Aanchal Soni 'Heeya'

Abstract

4.7  

Aanchal Soni 'Heeya'

Abstract

अबला जीवन !

अबला जीवन !

8 mins
393


जैसा कि आपको विदित है, भारतीय नारियों के कोख़ से जन्मे कुछ पूजनीय समाज सुधारकों ने नारियों के मान सम्मान, प्राण व जीवन यापन के कुछ अन्य तथ्यों से संबंधित कुरीतियों को समाप्त करने हेतु असीमित संघर्ष किया है। जिसके परिणास्वरूप आदरणीय राजाराम मोहन राय द्वारा सन 1829 में उस काल के भारतीय गवर्नर जनरल आदरणीय लॉर्ड विलियम बैंटिक जो की एक गैर भारतीय अर्थात ब्रिटिश गवर्नर हो कर भी भारत में चल रहे अनगिनत कुप्रथाओं पर रोक लगाए थे, का समर्थन प्राप्त कर सती प्रथा का अंत किया गया। ठीक इसी प्रकार आदरणीय ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी के हार्दिक प्रयत्नों के फलस्वरूप सन 1856 में विधवा पुनर्विवाह को वैध बनाया गया। नारियों को उनके जीवन के कुछ गिने चुने क्षेत्रों में आज़ादी मिली और अंततः 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ, अर्थात देश का प्रत्येक व्यक्ति आज़ाद हुआ। किन्तु यह आज़ादी नारियों के हित में अभी भी पर्याप्त नहीं थी। संक्षेप में कहा जाय तो नारियों को मात्र उपनिवेशवाद से छुटकारा मिला था, अपमानों से नहीं। इन्हें अपने ही देश के कुछ गंदी मानसिकता के व्यक्तियों से आजादी ना तब मिली थी, ना अब मिली है और अफ़सोस की बात तो यह कि उनकी इस आज़ादी के लिए अब ना ही 1857 कि क्रांति जैसी कोई क्रांति पुनः होती है। ना ही "अंग्रेज़ भारत छोड़ो" जैसा कोई नारा "बलात्कारियों दुष्कर्म छोड़ो" लगाने के लिए कोई वीर समाज सुधारक ही है। अगर होता है, तो सिर्फ़ विरोध वह भी मौखिक रूपेण, ज्यादा से ज्यादा जनता के जागने पर एक सासिम भीड़ इकट्ठी हो कर मोमबत्ती जलाती है, जिससे दुष्कर्मी का बाल तक बाका नहीं होता, हां अनगिनत मोमबत्ती के जलने से एक उष्मा पैदा होती है, जिससे वातावरण में व्याप्त कुछ सूक्ष्म व कमजोर वायरस जरूर नष्ट हो जाते हैं।

26 नवंबर 1949 को संविधान बना कर 26 जनवरी 1950 में पूर्णतः पारित किया गया, जिसके अन्तर्गत मौलिक अधिकार में अनुच्छेद 23 के अनुसार देश के किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति का शोषण ना करने का प्रावधान भी किया गया। किन्तु जब बात नारी के दैहिक सुरक्षा व शोषण की हो तो ऐसे तमाम प्रावधान निष्क्रिय पड़ जाते हैं। इस विषय में संवैधानिक वार्ताएं जर्जर सी मालूम पड़ती हैं। आइए हम प्रकाश डालते हैं, वर्तमान नारी की तथाकथित स्थिति पर!

हां यह अमिट सत्य है, कि वर्तमान में नारी प्रगति कि शिखर पर दिनों दिन ऊपर की ओर ही चढ़ती नज़र अा रही हैं। राष्ट्रीय, व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व गृहस्थ विकास से संबंधित ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां विकास तथा तरक्की कार्यों में नारियों का एक अमूल्य योगदान नहीं हो। प्रत्येक क्षेत्र इनके भूमिका से प्रदिप्त है। जिसका सटीक उदहारण पिछले ही वर्ष आदरणीया मिंटी अग्रवाल द्वारा देखा गया है जिन्होंने भारतीय वायु सेना विंग कमांडर आदरणीय अभिनन्दन के उपलब्धि में एक बहुमूल्य योगदान अदा किया है। प्रगति के संग संग इन्हें जीवन के हर क्षेत्र में असीम स्वतंत्रता भी प्राप्त है। किन्तु...

किन्तु इस स्वतंत्रता का अर्थ अभी ही नहीं आने वाले भावी समय में भी तब तक सार्थक नहीं है, जब तक इस राष्ट्र की नारियां सुरक्षित नहीं हैं।

हां इस अमिट सत्य का ठीक पश्चात एक अटल सत्य यह भी है, कि हमारे देश की नारियों के लिए इस आज़ादी का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वह जिस्मानी रूप से सुरक्षित नहीं हैं। हमारी हिन्दी में इज़्ज़त, अंग्रेजी में स्टैंडिंग और उर्दू में आबरू शब्द मात्र एक भाषाई शब्द मात्र बन कर रह गए हैं। असल में इनका अर्थ चरितार्थ होना बहुत मुश्किल हो गया है।

आदरणीय जयशंकर प्रशाद जी के कामायनी कि नायिका श्रद्धा द्वारा बताना की, "नारी प्रेरणा कि स्त्रोत है।", आदरणीय धर्मवीर भारती की रचना 'गुनाहों के देवता' में नायिका सुधा द्वारा पिता व अपने आराध्य के मान खातिर सुधा का त्याग, व अन्य महान रचनाकारों द्वारा नारी को "श्रद्धा" व "शक्ति" का स्त्रोत बताना, पूजनीय बताना, यह सब वार्ताएं मात्र कहानी कि एक पात्र मात्र रह गई है। यह सभी उपमाएं किताबों में ही तब कर रह गई हैं।

"अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी,

आंचल में है दूध, और आखों में पानी!"

आदरणीय मैथिली शरण गुप्त जी की यह पंक्तियां वर्तमान की व्यथा बयां करती नज़र अा रही हैं। तमाम तरक्कियों के बावजूद आधुनिक महिलाएं अबला ही हैं।

"गुजरती हूं, मैं जो किसी कूचे से

बिचारा रूह सहम सा जाता है,

कि कहीं उसकी मोहतरमा जिस्म पर

कोई आंच ना अा जाय।।" (स्वरचित)

आज की नारियां तमाम मुश्किलों का सामना कर के अपने अडिग हौसले व संघर्षों के सहारे हर मुकाम हासिल कर के दिखा रही हैं। उनमें अब किसी विषम परिस्थितियों में भयभीत नहीं होती। फ़िर भी जब बात उनके सुरक्षा कि आए तो उनमें एक असहज सा भय झलकता है। जिससे प्रतीत होता है, कि उनकी आबरू कितने खतरे में है। हालाकि हर एक घटना घटित होने के पश्चात सरकार इस मसले के हल हेतु कुछ क्षणिक प्रयास अवश्य करती है। जिसका अत्यंत संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है...

यह कहना निश्चय ही निरर्थक नहीं होगा कि हाल में महिलाओं के संग हो रहे दुष्कर्मों के विरोध तथा इस सोचनीय दशा से निजात पाने के खातिर सरकार अनेकों कदम उठाती अा रही है। अब वह बाद की बात है, कि इस कदम में सफलता की प्रतिशत कितनी है, अथवा यह कदम ठोस रही या ठग! यदि इतिहास का अवलोकन करें, तो पन्ना पन्ना इस वार्ता का मसलन रहा है कि, जब जब किसी ज़ुल्म के ख़िलाफ़ प्रत्येक बार ठोस कदम उठाया गया है, तब तब कुछ विफल प्रयत्नों के बाद एक सफल परिणाम भी हाथ अवश्य आया है। किन्तु विचार कीजिये कि अगर कदम ही ठोस व गंभीर ना हो तो क्या हो?

दिन, हफ़्ते, महीने या कुछ अब्द नहीं बल्कि एक शादी बीत जाएंगे परन्तु हम अमुक दुष्कर्म से निजात ना पा सकेंगे।

अवश्य ही हमारे सरकार ने नारी जगत के अनगिनत क्षेत्रों में बहुत सी ऐसे नीति अपनाई है, ऐसे कदम उठाए हैं, जो अति शीघ्र सफल रहे हैं। लेकिन यह नारी जीवन के अन्य पहलुओं की बात है। जहां कदम ठोस रहे तो नतीज़ा भी ठोस आया। किन्तु बात नारी के देह कि सुरक्षा की करें, उसकी आबरू कितनी महफूज़ है, यह देखें तो हमारी जनता इतनी भी अनभिज्ञ नहीं की इस मुद्दे में वह सरकार के ढिलेपन को सरासर नज़रों से ओझल होने दे। इतना ही नहीं सरकार स्वयं भी जानती है, कि इस मुद्दे में उनकी नीतियां, उनके कदम असफल क्यों रह जाते हैं... भाई भतीजावाद, मित्रतावाद, जातिवाद, धार्मिक आड़, सत्ता का लोभ जैसे अनगिनत तथ्य इनकी नीतियों के असफलता के कारण बनते हैं। और यदि भाग्य या विधाता के रहम से दुष्कर्मी पकड़ा भी जाय तो हमारे देश की न्याय व्यवस्था कछुए कि चाल से भी धीरे अपने न्याय का चक्र पूरा करती है। दुष्कर्मियों को मुफ़्त में धरती का धान खा कर पचाने तक का पूरा पूरा समय देती है। और पीड़िता व पीड़िता के परिवार के अदालत के चक्कर लगाते लगाते चप्पल के फीते टूट जाते हैं। जिसका सबसे गंभीर उदाहरण 2012 का निर्भया कांड, 2018 का आसिफा केस व हाल ही में 2020 मनीषा वाल्मीकि के संग हाथरस में हुआ दुष्कर्म है। गौरतलब यह है, कि प्रति वर्ष हमारे देश में ऐसे सैकड़ों घटनाएं घटित होती हैं, जिन्हें बड़े आसानी से दबा दिया जाता है।

बात अगर निम्नलिखत दुष्कर्म से निजात पाने के युक्ति की हो तो इस मामले में सर्वप्रथम सरकार द्वारा अत्यंत ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। जैसे दुष्कर्मी पुरुषों को नपुंसक बना दिया जाय, तथा हाल फ़िलहाल में बांग्लादेश ने दुष्कर्मियों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए उम्र कैद कि सज़ा को बढ़ा कर फांसी कि सज़ा में तब्दील किया है। ठीक ऐसा ही कदम भारत सरकार द्वारा भी उठाया जाना चाहिए। और बात पीड़िता को न्याय दिलाने की हो तो इस मुद्दे पर भारतीय न्याय व्यवस्था को गंभीर रूप से कार्य करने की नितांत आवश्यकता है। हाल में चल रहे केस को कुछ क्षण के लिए रोक कर सर्वप्रथम इस मुद्दे पर ध्यान आकृष्ट करने की आवश्यकता है। ठीक वैसे जैसे हमारे देश में एक लम्बी ट्रैफिक के बावजूद एम्बुलेंस को सर्वप्रथम रास्ता देने का प्रावधान है। रही बात नारियों के आत्मनिर्भरता की तो प्रत्येक भाई, पिता व माता को अपने बेटियों को बेलना चौकी व सुई धागा से पूर्व अपने प्रति हो रहे दुर्व्यवहारों के ख़िलाफ़ कठोर विरोध करना सीखाना चाहिए।

महिलाओं की स्थिति की बात अगर इतिहास से करे तो भारत में महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। हम सभी जानते है कि सिंधु घाटी सभ्यता का समाज मातृसत्तामक था। हालांकि उसके बाद वैदिक युग पितृसत्तात्मक जरूर था। फिर भी वैदिक युग मे भी महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ थी। परिवार व समाज में उन्हें सम्मान प्राप्त था, संपत्ति में उनका बराबरी का हक था। सभा व समितियों में वे स्वतंत्रता पूर्वक भाग लेती थी। सांस्थानिक रूप से महिलाओं की अवनति उत्तर वैदिक काल से शुरू हुई। उनकी उन्मुक्त्तता एवम स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए गए। उनके लिए निंदनीय शब्दों का प्रयोग किया गया। मध्यकाल में तो इनकी स्तिथि और भी बदतर हो गई।

ख़ैर आज के भूमंडलीकृत विश्व में भारत और यहां की महिलाओं ने एक अत्यतँ सम्मानजनक जगह हासिल कर ली है। आंकड़े बताते है कि प्रतिवर्ष कुल परीक्षार्थियों में 50% महिलाये मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण करती है।

फिर भी इन सबके बावजूद स्त्री और मुक्ति आज भी नदी के दो किनारों की तरह है जो अब तक मिल नहीं पातीं।

ख़ैर नारियों के वर्तमान स्थिति पर कोई मौखिक अथवा लिखित चर्चा छेड़ कर उस पर विराम देना वास्तव में संभव नहीं है, और तब तक जब तक कि इन्हें वास्तव में इस पीड़ा से मुक्ति ना मिल जाय।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract