Ravi Ranjan Goswami

Drama Inspirational

1.3  

Ravi Ranjan Goswami

Drama Inspirational

बेवकूफ

बेवकूफ

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राकेश के पिता अवधेश मिश्र बड़े सरकारी अधिकारी रह चुके थे। किन्तु ईमानदार थे अतः जब राकेश बड़ा होकर नौकरी या काम धंधे लायक हुआ तो उन्होंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। जबकि उनके ही समकक्ष रहे वर्मा जी और चौबे जी ने अपने प्रभाव से अपने बच्चों को नौकरियां दिला दी थी और वे एेश से जी रहे थे।


राकेश पढ़ने लिखने में ठीक था। उसने प्रथम श्रेणी में स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। उच्च शिक्षा में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। अतः उसने नौकरी के लिए आवेदन करना प्रारम्भ कर दिया था। उसने कुछ परीक्षायें भी पास की और साक्षात्कार के लिये आमंत्रित भी किया गया। उसे कभी समझ में नहीं आया वह साक्षात्कार में क्यों उत्तीर्ण नहीं हुआ। दो चार साल यूं ही निकल गये।


एक दिन उसके मित्र राजेश ने कहा, “तुम अपने पिता से सिफ़ारिश क्यों नहीं करवाते? अभी तक तो तुम्हारी नौकरी लग चुकी होती?”


राकेश ने कहा, “नहीं यार, ये संभव नहीं है।”


राजेश ने पूछा, “क्यों?”


राकेश ने बताया, “पापा थोड़े अलग स्वभाव के है। सिफ़ारिश के वो सख्त खिलाफ है।”


होते होते दो वर्ष और बीत गये। राकेश अब भी बेरोजगार था। उसे किसी से कोई शिकायत न होती अगर वर्मा जी उसके पड़ोसी न होते और सोनू उसके साथ न पढ़ा होता। सोनू उससे पढ़ाई-लिखाई में पीछे था और बड़ी मुश्किल से उसने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वही सोनू महानगर निगम में अधिकारी बना बैठा था। लोगों का कहना था पैसे और सही संपर्क से बहुत कुछ संभव है।


आखिरकार राकेश की मेहनत रंग लायी और उसे नगर महानिगम में सफाई पर्यवेक्षक की नौकरी मिल गयी।

राकेश ने पिता को ये समाचार दिया और पूछा, “आप की क्या राय है?”

अवधेश मिश्र बोले, “तुम्हे नौकरी पकड़ लेनी चाहिये।”

राकेश ने पूछा, “इससे आपके स्टेटस पर तो असर नहीं पड़ेगा?”

अवधेश मिश्र ने जवाब दिया, “अगर ऐसा होता तो मैं तुम्हारी सोर्स सिफ़ारिश से पहले ही नौकरी लगवा चुका होता।”


संयोग से राकेश की नियुक्ति ऐसी हुई कि उसको सोनू वर्मा के कनिष्ठ के रूप में काम करना था। राकेश को कुछ अजीब लगा। पर शीघ्र ही उसने अपनी भावनाओं पे काबू पाया और शिष्टाचारवश सोनू वर्मा से मिलने उसके कमरे में चला गया।

उसे देखकर सोनू वर्मा ने कहा, “आओ राकेश बैठो। आखिरकार तुमने नौकरी करने का फैसला कर लिया। अच्छा किया। नौकरी छोटी ही सही खाली यहाँ वहाँ घूमने से तो अच्छी है।”


राकेश ने कहा, “आप ठीक कहते हैं।”

सोनू वर्मा ने थोड़ा संकोच दिखाते हुए कहा, “राकेश बुरा मत मानना। मुझसे किसी फ़ेवर की उम्मीद न करना। कम से कम साल छह माह।”

राकेश को ये अजीब लगा क्योंकि ये बात तो उसने कल्पना में भी नहीं सोची थी।


इसके बाद राकेश मन लगा के अपनी नौकरी करने लगा। वह अपने काम से काम रखता था। उसके पिता को जानने वाले कुछ लोग उससे सुहानुभूति जताते। वे कहते थे, “मिश्रजी थोड़े व्यावहारिक होते तो बात ही कुछ और होती।”


कुछ महीने बाद सोनू वर्मा ने एक दिन राकेश को बुलवाया। राकेश उसके कमरे में पहुंचा तो सोनू वर्मा ने उसे बैठने को कहा। राकेश बैठ गया। सोनू वर्मा अपनी कुर्सी से उठा और कमरे में ही कुछ कदम चहल कदमी करने के बाद वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया।


फिर उसने अपनी बात कहना प्रारम्भ की, “राकेश बुरा मत मानना। परिचय अपनी जगह है नौकरी की व्यावहारिकता अपनी जगह।”

राकेश ने कहा, “मैं आपको किसी उलझन में नहीं डालूँगा।”

सोनू वर्मा ने कहा, “सब लोगों के लिफाफे समय से मिल जाते है। इतने महीनों में तुम्हारी तरफ से कुछ नहीं आया। मैं तुमसे ये नहीं पूछता, किन्तु मुझे भी किसी को देना पड़ता है।”


राकेश बोला, “सर मैं न लिफाफे लेता हूँ न देता हूँ। मुझे माफ करें।”

सोनू के चेहरे पर खीज उतर आयी और उसके बोलने का अंदाज बदल गया।


उसने चिड़ कर कहा, “तो तुम भी अपने बाप की तरह बेवकूफ रहोगे।”

यह सुनकर राजेश का खून खौल उठा। वह उठ खड़ा हुआ सोनू के करीब जाकर उसका गिरेवान पकड़ लिया और दाँत मींज कर धीमे किन्तु कड़े शब्दों में कहा, “खबरदार जो मेरे पिता के बारे में उल्टा सीधा कुछ बका। तू कैसे नकल करके पास हुआ और कैसे सोर्स सिफ़ारिश की बदौलत अफसर बना बैठा। तेरी अफ़सरी दो मिनट में निकाल दूंगा।”

सोनू राकेश के इस अप्रत्याशित उग्र व्यवहार से सकते में था उसे कुछ नहीं सूझा और वह चुप रहा।


अपनी बात खत्म करके राकेश ने एक झटका देकर उसका गिरेवान छोड़ दिया और तेजी से कमरे के बाहर निकल गया।

सोनू भौंचक्का कुर्सी पर अपना गला सहलाता हुआ काफी देर तक बैठा रहा।

थोड़े दिनों बाद राकेश का दूसरी जगह स्थानांतरण कर दिया गया। जहां उसका सोनू से सामना न हो।


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