बड़ा होता बचपन
बड़ा होता बचपन
माँ ! कहाँ है। देख ! मेरे पास क्या है ?
पार्वती;चू ल्हे के सामने बैठी रोटी सेक रही थी। हाथ का काम छोड़ बेटे की ओर हाथ बढ़ाया। " क्या है रे ! दिखा तो .. "
गौरव ने पोलिथिन आगे बढ़ाया। पोलिथिन में अध खाए केक के टुकडे, थोङे से फैंच फ्राई, एक समोसा था। बेचारा बिन बाप का बच्चा। खाने को मिला केक भी घर उठा लाया। दस साल की इस उम्र में जब बाकी बच्चे खेल में मस्त रहते हैं, गौरव जिंदगी के जोड़ घटाव समझने लग गया। उसकी आँखों में छाए सवाल से बेखबर गौरव अपनी ही धुन में कहे जा रहा था- "तुझे पता है माँ ? आज न चिंकी का बर्डे था। मैंने ढेर सारे गुब्बारे फुलाए। कागज और गुब्बारे पूरे कमरे में सजाय़े। फिर सबने गाने गाए। फिर चिंकी ने केक कट किया। बहुत मस्ती की सबने। मैंने किचन से देखा सब ,साब ने दस रुपए और समोसा दिया।"
"तूने खाया नहीं।"
" न ! मैं बरतन साफ कर रहा था न। फिर बाद में खाता तो आने में देर हो जाती। ला अब दोनों खाएंगे।"
पार्वती ने अविश्वास से बेटे को देखा। इन दो तीन महीनों में ही बचपना कहीं पीछे छूट गया था।
उसके अंदर की आग से बेखबर बेटा मग्न हो केक खा रहा था।