अतृप्त
अतृप्त
अजी जल्दी करिए ना हमें बड़ी दूर जाना है, निर्मला ने अपने पति को विचलित स्वर में पुकारा। जाना है कहां जाना है, उसके पति ने उसकी ओर आश्चर्य भारी दृष्टि डालते हुए पूछा।
तब वह खुशी से चहकते हुए बोली अपने घर और कहां। उसका पति उसे समझाते हुए बोला, निर्मला समझा करो अब हम मृत आत्माएँ है। अब यही हमारा घर है।
उसकी बात सुन निर्मला फिर ठिठक कर बोली आप तो यह भी भूल गए कि अभी वहां श्राद्ध चल रहे है। और हमारे बच्चे भी हमारी आत्माओं की तृप्ति के लिए श्राद्ध कर्म कर रहे होंगे।
यह सुन उसका पति उससे बोला, निर्मला सच सच बताओ क्या हमारे जीवित रहते की गई, हमारे बच्चों की सेवा से तुम तृप्त नहीं हुई थी।
नहीं नहीं हमारे बुढ़ापे में तो हमारे बच्चों ने हमारी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
तो फिर अब भला कौन सी तृप्ति के लिए, वहां जाने की रट लगाए हो, पति ने उसे फिर टोका।
इसपर फिर एक गहरी सांस भरकर, अपनी आंखों में उभरी नमी को पोंछते हुए निर्मला बोली।
अपने बच्चों की सेवा से मेरी रूह तो वाकई तृप्त हो चुकी है, पर एक माँ की इन आंखों का भला मैं क्या करूं, जो बार बार अपने बच्चों को देखकर भी कभी तृप्त नहीं होती।
