बाँझ
बाँझ
आश्रम के अंदर जैसे ही इड़ा ने कदम रखा सारे बच्चे उसे घेरकर खड़े हो गए। साथ में लाए दो भारी बैग जो अभी तक उसने अपने हाथों में लटकाए हुए था दर्द का अहसास कराने लगा था।
इतने में आश्रम की इंचार्ज रेखा मैम ने उसे देखा और स्नेहमिश्रित शिकायत भरी आवाज में कहा,
" ले, संभाल अपने इन बंदरों को! पूरा हफ्ता मुझ से पूछते रहते हैं कि संडे कब है ?"
" संडे को हमारी माँ आएगी।"
" मैं भी तो संडे का बेसब्री से इंतजार करती रहती हूँ, मैम !"
इड़ा ने पास खड़ी तीन साल की नन्हीं रबड़ी को पुचकारते हुए कहा।
इन बच्चों के लड्डू, रबड़ी, कलाकांद, रसगुल्ला, जलेबी, गोलू ये सारे नाम उसी के रखे हुए हैं।
बात यह है कि हर संडे को उसके ऑफिस की छुट्टी होती है। तब इड़ा इन बिन माँ- बाप के बच्चों के लिए खाना बनाकर लाती है और उन्हें अपने हाथों से खिलाती थी। इन नन्हें फरीस्तों के बीच थोड़ा समय बीता जाती थी। बच्चे जो हफ्तेभर रुखा - सुखा खाकर अपना गुजारा कर लेते थे अच्छे भोजन मिलने की आशा में और थोड़े से लाड़-प्यार की भूख से अधीर होकर संडे का इंतजार किया करते थे।
मध्याह्न भोजन के समय आश्रम एक बाजार के रूप में तब्दील हो चुकी थी ! चारों तरफ से नन्हें फरीश्तों के "माॅ ", "माॅ" की पुकार से डाइनिंग हाॅल गूंज रहा था।
" माँ पहले मुझे खिलाओ न! आप तो नेवाला सिर्फ जलेबी के मुंह में डालती जा रही हो।"
" चुप रह लड्डू, तुझे तो हरदम सबसे ज्यादा खाना चाहिए !"
"माॅ मुझे भी अपने हाथ से खिलाओ न?" बर्फी ने जल्दी मचाई।
इड़ा ने अभी उसके लिए कौर बनाया ही था कि गोलु( गुलाब जामुन) ने उसके हाथ को घुमाकर कौर को अपने मुंह में ले लिया।
छोटी बरफी रोने लगी। उसको चुप कराते हुए इड़ा अपनी हालत को देखकर सोचने लगी कि यहाॅ तो एक अनार और सौ बीमार है। एकसाथ किस किस को खिलाए? ईश्वर ने हाथ तो सिर्फ दो ही दिए हैं।
उसको बच्चे शुरु से ही इतने पसंद थे। लेकिन विवाह के पाॅच वर्ष बाद भी जब वह कोई बच्चे को न जन्म दे सकी थी और उसके सारे रिपोर्ट्स नार्मल आए थे तो उसने अमित से भी टेस्ट करवाने को कहा था। उसकी इस हिमाकत के कारण उसके ससुराल वालों ने गुस्से में शीघ्र ही उसे बांझ करार देकर अमित और उसका जबरन तलाक करवा दिया।
तब से हर संडे वह इसी तरह अपनी मातृत्व की भूख मिटाने इस आश्रम के दरवाजे पर चली आती हैं।