बदलाव
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शुचि की मां ने उसकी बुआ को फोन करके कहा, “ बुआ जी! प्रणाम। आपको खुशी होगी कि शुचि का चयन फैशन डिज़ाइनिंग कोर्स के लिए हो गया है लेकिन इसे आपके शहर के कॉलेज में दाख़िला लेना है। हम चाहते हैं कि यह आपके संरक्षण में रहें।”
बुआ जी ने जवाब में कहा, “ ममता। यह बहुत अच्छी बात है। मेरा संरक्षण इसे अवश्य प्राप्त होगा लेकिन एक बात कहना चाहती हूं कि मेरी उम्र काफी हो गयी है। मैं अब बहुत काम नहीं कर सकती हूं। दोनों बच्चें भी विदेश में हैं। कभी कभी आते हैं। मैंने अपनी जीवन शैली को बदल लिया है। शुचि अवश्य आए मगर उसे अपने सारे काम स्वंय ही करने होंगे। मेरा साथ अवश्य रहेगा।”
शाम को ममता ने सारी बातें अपने पति रमेश को बतायीं तो उनका कहना था कि, “ शुचि ज़िद्दी है। इसे घर के काम आते नहीं है। नए जमाने की है। नए विचारों की है। उसका रहन सहन एकदम अलग है। पता नहीं अपनी बुआ के साथ एडजस्ट कर पाये या नहीं। साथ ही उनकी उम्र भी हो गयी है।”
ममता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “ बात तो ठीक है। हमें शुचि को हाॅस्टल में रख देना चाहिए। वहां पर अपने तरीके से रह लेगी। कोई एडजस्टमेंट की समस्या भी नहीं होगी। हाॅस्टल नहीं मिलेगा तो कहीं पेइंग गेस्ट बन जाएगी। हां संरक्षण बुआ जी का ही रहेगा।”
आखिर कार फैसला हुआ कि शुचि को हाॅस्टल में रखा जाए और बुआ जी का नाम संरक्षण के काॅलम में लिख दिया जाए। कभी कभी यह बुआ से मिल आया करेगी। इससे जनरेशन गैप की समस्या भी नहीं होगी।
दो दिनों के बाद रमेश और ममता ने देहरादून में शुचि का एडमिशन करवा दिया और उसे गर्ल्स हॉस्टल में एडजस्ट करवा दिया। इन कार्यों को पूरा करने के बाद सब बुआ जी से मिलने पहुंचे। उन्हें देखकर बुआ जी बहुत प्रसन्न हुईं और बोली, “यह शहर बहुत अच्छा है। यहां शुचि को कोई तकलीफ़ नहीं होगी। एकदम आधुनिकता से परिपूर्ण है।”
बातों ही बातों में रमेश ने बताया कि शुचि को गर्ल्स हॉस्टल में प्रवेश दिला दिया है। बीच-बीच में आपसे मिलने आती रहेगी। संरक्षण आपका ही रहेगा।
बुआ जी ने शुचि से कहा, “ शुचि तुम प्रत्येक रविवार को आती रहना। हम लोगों की जीवन शैली को देखना। तुम्हें अच्छा लगेगा।”
शुचि ने कहा, “ मैं अवश्य आऊंगी। आखिर आपके अलावा कौन है मेरा यहां।”
कुछ देर बाद ममता, रमेश और शुचि चले गए। रमेश को आज ही वापस लौटना था।
धीरे-धीरे शुचि देहरादून में एडजस्ट हो गयी। गर्ल्स हॉस्टल में उसका मन लग गया लेकिन वह बहुत कम मित्र बना पायी। शुचि का रहन सहन और विचार अलग किस्म के थे।
शुचि रविवार की सुबह तैयार होकर बुआ जी के यहां पहुंच गयी। बुआ जी ने शुचि को बैठाया और हाल चाल पूछे और बातों-बातों में पूछा कि देहरादून में कहां कहां घूम आयी। यहां तो बहुत सारी जगहें देखने लायक है। पास में ही मसूरी है। कभी घूम आना। अच्छा मैंने नाश्ता बनाया है, खा ले।”
बुआ जी का नाश्ता देखकर शुचि को आश्चर्य हुआ। केवल फलों का नाश्ता था। शुचि ने भी फलों का ही नाश्ता किया। नाश्ते के बाद बुआ जी अपने काम में लग गयी। इतने में कई लोग आ गए। वे सब बुआ जी को अपनी समस्याएं बताने लगे। बुआ जी उनकी समस्याओं का कोई न कोई समाधान बताती।
शुचि ने तय किया कि वह आगामी रविवार के दिन बुआ जी की जीवन शैली को गंभीरता से देखूंगी। शुचि ने नोटिस किया कि बुआ जी से मिलने आने वाले लोग गरीब हैं या सामान्य किस्म के व्यक्ति हैं। बुआ जी किसी को फ़ार्म दे रही है और किसी का फ़ार्म भर रही है। किसी को बैंक की जानकारी दे रही है तो किसी को सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी प्रदान कर रही हैं।
शुचि ने बुआ जी से पूछा, “ लोग आपके पास ही क्यों आते हैं। ये सब काम तो ऑफिस में भी हो सकते हैं।”
बुआ जी ने कहा,“ शुचि बिटिया। इन्हें ज्ञान नहीं है। ये साधारण लोग हैं। कम पढ़े लिखे हैं। गरीब भी है। मैं तो मात्र इन्हें बता रही हूं कि कैसे विभिन्न योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं। आज तो रविवार है, आॅफिस बन्द है। शेष दिनों में मैं इनके साथ जाकर काम भी करवाती हूं। मैं भी अकेली हूं। मेरे भी समय का सदुपयोग हो जाता है और किसी का भला हो जाता है।”
शुचि प्रत्येक रविवार और जब भी उसे अवकाश मिलता, वह देखने आती कि बुआ जी इन कार्यों को कैसे करती है। इन्हें कभी किसी प्रकार की उलझने भी नहीं होती है और न कभी गुस्सा आता है। एकदम शांत मन से काम करती है। प्रात:काल पड़ोस के लोगों को योगाभ्यास भी कराती है। पूरी दिनचर्या पूर्णतया निश्चित है। रात्रि में पुस्तक पढ़कर सोना। बुआ जी मुझसे हर विषय पर बात कर लेती है। कितनी नाॅलेज है इन्हें।
एक बार मैंने पूछा, “ बुआ जी आपको इतना ज्ञान कैसे है कि आप सब विषयों पर बातें कर लेती है।”
बुआ जी ने कहा, “यह अपनी अपनी रूचि की बात है। ज्ञान प्राप्ति में मुझे आनंद मिलता है। कभी कभी हम लोग आपस में मिलकर धार्मिक सत्संगो तथा गोष्ठियों का आयोजन भी कर लेते हैं। इससे आपस में मेल मिलाप और सदभाव बना रहता है वर्ना आजकल लोगों के पास एक दूसरे की बुराई करने के अलावा कोई काम नहीं है। लोग अपने में ही व्यस्त हैं। उनके पास समय नहीं है। समाज के बारे में क्या सोचेंगे। समाज में आपसी सम्बन्धों का टूटना इसी का नतीजा है।”
शुचि को लगा कि इनके विचार और कार्य एकदम अलग है। इनकी सोच कल्याण से प्रेरित है। इस उम्र में भी बुआ जी निरंतर कार्य करती रहती है और हम लोग अपने लिए ही जी रहे हैं। केवल अपना ही सोचते हैं। धीरे-धीरे शुचि के विचार बदलने लगे। उसे लगा कि वह बदलती जा रही है। बुआ जी की तरह उसने खादी पहननी शुरू कर दी। एक दिन जब वह खादी के सलवार-कमीज़ में बुआ के यहां आयी तो उन्होंने कहा, “ अरे! तू भी खादी पहनने लगी है। अच्छी बात है मगर एक बात कहूंगी कि तुम नयी पीढ़ी की हो। तुम्हें उस तरह से रहना चाहिए जैसे नयी पीढ़ी रहती हैं नहीं तो दुनिया की दौड़ में पिछड़ जाओगी।”
“ बुआ जी। पिछड़ने दो। आपसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। मात्र कुछ दिनों में। जब मैं यहां आयी थी तो केवल अपने बारे में सोचती थी लेकिन अब सबके बारे में सोचती हूं। कुछ तो परिवर्तन आना ही चाहिए। बस आपका आशीर्वाद चाहिए कि मैं भी अपना अंश दान समाज को दे पाऊँ। मुझे आपसे आइडिया चाहिए कि किस दिशा में अपने कदम बढ़ाऊ।”
बुआ जी, “ मैंने तो छोटे मोटे काम ही किये है। जितनी मेरी क्षमता है उतना ही कर पाती हूं। जो कर पाती हूं उससे मन को तसल्ली हो जाती है कि कुछ तो हुआ मेरा जीवन सार्थक। तुमको मेरी सलाह है कि तुम मनोविज्ञान का अध्ययन कर समाज में बढ़ते हुए टूटते रिश्तों पर काम करो। मैं अखबारों और पत्रिकाओं में रोज पढ़ती हूं कि समाज में रिश्तों का स्वरूप बदलता जा रहा है। एक अजीब किस्म की अलगाववाद की प्रवृत्तियां लोगों में जन्म लेती जा रही है। समाज के मूल्यों के मायने दिन प्रतिदिन नये रूप लेते जा रहे हैं। अब तुम ही देखो कि तलाक के मामलों में बढ़ोतरी होती जा रही हैं। सीधा अर्थ है कि पति-पत्नी के रिश्ते टूटते जा रहे हैं। विवाह नामक संस्था की उपादेयता कम होती जा रही है। विवाह के स्थान पर लिविंग इन रिलेशनशिप का विचार का अभ्युदय हुआ और अब यह सामाजिक नियम बन गया है।साथ ही इसे न्यायालय की स्वीकृति भी मिल चुकी है।
इसी प्रकार की समस्या से आज के वृद्ध जन भी ग्रसित है। पहले क्या कभी वृद्धाश्रम होते थे। आजकल रोज सुनने में आता है कि फलां फलां ने अपने मां बाप को वृद्धाश्रम पहुंचा दिया है। स्थिति इतनी दयनीय हो गयी है कि मां-बाप खुद ही वृद्धाश्रम तलाश रहे हैं ताकि सुकून की जिंदगी जी सके। यह टूटते रिश्तों का ही नतीजा है। आज व्यक्ति की धुरी केवल अपने हित के चारों ओर घूमती है। व्यक्ति अपने में ही व्यस्त है और किसी के लिए उसके पास समय नहीं है। बहुत मजबूरी में ही वह समय निकालता है और उसी में परेशान हो जाता है। किसी के विवाह समारोह या शवयात्रा में शामिल भी बड़े अनमने भाव से भागीदार बनता है। यह सब विचारणीय मुद्दे हैं शुचि। तुम इन सब पर काम करो कि कैसे इन रिश्तों को बचाया जाए और भारतीय प्राचीन परंपराओं को पुनर्जीवित किया जा सके।”
शुचि, “ आपने बहुत गजब की बात रखी। मैं इसी विषय पर कार्य करुंगी। आज से और अभी से। अपने लेखों और पोस्टरों के माध्यम से लोगों का ध्यान आकर्षित करूंगी।”
देहरादून में शुचि के शेष दिन बुआ जी से ज्ञान अर्जन और काम सीखने में व्यतीत होने लगे।प्रत्येक रविवार और अवकाश का वह पूरा उपयोग बुआ जी के साथ काम करने में करती। अब जहां भी उसे अवसर मिलता वह अपनी अपनी बात रखने का प्रयास करती। कांलेज की गोष्ठियों में अलग अलग टूटते हुए सामाजिक संबंधों पर विचार प्रस्तुत करती। धीरे धीरे उसे लोग जानने लगे। फलत:उसका एक ग्रुप बन गया जो उसकी इन मामलों में सहायता करने लगा था। इस प्रकार के कार्य करने वाली संस्थाओं से वह जुड़ गयी थी। अब उसका कार्य क्षेत्र न केवल बदल गया था बल्कि बढ़ भी गया था। अपना कोर्स पूरा होने पर उसने तय किया कि वह मनोविज्ञान का अध्ययन कर टूटते रिश्तों को बचाने का भरपूर प्रयत्न करेगी।
दो वर्ष बाद शुचि अपना कोर्स समाप्त के बाद लखनऊ पहुंची। एक सप्ताह के पश्चात् ममता ने शुचि से कहा, “ तू तो बहुत ही बदल गयी है। पुरानी शुचि कहां है जिसे हमने देहरादून भेजा था। तुझ में तो बहुत बदलाव आ गया है।”
शुचि ने कहा, “ यह बुआ जी के आशीर्वाद का परिणाम है। मां असली बदलाव तो मैं तब मानूगी जब अपने विचारों और कार्यों से समाज में टूटते रिश्तों को बचा पाऊं। देहरादून में भी मैंने इसी सम्बन्ध में काम किया था और अब इसी मुद्दे पर आगे भी काम करूंगी और लोगों को इसमें शामिल करके समाज में सुधार की कोशिश करूंगी। बस आवश्यकता है तो आप सभी के आशीर्वाद और सहयोग की।”