Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Alok Singh

Comedy

4.5  

Alok Singh

Comedy

बांकेलाल

बांकेलाल

5 mins
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आपने पचास साठ के दशक की फिल्में तो देखी हीं होंगी, इन फिल्मो की पृष्ठभूमि अक्सर एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के संघर्ष के इर्दगिर्द ही घूमती रहती थी।

इन्ही कहानियों में एक बेहद कांईयाँ और धूर्त किरदार होता था, जिसको सिर्फ और सिर्फ उस परिवार को और इसके सदस्यों को ज़लील करने और करवाने में एक असीम सुख की अनुभूति होती थी।

अच्छा ये जनाब सिर्फ यहीं नहीं रुकते थे ये तो चुगली करने में पीएचडी भी होते थे,

सो उसका भी कोई मौका नही छोड़ते थे।

नाक तो साहब इनकी सूंघने में किसी कुत्ते को भी पीछे छोड़ दे, क्योंकि ये किस घर मे क्या रायता फैला है, और किस सदस्य के क्या राज़ हैं, जो उसके घर से छुपे हैं, सब सूँघ कर ये साहब उसके घर में उसकी फजीहत करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।

और साहब इस किरदार का अक्सर आप देखेंगे तो नाम होता था "बांकेलाल"

बांकेलाल आपको किसी भी रूप में मिल सकते थे,

ये जीजा, साला, पिताजी का दोस्त, मौसा, फूफा, डोर का मामा, पड़ोसी, पड़ोसी का लड़का, परचून वाला, नाई किसी भी रूप में आपके सामने प्रकट हो जाते हैं।

 तो भैया मेरी ज़िंदगी में भी एक साहब थे और ग़ालिबन उनका नाम भी बांकेलाल ही था।

ये हमारे पिताजी के साथ उनके दफ्तर में ही काम करते थे और इनका पार्ट टाइम काम था चिकाई लेना और इसके अलावा इनका सामाजिक कार्य भी था और वो था रिश्ते करवाना, ये काम ये पूरी ईमानदारी से करते थे।

इसका मतलब ये क़तई नही है कि चुगली में कोई बेईमानी करते हों, न भाईसाहब ये काम तो ये पूरी शिद्दत से करते थे।

बांकेलाल जी की तीन बेटियाँ थीं और उनमें से उनकी सबसे बड़ी बेटी मेरे साथ मेरी क्लास में पढ़ती थी।

बस जी यहीं से शुरू होता है उस पचास साठ के दशक की फ़िल्म वाले बांके का जीवंत होना मेरी ज़िंदगी में।

बात है कक्षा तीन की और उन दिनों हम थे काफी बातूनी और साथ बेहद शैतान साथ ही थोड़े लापरवाह भी, लेकिन इसकी खबर मजाल है कि हम अपने घर में लगने दें, न न न ये तो हो ही नही सकता था, सो सबकुछ एक धाराप्रवाह में सुचारू रूप से चलता रहा, अच्छा पढ़ाई में भी हम टॉप दस विद्यार्थियों में से थे सो घर में भी सब निश्चिंत थे।

फिर हुई बांकेलाल लाल जी की बिटिया की एंट्री और भैया यहीं से सारा खेल बिगड़ना शुरू हो गया।

अब हमारी क्लास की कारगुज़ारियों की ख़बर हमारे पिताजी तक पहुंचने लगे गयी, कुछ दिनों तक तो हमें समझ नहीं आया फिर जब श्रीमान बांकेलाल जी का हमारे घर आवागमन शुरू हुआ और उसके साथ ही उनकी चहुमुखी प्रतिभा के दर्शन भी।

जो बात स्कूल की हम सोचते थे कि घर में नहीं बतानी है वो बात शाम की चाय की चुस्की के साथ किसी स्नैक्स की तरह बांकेलाल जी पिताजी के आगे परोस देते थे और तत्पश्चात पिताजी हमें सेंक देते थे।

इस तरह से ये इवनिंग स्नैक्स का एक सिलसिला सा चल पड़ा और उसके साथ ही गाहे बगाहे हमारी सिंकाई का भी।

अच्छा न चाहते हुए भी एक अनचाही होड़ सी हो गयी थी उनकी बेटी और मुझमें की कक्षा में कौन बेहतर प्रदर्शन करता है।

बात है कक्षा 4 की उन दिनों हमारे नानाजी आये हुए थे, उन्हें हम प्यार से दद्दा बुलाते थे, अच्छा उनके आते ही घर में एक आज़ाद और खुली हवा बहने लगती थी क्योंकि भैया असल ज़्यादा सूद प्यारा होता है सो दद्दा की छत्रछाया में एक भरपूर शह मिल जाती थी, सो उन दिनों हुए यूनिट टेस्ट को हमने उतनी लापरवाही से दिया और चार विषयों में फेल हो गये, जब रिजल्ट आया तो काटो तो खून नहीं।

अब टेंशन इस बात की तो थी ही कि घर वालों का सामना कैसे करेंगे क्योंकि रिपोर्ट कार्ड को घर में दिखाने के बाद घर के किसी एक अभिभावक के हस्त्ताक्षर का होना भी ज़रूरी था उसे वापस क्लास टीचर को जमा करने से पहले।

तो अब क्या किया जाए तभी बिजली की गति से तरक़ीब सूझी की दद्दा से साइन करवा कर रिपोर्ट कार्ड जमा कर दिया जाएगा और इस तरह से घर में किसी कानों कान खबर नही लगेगी की हम चार सब्जेक्ट्स में फेल हुए हैं, और माँ पिताजी में से कोई पूछेगा तो कह देंगे हैं पास हो गए थे। इसी तरह से हमको लगा कि मुसीबत टल गयी है, सही भी था क्योंकि इस बात को कोई 5पांच सात दिन बीत गए थे और हमें लगने लगा कि तूफान गुज़र गया क्योंकि मंज़र शांत था।

लेकिन अगर आपकी ज़िन्दगी में बांकेलाल हों तो भाईसाहब ये शांति तूफान से पहले की होती है और हुआ भी वही, बांकेलाल जी आते रविवार हमारे घर टपक गये,

हम पीछे पार्क से खेलकूद कर घर में घुसे ही थे कि पिता श्री की गर्जना के साथ हमें तुरंत ड्राइंग रूम में तलब किया गया, हम पिताजी की दहाड़ से समझ तो गए कि कुछ तो हुआ है, फिर जैसे ही ड्राइंग रूम के अंदर पहुंचे और सामने सोफे पर श्री 1008 बांकेलाल जी को अपने साक्षात पाया।

वे अपनी कुटिल मुस्कान के साथ बोले

"बबलू बेटा कितने नम्बर आये तुम्हारे छमाही के इम्तिहान में"

"रिपोर्ट कार्ड मिल गया क्या ?

पिताजी ने चौंक कर पूछा

इससे पहले की में संभल पाता एक और मिसाइल गिरी मेरे ऊपर

"बबलू रजनी तो कह रही थी की रिपोर्ट कार्ड मिले तो हफ्ता भर हो गया है, तुमने बताया नहीं"

"एक हफ्ता!!!"

पिताजी तो मानो सब्र के बांध के मुहाने पर ही आ गए थे

इतने में बांके जी ने फिर से एक मिसाइल दागा और बोले-

"रजनी तो छमाही में क्लास में आठवें नम्बर पर आई है"

"वो बता रही थी कि तुम चार विषयों में फेल हो गए हो"

"अच्छा सिंह साहब अब मैं चलता हूँ"

इतना कहकर प्रिय बांकेलाल अंकल जी दिया सलाई लगाकर घर से निकल लिए,

बिना ये सोचे कि अब कितनी आग बरसने वाली है…

ख़ैर उनके जाते ही पिताजी की खून टपकाती आँखे हमारी ओर मुड़ी और हम की फटे ढोल की तरह बजने लगे

"डैडी वो हम फेल गए थे तो डर गए थे, इसी लिए हमने दद्दा से रिपोर्ट कार्ड साइन करवा कर जमा करवा दिया,

अब ये गलती नहीं होगी और सालाना इम्तिहान में हम शिकायत का मौका नहीं देंगे"

और भाईसाहब धुआं छंटा तो हम नील समंदर की तरह फर्श पर फैले हुए थे।

लेकिन हम भी थे अपनी जुबान के पक्के, सालाना इम्तिहान में हमने झंडे गाड़ दिए और कक्षा में तीसरे स्थान पर आये, और पिताजी के दर्द को मिटा दिया और अब बारी थी हमारी बांकेलाल बनने की वो भी बांकेलाल जी के समक्ष, वाह सोचकर ही सौ ग्राम खून बढ़ा जा रहा था, सो जैसे ही पिताजी शाम को दफ्तर से लौटे हमने लपककर उनसे पूछा

"डैडी आज बांकेलाल अंकल के यहाँ जाने का बड़ा मन कर रहा है"

डैडी अब मम्मी की तरफ देखकर मुस्कुरा रहे थे।


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