अविस्मरणीय स्मृति

अविस्मरणीय स्मृति

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किंडरगार्टन की कोई पहले दिन की स्मृति


हम गुजरात में कुछ ही महीने पहले आए थे। इससे पूर्व हम अमृतसर में रहा करते थे। जहां हमारे पुरखों का अच्छा व्यवसाय हुआ करता था। पार्टीशन के बाद विस्थापन का दंश भोगते हुए अलग-अलग जगह जाकर बसे; दिल्ली, कलकत्ता, अहमदाबाद, मुंबई।


फिर अहमदाबाद आ गए और वहीं के हो गए। बहुत अच्छा शहर और उससे भी अच्छे वहां के लोग।अहमदाबाद में प्रीस्कूल आज की अवधारणा नहीं थी, बहुत पहले से चला सकते थे। मैं तब लगभग ढाई वर्ष की रही हुंगी, मेरा एडमिशन मेरे पिताजी प्री स्कूल में करवा आए। दूसरे दिन मुझे स्कूल बस लेने आई। उसका कंडक्टर नीचे उतरा और उसने देखा, मैं तैयार खड़ी थी, मगर स्कूल बैग नहीं लिए थी, बल्कि हाथ में गन्ना था। सो उसने मां से कहा, “बेबी नो दफ्तर क्यां छे?" यानी बेबी का बैग कहां है? तो बसते को बैग ना कहकर गुजराती में दफ्तर कहा जाता है। मेरी माता जी ने सोचा कि वह पूछ रहे हैं कि मेरे पिता क्या किसी दफ्तर में काम करते हैं। उन्होंने कहा,"नहीं इसके पिता दफ्तर में नहीं काम करते है। कोई व्यवसाय करेंगे यहीं पर।" काफी देर लगी कंडक्टर को यह समझाने में कि दफ्तर का अर्थ स्कूल बैग है। मैं गन्ना छोड़ना नहीं चाहती थी।बस को देर हो रही थी। कंडक्टर ने मां से कहा, "आ शेरडी तमे लई लो।” यानी यह गन्ना आप ले लीजिए। मां उत्साहित होकर बोली, “हां, तुम इसकी सहेलियां बनवा देना, बच्ची को अच्छा लगेगा।"अब तो कंडक्टर ने सर पकड़ लिया।


धीरे-धीरे वे भी गुजराती सीख गईं, मगर पहले दिन की घटना को कई बार सुनाती थी। वह उनकी स्मृति में बस गई थी और मुझे भी वह घटना आज तक याद है।


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