूबसूरत आंखों के कारण नाम रखा गया नैना, लेकिन जब नैना तीन साल की हुई तब नैना के माता-पिता को पता चला कि उसकी आँखों में कुछ प्राब्लम है। वे उसे गाँव के अस्पताल ले गये। डाक्टर ने कहा कि उसकी आँखों की रोशनी जा चुकी है। यह सुनकर माता-पिता को गहरा दुःख पहुंचा। 

     

नैना के पिता खेती-मजदूरी करके परिवार का भरण-पोषण करते थे। बेटा ना होने के दुख के कारण उन्होंने पहले से ज्यादा शराब पीनी शुरू कर दी थी। शराब पहाड़ के लोगों के लिए उतनी ही जरूरी है, जितनी जरूरी किसी खांसी के मरीज के लिए होती है सिरप। शाम ढलते ही पहाड़ के लोग पहुँच जाते हैं किसी देशी-विदेशी शराब की दुकान पर या फिर अवैध रूप से बन रही किसी कच्ची शराब के अड्डे पर। पहाड़ी लोगों की इसी प्रवृत्ति पर एक कहावत भी खासा चलन में है-सूरज अस्त, पहाड़ी मस्त।

     

नैना के पिता भी शाम ढलते ही मदिरा के नशे में धुत हो जाया करते थे। जब वह नशे में धुत होकर घर लौटते तो घरवाली और बेटियों को अनाप-शनाप गाली बकते और उनके साथ मारपीट करते। पिता की इसी आदत से तंग आकर उनकी दूसरे नंबर की बेटी रीता पड़ोसी गाँव के एक लड़के के साथ दिल्ली भाग गई। तब वह ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती थी। तब से आज तक वह वापस नहीं लौटी। नैना की सबसे बड़ी दीदी का नाम गीता था। उसकी शादी हो चुकी थी। तीसरे नंबर की सीता थी। वह गाँव के इंटर कालेज में दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। चौथे नंबर की अनीता थी, जिसका दो साल पहले निधन हो गया था। वह अपनी माँ के साथ घास काट रही थी, लेकिन दुर्भाग्य से उसका पैर फिसल पड़ा। सिर में चोट लगने के कारण वह बच नहीं पाई। 

       

पांचवे नंबर की मैना थी। वह भी गाँव के इंटर कालेज में आठवीं कक्षा में पढ़ती थी, जबकि सबसे छोटी नैना इंटर कॉलेज में ही सातवीं कक्षा की छात्रा थी। सीता, मैना और नैना तीनों साथ ही कालेज जाती थीं। तीनों बहनों में अच्छा प्रेम था। नैना देख नहीं पाती थी, इसीलिए मैना हाथ पकड़कर उसे कालेज ले जाती थी।

      

बसंत ऋतु का मौसम था। नैना और मैना दोनों छुट्टी के बाद वापस घर को लौट रही थीं। कुहू-कुहू की मधुर आवाज सुनकर नैना ने कहा- "दी, ये चिड़िया कितना अच्छा गाती है ना! जितनी अच्छी इसकी आवाज है उतनी ही अच्छी यह दिखती भी होगी, है ना !"


मैना ने कहा- "बैनी, ये कोयल है। गाती मीठा है, लेकिन दिखने में काली होती है।" 


"अच्छा ! मैं दिखने में कैसी हूँ ?" नैना ने पूछा। 


" तुम सुंदर हो।"


"नहीं। तुम झूठ बोल रही हो। पिताजी तो हमसे नाराज रहते हैं। कहते हैं अंधी, काली-कलूटी...।"


"पिताजी दुखी रहते हैं क्योंकि उनका कोई बेटा नहीं है ना !"


"अच्छा, क्या मैं उनका बेटा नहीं बन सकती ?"


"पागल ! तुम कैसे बनोगी ? तुम तो लड़की हो !"


"लड़के क्या करते हैं ? पैसा कमाते हैं। मैं भी बड़ी होकर पैसे कमाऊंगी।"


"तुम कैसे पैसे कमाओगी ? तुम तो देख नहीं सकती।"


"हाँ मैं देख नहीं सकती, लेकिन मैं मेहनत करूंगी। पढ़ूगी- लिखूंगी और वो सब करूंगी, जो एक बेटा अपने मम्मी-पापा के लिए करता है। मैं बोझ नहीं बनूंगी किसी पर।"


"अच्छा !"


"हाँ। और तू मेरी मदद करेगी ना ?"


"हाँ, जरूर करूंगी।"

    

यूँ ही बातचीत करते-करते दोनों बहनें अपने घर की ओर चल दीं।

        

वैसे तो पहले से सीता और मैना दोनों बहनें नैना को पढ़ाती थीं, लेकिन अब मैना नैना को और अधिक समय देने लगी। नैना पूछती और मैना उसका उत्तर बताती। जब मैना को याद हो जाता तब नैना मैना से सवाल पूछती। इस तरह दोनों पाठ याद करते। नैना लिखने का भी खूब अभ्यास करती। इस तरह दोनों बहनें तमाम चुनौतियों से जूझते हुए जीवन की राह को सुगम बनाने की कोशिश कर रहीं थीं। 

       

एक दिन नैना और मैना दोनों अपने आंगन में खेल रहीं थीं। सहसा मैना के मुंह से निकल पड़ा- "आहा... कितना सुंदर फूल है !"


वह नैना का हाथ पकड़कर ले जाने लगी-"चलो नैना, तुम्हें दिखाती हूँ।"


नैना गुलाब की पंखुड़ियों को छूने लगी- "आहा.. बहुत सुंदर फूल है और कोमल भी। गुलाब है ना दी ये ?"


"हाँ.. पहचान लिया तुमने !" मैना ने आश्चर्य प्रकट किया। 


"दुनिया में और भी बहुत-सी सुंदर चीजें होंगी ना !" नैना ने जिज्ञासा व्यक्त की। 


"हाँ। नदियाँ, पहाड़, फूल, झरने, पशु-पक्षी, तितलियाँ, खेत बहुत सारी सुंदर चीजें हैं। मुझे बुरा लगता है जब मैं सोचती हूँ कि तुम इन्हें नहीं देख पाओगी।"


"तुमने मुझे बताया है इन सबके बारे में। मैं इन्हें देखने की कोशिश करती हूँ भीतर की आंखों से।"


"भीतर की आंखों से...! लेकिन मैं तो नहीं देख पाती भीतर की आंखों से।"


"तुम बाहर की आंखों से देखती हो ना इसलिए।"


"अच्छा !" मैना सोच रही थी आखिर भीतर की आंखें कैसी होती होंगी और उनसे कैसे देखते होंगे ?

   

समय गुजरता गया। मैना ने हाईस्कूल की परीक्षा पास कर ली थी। वहीं नैना नौवीं पास करके दसवीं कक्षा में जा चुकी थी। इसी बीच बारहवीं पास करते ही सीता का विवाह भी कर दिया गया, क्योंकि नैना के माता-पिता का मानना था कि बेटियाँ पराये घर की अमानत होती हैं। उनका जल्द-से-जल्द ब्याह कर देना चाहिए। वो तो मैना के लिए भी लड़का खोजने लगे थे, लेकिन उम्र में अधिक छोटी होने के कारण कोई लड़का उससे ब्याह करने के लिए राजी न होता था। इधर मैना का मन बिल्कुल भी ब्याह करने का नहीं था। 

       

नैना और मैना दोनों पढ़-लिखकर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थीं। नैना लगातार परिश्रम कर रही थी। उसके मन में हिंदी के अध्यापक का बताया एक ही दोहा दिन-रात गूंजा करता था-


"करत-करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान। 

रस्सी आवत-जावत ते, सिल पर पड़त निशान।"

       

पहले नैना कापी में शब्द ऊपर-नीचे लिख देती थी, लेकिन अभ्यास का परिणाम यह हुआ कि वह अब सीध में लिखने लगी थी। कालेज में भी कक्षा में बैठकर वह कुछ-न-कुछ लिखती रहती। कविता लिखने का उसे बहुत शौक था। उसकी लगन ने कालेज के अध्यापकों को भी आश्चर्य में डाल दिया था। कालेज में आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह के दिन जब उसने अपनी स्वरचित कविता 'मन की आंखें' सुनाई तो सब भावविभोर हो उठे-


"पंख नहीं हैं फिर भी उड़ूंगी

साहस के पांखों से।

चक्षु नहीं हैं फिर भी देखूंगी

मन की आंखों से...।"

       

हाईस्कूल की परीक्षा में नैना प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई। नैना की दीदी, सहपाठी, शिक्षक सभी खुश थे, लेकिन नैना के पिता अब भी यही कहते थे- "फस्ट आ गई तो क्या हुआ ! कौन-सा घर संभाल रही है। जब तक इसका ब्या नी हो जाने वाला ठैरा तब तक मुझे चैन कैसे मिलने वाला ठैरा। अंधी को कौन ले जाने वाला ठैरा अपने घर। अपनी सारी घर-कुड़ी, जमीन-जैजाद बेचकर भी दैज नी चुका पाऊंगा मैं..।"

यह सुनकर नैना की इजा ( माँ ) कहती- "छि हाड़ि मर्दो ! टेंशन झन ( मत ) लो। जतुक ( जितना ) होगा, उतना देने की कोशिश करेंगे। टेंशन लेकर क्या मिलेगा ! वैसे भी हमारे पहाड़ में दैज का उतना रिवाज नी है जितना पलेन्स में। गरीबी में आधा पैसा तो तुमने शराब पी-पीकर सक ( खत्म कर ) दिया।" इजा-बौज्यू की ऐसी बातें सुनकर नैना कहती- "इजा, मैं ब्याह नहीं करूंगी। पढ़-लिखकर नौकरी करूंगी और आत्मनिर्भर बनूंगी।"

         

नैना के पिता ने शराब पीना तो नहीं छोड़ा, लेकिन बेटियों के बड़ी होने के कारण मारपीट करना छोड़ दिया था। उनके दिमाग में सिर्फ एक ही बात थी कि किसी तरह दोनों चेलियों का ब्याह कर देना है। ऐसा करते ही उनका जीवन सफल हो जायेगा।

        

दीदी के द्वितीय श्रेणी से इंटर पास करने के अगले ही वर्ष नैना ने भी इंटर पास कर लिया। इंटर भी नैना प्रथम श्रेणी से पास हुई थी। अब मैना को पक्का यकीन हो गया था कि उसकी छोटी बहन एक दिन जरूर माता-पिता और गांव का नाम रोशन करेगी।

        

इंटर करने के बाद माता-पिता के मना करने के बावजूद मैना ने शहर के डिग्री कालेज में बी.ए. की कक्षा में दाखिला ले लिया था। वह अब बी.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा थी। नैना के इंटर पास करते ही वह उसे भी अपने साथ शहर ले आई। नैना का उसने कालेज के संगीत विभाग में दाखिला करा दिया था। वह अब मन लगाकर संगीत की शिक्षा ग्रहण करने लगी थी। मैना नैना का हाथ पकड़कर उसे वाहनों और भीड़-भाड़ से बचाती हुई कालेज ले जाती और कालेज से कमरे तक वापस लाती। उसके लिए बाजार से कपड़े खरीदकर लाती। खाना बनाकर खिलाती। मैना बड़ी बहन होने का पूरा फर्ज निभा रही थी और नैना भी दीदी की उम्मीदों पर खरी उतर रही थी।  

       

एस. सी. वर्ग से होने के कारण मैना और नैना को कालेज से स्कालरशिप भी मिलती थी। दोनों बहनें स्कालरशिप का उपयोग किताबें खरीदने और जरूरत की चीजों पर खर्च करती थीं। जिस माह पिताजी रूपये नहीं भेज पाते थे, उस माह दोनों स्कालरशिप के पैसों से ही काम चलाते थे। इस तरह दोनों बहनों ने संघर्ष करते हुए अपनी-अपनी शिक्षा पूरी की। मैना के एम.ए. फाइनल के इक्जाम देने के दौरान ही उसका चयन डी.एल.एड के प्रशिक्षण हेतु हो गया था। वह अब कालेज के समीप स्थित डायट से ही डी.एल.एड. का प्रशिक्षण ले रही थी। उधर नैना ने भी संगीत से मास्टर डिग्री प्राप्त कर ली थी। यद्यपि उसका सपना नेट उत्तीर्ण कर डिग्री कालेज में संगीत का प्रोफेसर बनना था, तथापि उसने गिटार वादन का प्रशिक्षण भी ले लिया था। 

 

एक दिन मैना कमरे में अपनी नजर किताबों पर गड़ाये हुए थी, उसी समय नैना ने उससे कहा- "दीदी, अगर तुम सहयोग नहीं करती तो मैं अपनी शिक्षा कभी पूरी नहीं कर पाती। तुमने मेरी बाहरी आंख बनकर हमेशा मुझे राह दिखाई।"


मैना ने कहा- "अरे पगली, एक बहन दूसरी बहन का सहयोग नहीं करेगी तो और कौन करेगा। भले ही मैं तेरी बाहर की आंख बनी, लेकिन भीतर की आंखें तो तेरी ही थीं। तेरे जज्बे और जुनून ने मुझे भी पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। सच कहूं तो हम दोनों ने एक-दूसरे की मदद की और आगे भी करते रहेंगे।"


"लेकिन दी, जब तेरी जॉब लग जायेगी तो फिर मैं कैसे रहूंगी..?" नैना ने अपनी समस्या रखी। 


"अरे पगली, टेंशन ना ले। जॉब लग जायेगी तो मैं तेरे लिए ऐसी बाहरी आंखों की व्यवस्था कर जाऊंगी, जो हर समय तुझ पर ही टिकी रहेंगी।" मैना ने कहा। 

    

दीदी का इशारा समझकर नैना शरमा गई और उसके होंठों पर गुलाबी मुस्कान तैरने लगी। 

         

वक्त बीतता गया। आज मैना गाँव के प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका है। उसकी शादी भी हो चुकी है और उसका पति भी गाँव के ही इंटर कॉलेज में एल. टी. शिक्षक है। नैना भी डिग्री कालेज में संगीत की असिस्टेंट प्रोफेसर है। उसे उसकी बाहरी आंखें भी मिल चुकी हैं। उसे डिग्री कालेज तक छोड़ने और वहाँ से वापिस लाने का कार्य भी वे ही आंखें करती हैं। नैना को यद्यपि बाहरी आंखें मिल चुकी हैं, लेकिन फिर भी उसका मानना है कि मनुष्य को अपनी भीतर की आंखों को कभी धुंधला नहीं होने देना चाहिए क्योंकि मनुष्य को उजाले की दिशा में यही आंखें ले चलती हैं। 

         

नैना की ख्याति शिक्षिका के अलावा एक गिटार वादक के रूप में भी है। आज शहर के शरदोत्सव में उसका कार्यक्रम चल रहा है। नैना के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण टी.वी. पर भी हो रहा है। उधर गाँव में नैना के माता-पिता टी.वी. में नैना का कार्यक्रम देख रहे हैं। नैना गिटार बजाती हुई गीत गा रही है- 

"भक्ति हो सच्ची तो हरि नाम मिल जाता है

अगर हौसले हों तो हर मुकाम मिल जाता है....।"

        

गीत सुनकर नैना के माता-पिता भावविभोर हो उठते हैं। नैना के पिता के बाहर की आंखों के साथ-साथ भीतर की आंखों से भी आंसुओं के मोती छलकने लगते हैं। 


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