भारत की बेजोड़ विभूति
भारत की बेजोड़ विभूति
टीवी और इंटरनेट न होने के बावजूद घर-घर में अपनी चित्रकला से मशहूर, अपार लोकप्रिय व्यक्ति थे रवि वर्मा। उन्हें एक तरफ इतनी लोकप्रियता मिली तो दूसरी ओर बदनामी और विवाद भी झेलने पड़े। लेकिन उन्होंने चित्रकारी में कई ऐसे प्रयोग किए जो भारत में तब तक किसी ने नहीं किए थे।
आज घर-घर में देवी-देवताओं की तस्वीरें आम हैं,लेकिन अब से करीब सवा सौ साल पहले ये देवी-देवता केवल मंदिरों में मूर्ति रूप में विराजमान थे। वहां सबको जाने की इजाज़त भी नहीं थी। जात-पात का भी भेद होता था। घर में भी यदि वे होते तो मूर्तियों के रूप में। जो देवी-देवता आज तस्वीरों, कैलेंडरों और पुस्तकों में दिखते हैं, वे असल में राजा रवि वर्मा की कल्पनाशीलता की देन हैं।
राजा रवि वर्मा का जन्म केरल के किलिमानूर में हुआ था। उनके चाचा भी कुशल चित्रकार थे, कहते हैं कि चाचा से ही उन्हें पेंटिंग का चस्का लगा। रवि वर्मा करीब 14 साल के थे तब उनके चाचा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें त्रावणकोर के राजमहल पेटिंग सिखाने ले गए। उस समय त्रावणकोर महाराज के दरबार में वाटर पेंटिंग के महारथी रामास्वामी नायडू से उन्होंने चित्रकारी के गुर सीखे। जल्द ही रवि वर्मा वाटर पेंटिंग के उस्ताद बन गए।
उन्हें दुनिया में ख्याति मिली अपने तैल चित्रों से। उनके आलोचक भी मानते हैं कि उनके जैसी ऑयल पेंटिंग बनाने वाला दूसरा चित्रकार इस देश में आज तक नहीं हुआ। राजा रवि वर्मा ने पोट्रेट कला को
थियोडोर जेनसन से सीखा। पोर्ट्रेट यानी प्रतिकृति किसी को सामने बिठा कर या उसकी फोटो देखकर बनाई जाती थी। उनके इस हुनर की लोकप्रियता ऐसी थी कि उस समय के तमाम राजा-महाराजा रवि वर्मा से अपना पोर्ट्रेट बनवाने के लिए लाइन लगाए रहते थे। कहते हैं राजा साहब इसके लिए तगड़ी फीस वसूलते थे जो आज के लिहाज से करोड़ों के बराबर थी। महाराणा प्रताप का बनाया पोर्ट्रेट रवि वर्मा के हुनर का बेमिसााल नमूना माना जाता है। जानकार उनके बनाए बड़ौदा के महाराज और महारानी के पोर्ट्रेट को भी लाजवाब मानते हैं।
अपना प्रशिक्षण पूरा करने के बाद रवि वर्मा महीनों तक इधर से उधर घूमते रहे और भारत की आत्मा को समझने की कोशिश करते रहे। काफी घूमने के बाद उन्होंने फैसला लिया कि वे पौराणिक कथाओं और उनके पात्रों के जीवन को अपने कैनवस पर उतारेंगे।
उन्होंने देवी-देवताओं को आम इंसान जैसा दिखाया। आज हम फोटो, पोस्टर, कैलेंडर आदि में सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, राधा या कृष्ण की जो तस्वीरें देखते हैं वे ज्यादातर राजा रवि वर्मा की कल्पनाशक्ति की ही उपज हैं। उनके सबसे मशहूर चित्रों में ‘सरस्वती’ और ‘लक्ष्मी’ के चित्र घर-घर में पूजे जा रहे हैं। उनके कई चित्र बड़ौदा के लक्ष्मी विलास पैलेस में आज तक सुरक्षित हैं।
उन दिनों रवि वर्मा के तैल चित्रों की बहुत मांग थी। इन चित्रों को आमजन तक पहुंचाने के लिए उन्हें प्रेस खोलना पड़ा। उन्होंने 1894 में विदेश से कलर लिथोग्राफिक प्रेस खरीद कर मुम्बई में लगाई और अपने चित्रों की नकल बनाकर बेचना शुरू किया। इस कारोबार में उन्हें ज़्यादा मुनाफा नहीं हुआ लेकिन आमजन तक देवी-देवताओं की पहुंच हो गई।
रवि वर्मा 2 अक्टूबर, 1906 को दुनिया से चल बसे।
कई आलोचकों का मानना है कि राजा रवि वर्मा ने धर्म का सहारा लेकर अपनी कला चमकायी। बहरहाल, यह तो सब मानते हैं कि भारत में उनके जितना लोकप्रिय दूसरा चित्रकार अब तक नहीं हुआ।
राजा रवि वर्मा को 56 साल की उम्र में 1904 में तब देश का शीर्ष सम्मान ‘केसर-ए-हिंद’ दिया गया था। यह सम्मान आज के भारत-रत्न की तरह माना जाता था।
यह सम्मान पाने वाले राजा रवि वर्मा पहले कलाकार थे। उनके हुनर की कद्र करते हुए ही उन्हें तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने ‘राजा’ की उपाधि दी।