बेटा बड़ा हो गया
बेटा बड़ा हो गया


रोज की तरह सुबह हुई। सूर्य पूरब में ही निकला था। मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी।
फर्क बस इतना था कि इकलौता बेटा घर आया था। बेटा नोएडा में रहकर एक आई टी कंपनी में जॉब करता था। वो जब भी घर आता तो मन उल्लास से भर जाता। लगता जैसे वही जीने की वजह हो। पंद्रह दिन का सूना घर ख़ुशियों से भर जाता। उसका पापा कहना दिल को छू जाता, जैसे आज भी वो नन्हा बालक ही हो। माँ के साथ उसकी शरारतें अब भी कम नहीं हुई थीं। माँ जब भी उसे डाँटती तो वो हँस देता। लगता नहीं कि वो बड़ा हो गया है।
वह दोपहर बाद वह बाजार गया और लौटकर मेरी तरफ एक गिफ्ट पैक बढ़ाते हुए बोला, पापा हैप्पी फादर्स डे।
मैं गिफ्ट हाथ में लेकर बीस साल पीछे पहुंच गया….।
मुझे याद है वो दिन जब मैं आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। तीन बरस का रहा होगा। मैं ट्यूशन पढ़ाया करता था। जब मैं पढ़ाने बैठता तो वह आकर मेरी गोद में बैठ जाता और कहता पापा पहले मुझे पढ़ाओ। उसकी हरकतों को देखकर सभी हैरान रह जाते।
वह दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देखता तो खुद भी स्कूल जाने की ज़िद करता। जिस उम्र में बच्चे का स्कूल में एडमिशन नहीं हो सकता था उस उम्र में वह स्कूल जाने के लिए रोने लगता। उसकी ज़िद के कारण पास के एक स्कूल में बिना नाम लिखाये ही भेजना पड़ा।
स्कूल भेजने लायक हुआ तो उसका एडमिशन भी करवा दिया। अक्सर ऐसा होता है कि स्कूल जाने वाले बच्चे कोई न कोई छुट्टी का बहाना ढूंढते हैं। लेकिन ये क्या वो तो रविवार को भी स्कूल के लिए तैयार हो गया। जब उसको बताया कि आज स्कूल की छुट्टी है तो रोने लगा कि नहीं मैं तो स्कूल जाऊँगा। बहुत समझाया लेकिन वह नहीं माना। आखिरकार उसे स्कूल लेकर जाना पड़ा।
स्कूल का गेट बन्द था। तब उसको समझ आया कि स्कूल की छुट्टी है।
एक बार उसको बुखार हो गया। हमने उससे कहा कि आज स्कूल मत जाना कल चले जाना। बस उसने रोना शुरू कर दिया। मैं तो स्कूल जाऊँगा। बहुत समझाया लेकिन नहीं माना।
मैं उसे लेकर स्कूल पहुँचा। स्कूल के प्रिंसिपल गेट पर ही मिल गए। उनको पता चला कि बेटे को बुखार है तो वो कहने लगे फिर क्यों लाये हो आप इसे। घर पर ही रखना चाहिए था।
मैंने गेंद उन्ही के पाले में डाल दी। मैंने कहा कि यदि आप इसे वापस भेज दो तो मैं ले जाऊँगा।
प्रिंसिपल साहब ने बहुत समझाया कि बेटा तुम्हारी तबियत खराब है घर जाओ। लेकिन उसने रोना शुरू कर दिया। मैं नहीं मैं तो क्लास में बैठूँगा और रोते हुए अपनी क्लास में चला गया। प्रिंसिपल साहब भी हैरान खड़े देखते रह गए। उन्होंने आग्रह किया कि आप यहीं रुको अगर तबियत बिगड़े तो आप इसे ले जाना। लेकिन वह छुट्टी से पहले घर नहीं गया।
उसने सभी का मन मोह लिया था। अड़ोस पड़ोस में सबका दुलारा बन गया। लेकिन वह कभी किसी के घर नहीं गया। या तो अपना होम वर्क करता या घर पर ही अकेला खेलता।
मुझे याद है एक बार उसकी माँ को रिश्तेदारी में जाना पड़ गया था तब भी वह स्कूल की वजह से अपनी माँ के साथ नहीं गया था।
उस दिन खाना मुझे बनाना पड़ गया। पहली बार खाना बनाया था। खुद मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने पूछा बेटा खाना कैसा बना है? तो उसने कहा था। अच्छा बना है। मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े यह देखकर कि जो खाना मुझे खुद अच्छा नहीं लग रहा उसे वह मेरा मन रखने के लिए अच्छा बता रहा है।
अगले दिन मैंने पड़ोस की महिला खाना बनाकर रख गयीं।
मैंने उसी दिन काम से छुट्टी ले ली और ट्रेन में रिजर्वेशन करवा लिया। ट्रेन रात में ग्यारह बजे थी। जाड़े के समय था। रात में ऑटो नहीं मिला तो
बेटा कहने लगा पापा पैदल ही चलो यहाँ कब तक खड़े रहेंगे। मैंने पूछा कि तू पैदल चल लेगा? तो उसने तपाक से कहा हाँ। मेरी भी मजबूरी थी। जाना तो था ही। हम चल दिये पैदल ही। वह छोटे छोटे कदमों से मेरे आगे आगे चलने लगा। कुछ दूर चलने के बाद एक ऑटो आ गया फिर हम उसमें बैठकर स्टेशन पहुंच गए।
जब वह अगली कक्षा में आया तो किताबें खरीदने बाजार गए।
दुकानदार ने किताबें निकाल दीं। उसकी दुकान पर अन्य बच्चे अपने पापा मम्मी से नई कॉपियों और नए बस्ते के लिए मचल रहे थे। मेरे बेटे ने कहा पापा अभी तो मेरी कॉपी खाली पड़ी हैं उनमें लिख लूंगा। दुकानदार भी मुँह देखता रह गया।
उसने साफ मना कर दिया मुझे नहीं चाहिए नई कॉपी।
जब उससे पूछा कि नया बस्ता लेना है तो उसने कहा था मेरे पास बस्ता है तो सही। वो अभी फटा नहीं है। जब फट जाएगा तब ले लूँगा।
जब उसके प्रिंसिपल साहब को बताया तो उन्होंने उसकी समझदारी की तारीफ करते हुए कहा कि उसने सही ही तो कहा था। क्यों फालतू खर्च करना।
घर में कंप्यूटर तो था ही। उसने छोटी उम्र में कंप्यूटर चलाना भी सिख लिया।
समय बीतता रहा।
जब यह इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर चुका तो समझदार हो चुका था। दूसरों का प्रभाव भी पड़ने लगा था। उसकी माँ का भी सपना था कि उसे आई आई टी में प्रवेश दिलाना है। जिसका खर्च करीब चार पांच लाख था। मेरी इतनी हैसियत नहीं थी। छोटी सी प्राइवेट नौकरी थी।
मैं चाहता था कि वो किसी सरकारी नौकरी में लग जाये ताकि पैसे की एक निश्चित आमदनी शुरू हो और वह अपनी पढ़ाई भी जारी रखे ताकि तरक्की हो। लेकिन उसने साफ कह दिया कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी।
मैं मन मारकर रह गया। क्योंकि प्राइवेट नौकरी से तो सिर्फ गुजारा ही हो सकता था। सपने पूरे नहीं हो सकते थे। मैं अच्छा मकान नहीं बनवा सकता था। मकान के लिए बैंक से लोन भी नहीं मिल सकता था। क्योंकि इनकम का कोई प्रूफ नहीं था।
मैंने अपनी हताशा उस पर जाहिर नहीं होने दी। लेकिन इतना जरूर कह दिया कि बेटा मेरे पास जो साधन है उसमें जो कर सके वो कर लेना।
बेटे ने खुशी से हामी भर दी।
कुछ दिनों बाद उसने कहा पापा तीन हजार रुपये तो दे देना। पूछने पर बताया कि एक प्रोग्रामिंग का कोर्स करना है।
अंधेरे में एक किरण दिखाई दी। मैंने सहर्ष तीन हजार रुपये दे दिए।
कोर्स करने के बाद उसी संस्थान ने उसे अपने यहां जॉब दे दिया।
वेतन के लिए मैंने उसको कह दिया कि उस पैसे से अपनी उन जरूरतों को पूरा करे जिनको मैं पूरा नहीं कर पा रहा था।
उसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
बहुत छोटी उम्र में उसने वो महारत हासिल की कि जिस काम को बी सी ए और बी टेक करने वाले नहीं कर पाते थे उन कामों को वो करने लगा।
एक बार जिस कोचिंग इंस्टीटूट में पैसे के अभाव में एडमिशन नहीं ले पाया था वहाँ से पढ़ाने का आफर आ गया।
आज वह मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब कर रहा है और उन सरकारी नौकरियों से ज्यादा वेतन पा रहा है जिनका मैं सपना देखा करता था। मेरा वेतन तो कुछ भी नहीं है उसके आगे। दिल खुश हो जाता है जब वो कहता है पापा अब आप भाग दौड़ बन्द कर दो। घर पर रहा करो। अपने घर का सपना भी उसी ने पूरा किया है।
उसकी माँ ने मुझे जैसे नींद से जगाया। क्या हुआ, कहाँ खो गए?
मेरी आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े।
पत्नी ने पूछा क्या हुआ? आँसू किस लिए?
आँसू पोंछते हुए सिर्फ यही कह पाया।
देखा? हमारा बेटा बड़ा हो गया है।