Medharthi Sharma

Comedy

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Medharthi Sharma

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खयाली पुलाव

खयाली पुलाव

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एक बार कुछ लोगों को खयाल आया कि कुछ अच्छा किया जाए। ये खयाल ही सबको अच्छा लगा। कुछ मक्खी चूस टाइप के लोगों ने सोचा कि जैसे तैसे तो चार पैसे जोड़े हैं कहीं ऐसा न हो कि ये लोग वो भी खर्च करवा दें। हम तो भिखारी हो जाएंगे। उन्होंने दिमाग दौड़ाया और सुपर आइडिया खोज कर लाये। हम गरीबों को पुलाव खिलाएंगे। 

अब जिसके मन में कुछ अच्छा करने का खयाल आया था उसे बेचैनी होने लगी कहीं ऐसा न हो कि सारा ठीकरा मेरे ही सिर पर फोड़ दिया जाए।

लेकिन एक खुराफ़ातिये के दिमाग में एक और खयाल आया गया। उसने उसकी डूबती नैया को सहारा दिया। अरे यार क्यों डरते हो। खयाली पुलाव ही तो है पकने दो।

उसने पूछा भैया ये खयाली पुलाव कैसे बनता है? कितना खर्च होता है?

उस खुराफ़ातिये ने समझाया खयाली पुलाव पकाने में तो यही होता है कि पहले हिसाब लगाएंगे की खाने वाले खाने को तैयार हैं या नहीं? 

फिर सोचेंगे कि पकाएगा कौन कौन? 

हलवाई कौन होगा।? 

पैसा कौन देगा?

हलवाई भी तलाश लिया। हलवाई से खर्चा पूछा तो हलवाई ने नया सवाल खड़ा कर दिया। ये तो बताओ खाने वाले कितने होंगे? फिर से चर्चा हुई कि ये पता लगाया जाए कि समाज में कौन कौन इतना गरीब है जिसके पास खाने को नहीं है। खयाली पुलाव पकाने में सब माहिर। हलवाई तो उनके आगे फेल। सब अपनी जगह चालाक। सबने यही कहा कि कोई खाने को तैयार नहीं है। सब ये चाहते हैं कि किसी को पता न चले कि हम भूखे हैं। अभी पूछा किसी से नहीं। अपने आप सोच लिया।

फिर किसी विद्वान ने एक और सलाह दे दी कि जब पुलाव पाक जाएगा तो खाने वाले भी ढूंढ लेंगे। बाकी चीजें तो तय कर लो। जब पुलाव पकेगा तो पार्श्व कौन संभालेगा। 

अब आपस में ये झगड़ा कि पार्श्व मैं संभालूंगा कि मैं संभालूंगा। क्योंकि पता है कि पुलाव पकेगा ही नहीं। वाहवाही तो लूट ही लें। 

अब बात उठी कि इतना बड़ा आयोजन करने जा रहे हैं तो कोई घपला न कर सके इसलिए पहले एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था बनाई जाए और संस्था रजिस्टर्ड होनी चाहिए। 

एक पुलाव पका नहीं दूसरा पुलाव बीच में आ गया। फिर वही हाल। संस्था बानी नहीं रजिस्ट्रेशन की कार्यवाही शुरू। वो भी खयालों में। लोगों से कहा गया कि पता लगाएं संस्था का रजिस्ट्रेशन कैसे और कहाँ होता है। 

अब तय हुआ कि जब तक संस्था का रजिस्ट्रेशन हो तब तक ये तय कर लें कि परोसेगा कौन कौन।

परोसने के लिए किसी के पास समय नहीं है।

इसलिए बात को भटकाने के लिए फिर से सवाल उठाया गया कि किस किस को खिलाया जाएगा, कितना खिलाया जाएगा और कैसे खिलाया जाएगा? 

इसी दौरान किसी ने पुलाव मांग लिया। भैया बहुत भूखा हूँ कोई कुछ खाने को दे दो। 

अब इस पर बहस शुरू। किसी ने कहा कि पहले जांच करनी चाहिए कि वो भूखा है भी या नहीं। किसी ने कहा हमारे समाज में कोई भूखा है ही नहीं ये कहां से पैदा हो गया? जरूर ये फ्रॉड है। 

अभी चावल हैं नहीं।

किसी ने पूछा कि हम जितने बड़े स्तर पर पुलाव बनाने की सोच रहे हैं उसके लिए जो चावल खरीदे जाएंगे। उसके लिए पैसा कहां से आएगा? 

तो निर्णय हुआ कि जो लोग ताज पहनेंगे वो 100 रुपये देंगे, जो बिल्ला लगाएंगे वो 50 रुपये देंगे, जो परोसने का काम करेंगे वो 25 रुपये देंगे और जो केवल लिस्ट में नाम लिखवाएंगे वो 10 रुपये देंगे और जो बुजुर्ग हैं या आय कम है वो 1 रुपया भी दे सकते हैं।

चावल कितने लगेंगे कहां से आएंगे? ये अभी तक पता नहीं।

इसी दौरान किसी ने अपना अंश दान देने की घोषणा कर दी। अब इसी बात पर सबका जायका खराब हो गया कि कोष बना नहीं, समिति का रजिस्ट्रेशन हुआ नहीं, संस्था का खाता भी नहीं खुला। ऐसे कैसे अंशदान दे दिया? उसकी इसी बात पर आलोचना कर दी गयी कि बहुत बड़ा दानी बनता है। किसी ने कहा भाई क्यों इतने उतावले हो रहे हो? पैसा ज्यादा है क्या? 

अभी चावलों का पता नहीं।

फिर बात को घुमाने में माहिर लोगों ने एक नया तुर्रा छोड़ दिया कि इतना बड़ा भगोना तो है नहीं। अब लोगों से अपील की गई कि जिसके पास इतना बड़ा भगोना हो उसकी तलाश की जाए। 

अभी तलाश चल ही रही थी कि किसी ने पुलाव का आयोजन वास्तव में कर दिया। 

अब जो अभी तक खयाली पुलाव को पकाने के ख्याल ही कर रहे थे उन लोगों ने सवाल करना शुरू कर दिया कि हिसाब दिया जाए कि कितने लोग आए थे? कितना चावल लगा था? रजिस्टर में खाने वालों के साइन कराए थे या नहीं? लोगों ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया कि जितने आदमी आये बताये जा रहे हैं उनकी संख्या ज्यादा बताई जा रही है।

चावल के बारे में अब भी नहीं पता।

इसी बीच किसी का ध्यान जाता है कि पुलाव पकेगा कैसे? बर्तन भी चाहिए, मसाले भी चाहिए, चमचे भी चाहिए, परोसने के लिए पत्तल भी चाहिए, इतनी बड़ी जगह भी चाहिए।

अब फिर नए सिरे से चर्चा शुरू।

इस दौरान कुछ लोग नाराज हो गए। कुछ नए भी आ गए। फिर से चर्चा शुरू कि कौन कौन जिम्मेदारी लेने को तैयार है?

कुछ लोगों को जिम्मेदारी भी दी गयी। अब जिस जिसको जिम्मेदारी दी गयी उसने रौब गाँठना शुरू कर दिया। देखो सब केवल पुलाव के बारे में बात करो अन्यथा समिति से चुपचाप निकल जाएं। नहीं तो निकाल दिए जाओगे।

सूत न कपास कोरिया से लट्ठम लट्ठा। 

अभी चावल हैं नहीं। जो चीज है नहीं उसकी समिति भी खयालों में बन गयी। कुछ लोग बिना समिति को रजिस्टर्ड करवाये पुलाव पकाने को तैयार नहीं थे।

फिर किसी ने याद दिलाया भाई ऐसा करो जिसको जरूरत हो उसे चावल दे दो, पुलाव वो खुद पका लेगा।

अब उसकी ये मजाल कि उसको समाज में इतने भूखे नजर आने लगे। किसी को कोई भूखा दिखाई नहीं दिया। सब भरे पेट डकार लेते नजर आए। अगर किसी ने खुद आगे आकर मांग लिया तो फ्रॉड है कहकर दरकिनार कर दिया।

किसी ने फिर बात को नई दिशा दी। भाई चावल तो अभी हैं नही तो पहले चावल तो ख़रीद लो। 

अब नई कवायद शुरू। देखो सस्ता या मुफ्त में चावल कहाँ मिलेगा?

फिर किसी ने सलाह दी कि क्यों न समाज के नाम पर खेत खरीद लिया जाए। उसमें ही चावल पैदा करेंगे और पुलाव पकाएंगे।

आइडिया अच्छा था पसंद आया। अब खेत की तलाश शुरू हो गयी।

जैसे तैसे कोई अपना खेत देने को तैयार हुआ।

अब एक नई समस्या। बड़ा काम करने में समस्या तो आती ही हैं। समस्या ये कि जिस खेत में धान बोया था उसे भैस खा गई।


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