बारिश की यादें

बारिश की यादें

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बारिश हर बार बहुत कुछ याद दिलाया करती है और हर बार कुछ नया जोड़ भी देती है। बारिश का होना मतलब कुछ गुनगुनाना। आज चाहें जितना बड़ा हो गया हो उम्र में पर बारिश जब भी होती है मेरे अंदर के बच्चे और प्रेमी को दोबारा जिंदा कर देती है।


टीन की बाहरी शेड पर बारिश का संगीत ऐसे शुरू होता है जैसे कोई तबले पर उंगलियों से तान दे रहा हो। जैसे किसी ने पायलों की झंकार से दस्तक दी हो। मुझे इस आवाज के साथ ही कई और आवाजे याद आती है। कई तस्वीरें जैसे आंखों के सामने नाचने लगती है। एक तस्वीर आती है घर की छत की, जिसमें मैं बारिश में भीगते हुए नाच रहा हूँ। एक तस्वीर आती है गली में बारिश से भरे पानी के बीच तैरती छोटी छोटी कागज की कश्तियों की, जिन्हें हम सब बच्चों ने अपने पापा या दादा की मदद से बना कर तैरा दिया है। सब दौड़ती बहती एक कतार बांधे चली जा रही है, कुछ पलट कर डूब जाती है तो कुछ टेढ़ी होकर बहती है। मेरे मन में जैसे गीत बजता है,


“ओ माझी रे...अपना किनारा ...नदिया की धारा है” या फिर जगजीत सिंग की गजल “वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी...”


और हाँ फिर यादों के आईने में एक तस्वीर माँ की भी है जो रसोई में खड़ी खीर पूड़े बना रही है। पिता जी ने गुलगलों की, तो हम बच्चों ने पकौड़ों की माँग की है। पूरा घर भीनी भीनी खुशबू से महक रहा है। बारिश में घण्टो नहाने और मस्ती करने के बाद हम सब बच्चे कांपते हुए घर वापस लौटते है। उंगलियों के रंग जैसे हल्के गुलाबी रंग से सरोबार है, पानी से लगातार भीगते रहने के कारण उंगलियों के माँस हल्का पड़ गया है। गीले कपड़े हों या सिर, हम बेफिक्री से पोछते उतारते खाने की मेज पर जुटते है। ये तस्वीर बारिश की बड़ी लाजिमी तस्वीर है। गर्म-गर्म चाय और पकौड़े, गुलगलों से सजी मेज। दादी और दादा जी खीर पूड़े खाने की ताकीद करते है और कहते है, "खाने की यही उम्र है अच्छा खाओ, तभी कुछ कद काठी बढ़ेगी"


माँ भी कटोरी में खीर डालकर देती है पहले, खूब गाढ़ी खीर, जैसे खोया हो। हमारी भूख को भी जैसे बारिश ने चमक दिया हो। घर में तो उत्सव का दिन था ही।


दशहरी आमों की पेटी जून के आखरी हफ्ते में कई बार बारिश के साथ आया करती। उसकी खुशबू बारिश को और भी महक दिया करती थी। ऐसी कितनी ही तस्वीरे हर बारिश में मेरे साथ बातें किया करती है।


तो बारिश महज पानी का बरसना नहीं, बल्कि जिंदगी के हसीन लम्हों को गुनगुनाना है। जैसे किसी ने प्यार से सिर पर हाथ फेर दिया हो।


हाँ याद आया ...प्यार और बारिश की बड़ी अच्छी जुगलबन्दी रही। कालेज से लेकर यूनिवर्सिटी तक। हम दोनो एक साथ पढ़े और बारिश ने हमारे बीच बहुत गहरे रंग भरे प्यार के। पहली मुलाकात वाले दिन भी शायद बारिश ही हो रही थी। मुझे याद है कॉरिडोर में अपने बाल सुखाती दिखी थी वो। मैं भी भीगता हुआ वही एक कोने में खड़ा था। कालेज में दाखिले के दिन थे। जुलाई के पहला हफ्ता। बारिश ने कॉलेज की लाल दीवारों को जैसे चमक दिया था। दीवारों के साथ साथ लगे अशोक के पेड़ भी जैसे नई ताजगी से झूम उठे थे। हम दोनों एक ही स्ट्रीम में दाखिला ले रहे थे।


"बीएस सी, फर्स्ट ईयर" मैंने पहली बार उसकी आवाज सुनी, उसने मेरी तरफ देखकर पूछा था।


तेज बारिश के छींटे और चलती हवा जैसे कॉरिडोर में पानी के छींटे उड़ा रही हो। उस आवाज और संगीत में यह आवाज और फिर धीरे धीरे कितनी ही बारिशें हमारे बीच आई। हम क्लासमेट से दोस्त, दोस्त से प्रेमी और प्रेमी से पति पत्नी हो गए, पर बारिश हमेशा हमें नजदीक लाती रही, गुनगुनाती रही, गुदगुदाती रही।


आज भी बारिश आती है तो बच्चो को बारिश में भीगने से नहीं रोकता और न ही खेलने से। उनके लिए कागज की कश्ती बनाता हूँ और सीखता हूँ। जैसे अपने आप को ही दोबारा जिया करता हूँ। वो मेरे कहने से पहले ही जैसे बहुत कुछ महसूस कर लेती है। हम दोनों बारिश के बरसते पानी को कभी हाथों में समेटते उनसे खेलते है। वो करीने से मेज पर खीर और पूड़े बनाकर सजा देती है।


घर फिर उसी पुरानी याद से महका करता है। मैं हर साल इसी तरह बारिश का इंतजार किया करता हूँ। जिंदगी ऐसे ही कभी कभार हसीन नगमे गुनगुनाया करती है। 


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