बैंगनी ( रहस्य, आध्यात्मिकता)
बैंगनी ( रहस्य, आध्यात्मिकता)
मेरी माला देखो टूट गई रे ,
चल नाम जपन से छूट गई ये।
मेरी चुनरी देखो फट गई रे
चल लाज शर्म से छूट गई रे।
ढोलक की थाप पर यह भजन गाते हुए भावना जी की आवाज में एक गजब का आकर्षण था। सुनने वाले मदमस्त होकर नाचने लगते थे। ऐसा मानो भजन उनके कंठ से नहीं मन से निकल रहा था। कीर्तन समाप्त कर भावना जी अपने घर में चली गई। उन का छोटा सा सलीके से सजा हुआ घर एक कोने में फैले हुए रंग बिरंगी चमकीले से कपड़े एक अलग ही सात्विक अनुभव करवाते थे।
कहने को भावना जी के पति एक नामी राजनीतिज्ञ थे। अक्सर उनका नाम अखबारों में आता रहता था। गांव के एक छुटभैया नेता के साथ जो जुड़े तो पार्टी में आगे ही आगे बढ़ते गए कभी अच्छे कारणों से जेल के अंदर और कभी बुरे कारणों से, उनके ऊपर यह कहावत बहुत अच्छी तरह से चरितार्थ हो रही थी कि बदनाम हुए तो क्या नाम ना होगा। हां राजनीति में उनका नाम बहुत बड़ा चढ़ा था। इसी राजनीति के शौक में उन्होंने अपना घर और बच्चे दोनों को ही छोड़ दिया था। किसी छुट भैया नेता के पीछे लगे हुए अब वह अब खुद नेता बन चुके थे और शहर में खूब ठाट से रहते थे। ना कभी उन्होंने पीछे मुड़कर देखा और ना ही कभी भावना जी ने उनसे कोई सहायता मांगी या कोई सहायता की अपेक्षा करी। भावना जी को सिलाई अच्छे से आती थी और यूं ही कपड़े सिल सिल कर उन्होंने दोनों बच्चों का गुजारा चलाया था और आगे भी पढ़ाया था। यह तो शुक्र था कि मेरठ में उनका घर उनका अपना ही था सो सर पर छत तो थी वही थोड़ी जगह पर वह अपनी जरूरत थी शाक सब्जी भी उगा ही लेती थी।
अपने जैसे ही सात्विक संस्कार उन्होंने अपनी बेटी में डाले। बी. एड करने के बाद बेटी भी सरकारी स्कूल में टीचर लग गई थी और शादी के बाद लखनऊ में ही उसका तबादला भी हो गया था और अब वहीं रहती थी। नेताजी तो अपनी बेटी की शादी में भी नहीं पहुंचे। कन्यादान भावना जी ने खुद ही किया। हां बेटी के पढ़ाई पूरी करने के बाद बेटे को नौकरी लगवाने के लिए भावना जी अपने नेता पति से सहायता मांगने की इच्छुक थी लेकिन इस समय उनके पुत्र विकास ने उनसे कोई भी सहायता लेने से मना कर दिया था और अपने ही मेहनत के बलबूते पर वह एक सरकारी अधिकारी बन गया था।
उसका तबादला भी वाराणसी में हो गया था। वाराणसी की ही एक लड़की से उसका विवाह भी हो गया और वह भी अपने में मस्त और व्यस्त हो गया। अपनी मां को साथ में लाने की उसकी बहुत इच्छा थी लेकिन भावना जी ने कहीं पर भी जाने से मना कर दिया था। भावना जी अपनी जगह छोड़ने को बिल्कुल तैयार नहीं थी। उनका खर्च बहुत ज्यादा तो था नहीं इसलिए अब वह केवल मंदिर की मूर्तियों के ही भजन करती हुई कपड़े सिलती रहती थी थीं। दोपहर को मंदिर में कीर्तन के समय चली जाती थी। अब जब समय भी मिल जाता था तो भंडारे में भी अपना बढ़-चढ़कर सहयोग करती। अब तो अक्सर विकास भी पैसे भेजने ही लगा था। समय के साथ साथ बच्चे अपने परिवार में व्यस्त होते गए और भावना जी अपने परिवार में अपने ठाकुर जी के साथ ही व्यस्त रहती थी। अब उन का अधिकतम समय अपने मंदिर में नन्हे कान्हा को सजाने संवारने में ही जाता था।
यदा-कदा बच्चों के फोन आते रहते थे आपस में कुशल क्षेम पूछने का आदान-प्रदान हो जाता था। भावना जी भी अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के कारण ठाकुर जी का धन्यवाद करती रहती थी। अब के जब विकास का फोन आया और विकास ने भावना जी को बताया कि प्रोजेक्ट के सिलसिले में उसे 2 साल के लिए विदेश जाना पड़ेगा यह एक बहुत अच्छा अवसर है जो कि उसे मिल रहा है लेकिन उसे सिर्फ यही डर है कि उसके विदेश जाने के बाद भावना जी बिल्कुल अकेली हो जाएंगे क्योंकि अब तो जैसे वह महीने 15 दिन में उनसे मिलने आ जाता है तब वह आ ना पाएगा। सिर्फ यही कारण था कि वह भावना जी से पूछ रहा था कि उसे विदेश जाना चाहिए या नहीं? मुस्कुराते हुए भावना जी ने विकास को विदेश जाने की इजाजत दे दी थी। उनके अनुसार वह आराम से थी और अपना ख्याल करने में पूर्णतया समर्थ थी। किसी विशेष अवसर या परेशानी में वह संध्या को भी बुला सकती थी इसलिए उन्होंने विकास को वह अवसर हाथ से ना जाने देने के लिए कहा।
आज विकास को यू.एस. के लिए परिवार सहित निकलना था। संध्या भी भैया भाभी को विदा करने के लिए घर आई हुई थी। जाने के बाद संध्या ने फिकर जताते हुए मां से कहा कि वह घर और स्कूल से इतना समय नहीं निकाल पाएगी कि जल्दी-जल्दी मां से मिलने आ सके तो उसने मां को ही अपने साथ लखनऊ ले जाने की इच्छा जाहिर की।
तभी साथ वाले घर से सावित्री जी भी आ गई थी उन्होंने भी भावना जी की खराब सेहत का हवाला देते हुए कहा कि संध्या की बात मान लेनी चाहिए और संध्या के साथ ही चले जाना चाहिए।
भावना जी ने फैले हुए ठाकुर जी की मूर्ति के बनाने वाले कपड़ों की और देखा और कहा अब तो मुझे कोई फिक्र ही करने की जरूरत नहीं। अब तो ठाकुर जी की जिम्मेवारी है और वही मुझे संभालेंगे। यह भी ठाकुर जी का ही उपकार है कि वह मुझे हर मोह से छुड़ा रहे हैं और पूर्णतया अपनी शरण में ही ले रहे हैं। बेटा तू भी आराम से निश्चिंत होकर अपने घर चली जाना। ठाकुर जी खुद मेरा ख्याल रखेंगे। ऐसा कहते हुए वह श्री राम और सीता मैया की ड्रेस बनाने में मशगूल हो गई और वह यही भजन गुनगुना रही थी
मेरी माला देखो टूट गई रे ।
चल नाम जपन से छूट गई रे।
