अर्द्ध भारत का पतन...!
अर्द्ध भारत का पतन...!
भूमिका -: बड़े खेद के साथ भारत जैसे हृदयस्पर्शी शब्द के आगे अर्द्ध लगाना पड़ा है। विदित है कि हमारा भारत पहले ही एक बार बट चुका है। इसे फिर से बटने या इसके आधा हो जाने के विषय में सोचने मात्र से ही हम भारतवासी सिहर जाते हैं। लेकिन वर्तमान की स्थितियां भारत के आगे अर्द्ध लगाने पर मजबूर कर चुकी हैं।
सूत्रों के मुताबिक हमारे इतिहास पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव किए जाने हैं। जिसका एक पाठ लीक हो कर सामने आया है, 'अर्द्ध भारत का पतन!' तो आइए जानते हैं, कि यह पतन कैसा है और इसके कारण क्या है..।
पाठ का संक्षिप्त स्वरूप -: 'कोरोना' एक पराक्रमी महामारी जो पड़ोसी देश के रास्ते से हो कर अपने देश में आया। देश का दरवाज़ा खटखटाया, और हमारे देशवासियों ने बिन पूछे 'कौन है?' दरवाज़ा खोल डाला, और महामारी ने ना कोई संधि प्रस्ताव दिया, ना समझौता का अवसर... सीधा धावा बोला और एक एक कर के आम जनता का गला घोट डाला। चारों ओर दहशत फैल गई। इस दहशत से कोई बच पाया तो वह था सिर्फ़ सत्ता वर्ग। क्योंकि उनके सारे सैनिक मिल कर उनके महल की घेराबंदी किए पड़े थे, ताकि यह महामारी रूपी आक्रमणकारी राजा और राजा के मुख्य लोगों को छू तक ना पाए और हकीकत में ऐसा ही हुआ। जब इस दहशत से परेशान हो कर आम जनता अप्रत्यक्ष रूप से घर में रह कर और प्रशासन प्रत्यक्ष रूप से सड़कों पर उतर कर इसका सामना करने लगी, तो थका हारा कोरोना रूपी मुहम्मद गोरी पराजित हो कर, पिछले कदम पर आ गया, लेकिन एक गलती हमसे हुई की, भारतीय (भारतवासी) रूपी पृथ्वीराज चौहान ने उसका पीछा न कर के उसके पिछले कदम पर आ जाने का जश्न मनाने लगे। काश की यह चौहान वर्ग पीछे मुड़ कर देख पाता की जाते जाते गोरी (कोरोना) ने एक वर्ष के अवसर का संकेत दिया था। ख़ैर देश तनिक समझदार था, सो संकेत बिन देखे ही समझ गया कि यह भागा नहीं है। अस्थाई रूप से ठहर कर कहीं विश्राम कर रहा है। तब कुछ लोगों ने सरकार से गुहार लगाया की, अब अपनी तैयारी मजबूत रखनी है। अबकी यह महामारी देश की जनता को छू भी ना पाए। सरकार ने आश्वासन दिया की 'तैयारी हो रही है।' मगर फिर एक बार जनता ने सवाल नहीं दागा कि 'साहेब! किस चीज़ की तैयारी हो रही है?' और अल्पभाषी सरकार ने भी नहीं बताया की 'तैयारी महामारी की नहीं चुनाव की हो रही है।' ताकि इस बार बंगाल में दीदी नहीं भईया राज करें।
ज़िंदगी पुनः रफ़्तार पकड़ती की उससे पहले एक वर्ष का अवसर समाप्त हो चला, और महामारी ने पुनः धावा बोला। अब क्योंकि तैयारी नाम मात्र की थी, अतः महामारी चारों ओर अपना पैर पसारने लगा। पिछली बार तो युवाओं के साथ कुछ रियायत थी, इस बार तो यह रियायत भी अपने घर छोड़ आई थी। देश के वृद्ध वर्ग के संग संग युवा वर्ग की भी जानें जाती रही, और सरकार चुनाव में व्यस्त रही। रहती भी क्यों न... चुनाव सर पे जो था। और संविधान का अनुच्छेद १९ भी इन्हें चुनाव प्रचार के लिए रैलियां करने का अधिकार देता है। और इन सब के दौरान बड़े साहब से कोई गलती हो जाय तो संविधान में निहित अपवाद और इनके अंधे समर्थक दोनों मिल के इन्हें बचा लेंगे। सुबह से दोपहर तक चुनाव प्रचार और रैलियां करते दाढ़ी वाले बाबा उर्फ़ अंध समर्थकों के पापा शाम को आ कर महामारी की कथा बांचने के साथ साथ 'दो फिट की दूरी मास्क है, जरूरी' का स्लोगन गाते रहे।
कितने अरमानों के साथ देश की आधे से कहीं अधिक जनता ने दो दो बार देश की कुर्सी पर आसीन किया कि यह इस कलयुग को गांधी युग बनाएंगे। किन्तु इन्हें तनिक भी खेद नहीं की सबके अरमानों पे पानी फेरे जा रहे हैं। देश पतन की ओर उन्मुख होता जा रहा है। वह दिन दूर नही जब सरकार के कु व्यवस्थाओं का लाभ उठा कर यह महामारी देश की आधी जनता को अपने शिकंजे में घेर कर अर्द्ध भारत का पतन कर चुकी होगी और इस पतन के अनेक कारण होंगे।
पतन के कारण :- हृदय तो तब और व्यथित हो उठ रहा है, जब आंखे इंसान से ज्यादा इंसानियत को मरते देख रही हैं। जब गरीब अपने और अपने परिजनों की भूख मिटाने के लिए सब्जी फल बेचें तो उनका तिरस्कार किया गया, उन पर लाठियां तक चलाई गईं, कुछ प्रशासन के तुच्छ प्रवृत्ति के लोग तो उन्हें डरा धमका कर मुफ़्त में फल सब्जी उठा कर अपने घर का राशन भरते रहे। कुछ का कहना था... 'जान है, तो जहान है' । लेकिन बड़े साहेब ये भूल गए की यह कथन गरीबों पर कार्य नहीं करती। उन्हें रोज़ अपनी भूख मिटाने के लिए रोज़ कुछ आमदनी की आवश्यकता होती है। लेकिन सत्ता पक्ष के लोग भला ये क्यों सोचें... आखिर भूख ही तो है, रोज़ लगती है। आखिर ज़रूरत ही तो है, रोज़ बढ़ती है।
वह बात बिल्कुल पृथक है, कि चुनाव में रोड शो और रैलियां करते समय इन्होंने जो हजारों/लाखों की भीड़ जुटाई तब इन्हें ख्याल न आया की चुनाव तो आता जाता रहेगा, फिलहाल 'जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं ' ।
अब तक तो इस आखों में बैठे तजुर्बे ने कुछ तथाकथित इंसान और सत्ता के लोगों को लुटते देखा था। मगर हद तो तब हो गई जब भगवान का दर्ज़ा प्राप्त कुछ डॉक्टर तक अपनी हैवानियत पर उतर आए। मरीज़ मर रहा है, मरने दो। परिजन रो रहे हैं, रोने दो। उनका सब कुछ लूट गया, लुटने दो। वह अपना घर तक बेच आए, बिकने दो... मगर उन्हें पैसे ऐंठने से मतलब है। पैसे भी उतने नहीं, जितने की लागत है, प्रत्येक मरीज़ से पैसे इस हद तक लिए जा रहे हैं, जितने में अगले पच्चास मरीज़ का इलाज़ मुफ़्त में किया जा सकता है।
विद्वानों में मतभेद :- ख़ैर! इतना कुछ होने के बावजूद ना
समझ जनता और सत्ता पक्ष के अंध विश्वासी लोगों को कोई समझा नहीं सकता। सरकार की गैर जिम्मेदराना हरकतों और गलतियों को साफ साफ अपनी आखों से देखने के बाद भी विद्वानों में मतभेद है। आलोचक अपनी छाती पीट पीट कर जनता की आखें खोलने की कोशिश कर रहे... और सत्ता के प्रशंसक वर्ग एड़ी चोटी का जोर लगा कर सरकार की गलतियों पर पर्दा डाल रहें हैं।
आलोचक वर्ग :- महामारी रूपी मुहम्मद गोरी के आक्रमण का आज जो भयावह स्थिति है। उसके कारणों को मूलतः दो भागों में बांटा जा सकता है।
सरकार की गलती एवं जनता की गलती। इन दोनों ही कारणों में सरकार की गलतियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। क्योंकि देश का नायक, देश का सबसे जिम्मेदार नागरिक सरकार ही है। सरकार ने कोरोन्टिन प्लेस में हजार बैड लगवा कर उसे जनता के समक्ष अस्पताल के रूप में पेश किया गया। शायद सरकार को लगा की अब ना हीं महामारी आयेगी और ना हमारी पोल खुलेगी। मगर चौहान रूपी सरकार भूल चुकी थी कि उसने गोरी को मात्र खदेड़ा है, जड़ से उखाड़ा नहीं है। और तो और बाकी अस्पतालों में सरकार ने ऑक्सीजन जैसे बुनियादी जरूरत की पूर्ति पर ध्यान नहीं दिया। जिसकी अभाव में हजारों लोगों की जाने गईं। एक समय अपने देश में खुद ही वैक्सीन की कमी थी, और सरकार वैक्सीन निर्यात कर अपने लिए वाहवाही बटोर रही थी। सरकार की ऐसी अनेकों गलतियों ने देश को आर्थिक एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से पतन की ओर उन्मुख किया है। मगर नीच प्रवृति की गोदी मीडिया ने इनके गिने चुने अच्छे कार्यों की सराहना एवं इनके गलतियों पर पर्दा डालती रही।
हालाकि कुछ गलती आम जनता ने भी की है। मगर इनमे से कुछ निम्न वर्ग की जनता थी, जो अपना जीवन यापन करने के लिए अपने व्यवसाय में लगी रही। वहीं आधी से ज्यादा जनता ने महामारी के प्रति जागरूकता की कमी और उनके हल्केपन ने आज यह स्थिति पैदा करने में भूमिका निभाई है।
सत्ता पक्ष के प्रसंशक वर्ग :- सरकार की गलतियों पर पर्दा डाल कर उनकी तारीफदारी करने वाले ७५% लोग वहीं हैं, जिन्हें अपने देश से ज्यादा अपने धर्म की चिंता है। जिन्हें अपने देश पर नहीं अपने धर्म पर फक्र है। और यह धर्म के अंधे जानते हैं कि यह वर्तमान सरकार देश की न सही इनके धर्म की जरूर है। यह सरकार देश के साथ न सही किंतु इनके धर्म के साथ सदैव खड़ा है। यह धर्म के अंधे लोगों को अपने देश की बर्बादी नहीं अपने धर्म की आबादी दिख रही है, यही कारण है कि, यह हर हाल में सरकार के साथ हैं।
इनका कहना है कि सरकार ने देश की जनता का ख्याल करते हुए अपनी चुनाव रैलियों पर रोक लगा दी, मगर यह ये नहीं कहेंगे की यह रोक चुनाव आयोग ने लगाया वह भी तक जब इस रैली के कारण सैकड़ों की जाने जा चुकी थीं। इनके अनुसार सरकार ने ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए एक मजबूत कदम उठाए। लेकिन यह हर अस्पताल के मरीजों की मौलिक आवश्कता है, प्रत्येक क्षण इसकी उपलब्धि रहनी चाहिए, फिर भी ऑक्सीजन के अभाव में अनेकों की जानें गई, यह बात इन्हें कौन बताए...।
संभावनाएं एवं उपसंहार :- देश की भ्रष्ट इंसानियत और वर्तमान स्थिति को देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब यह महामारी भारत की आधी जनता को अपने शिकंजे में घेर चुकी होगी। और बची हुई शेष जनता आर्थिक व मानसिक रूप से तंग होगी। खेद से कहना पड़ रहा है, अर्द्ध भारत का पतन हो चुका होगा। जिसका लाभ उठा कर पुनः कोई विदेशी व्यापार करने भारत को आएगा। धीरे धीरे अपना अधिकार जमाएगा। भारत पुनः परतंत्रता की बेड़ियों से बंध जायेगा। फिर एक दर्दनाक इतिहास रचेगा। जिसमे पहले की भांति सारे तथ्य मौजूद होंगे, मगर वीरता की कोई कहानी नही होगी। इस नए इतिहास में न कोई गोपाल कृष्ण गोखले होंगे जिनके भाषण में खूब दम होगा, ना कोई महात्मा गांधी होंगे जिनके सत्यता में खूब दम होगा, ना कोई भगत सिंह, चंदशेखर जैसे अनेक क्रांतिकारी होंगे जिनके क्रांति में खूब दम होगा। आज जनता अंधी और मौन है, कल विवश हो कर रह जाएगी। इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पे विवशता की दास्तान होगी।
खैर अब भी वक्त है, मात्र आवाज उठाने की देरी है। अगर अभी मात्र आवाज़ उठा कर स्थितियों पर नियंत्रण पा लिया गया, तो १८५७ जैसी लहर फिर नहीं दुहरानी पड़ेगी। और अगर अब भी जनता की आखें ना खुली तो ख्याल रहे...
"ये उस वक्त का आगाज़, जो ना समझा बर्बाद है।"
अभ्यास प्रश्न :- यदि आप प्रौढ़ हैं, तो एक प्रश्न आपसे... सत्ता पक्ष के आदरणीय अंधे समर्थकों, जिस नेता को आप देश नायक मान बैठे हैं, ज़रा पूछिए उनसे की जब देश महामारी से जूझ रहा था... प्रतिदिन अनगिनत जानें जा रही थीं, तो उस क्षण आपकी सरकार को अपने जनता से ज्यादा अपने सत्ता की फ़िक्र क्यों सता रही थी? जिस समय सरकार को घूम घूम कर प्रत्येक राज्य में स्वास्थ्य संबंधी अव्यवस्था को व्यवस्था में परिवर्तित करना था, उस समय आपकी सरकार घूम घूम कर चुनाव प्रचार में क्यों संलग्न थी...?
यदि आप देश के युवा हैं, तो एक सवाल आपसे कि... जिस सरकार को आप अपना शुभचिंतक मान बैठे हैं, वह सरकार आपकी चिंता करने में इतना विलम्ब क्यों की? चुनाव आयोग द्वारा रैलियों पर रोक लगाए जाने के पश्चात फुरसत पा कर अपनी छवि सुधारने खातिर जो सरकार अब ऑक्सीजन और तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति कर रही है, वह कार्य हजारों की जानें जाने से पहले क्यों नहीं की गई ? पिछले एक साल से आपके शुभचिंतक कहां गुम थे..??
"जनता अपनी आखें खोलो... देश को तुम्हारी ज़रूरत है, मौन क्यों हो ? कुछ तो बोलो... जनता अपनी आखें खोलो...।