अपनी सुनों
अपनी सुनों
नेहा जब छोटी थी तब उसे लगता कि जल्दी से वह बड़ी हो जाये क्योंकि उसे किसी का डाँटना और टोकना पसंद नहीं आता था।
उसे अपनी मर्जी से जीने का मन करता था, उसे भी खेलना कूदना अच्छा लगता था, पर घर वाले हमेशा, पढ़ाई पढ़ाई करते थे।तब उसे बहुत गुस्सा आता और रोना भी।वह सोचती थी कि जब वह बड़ी हो जाएगी तो कोई उसे कुछ नहीं कहेगा।
वक़्त बीतने में कितना समय लगता है, अब वह बड़ी हो गई, बड़ी होने के साथ उसकी जिम्मेदारी भी बड़ी हो गई। अब घर वाले उसके कैरियर और शादी की चिंता करने लगे। कोई कहता कम खाओ मोटी हो गई है, मेहनत करो, कैरियर बनानी है, बड़ी हो गई है अपनी जिम्मेदारी समझो।
नेहा अब भी उदास परेशान रहती, पर अब उन्हें घरवालों की बातें बहुत चूभती। फिर वह खुद को समझाई कि वह किसी की बात पर ध्यान नहीं देगी और खुश रहेगी। लोगों का काम तो कहना है, मैं अपनी ज़िंदगी खुद सँवारूँगी, अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी और हमेशा अपने दिल की सुनूँगी।
अब वह लोगों के ताने मारने पर गुस्सा नहीं होती थी बल्कि मुस्कुरा देती थी। उसे ख़ुश रहने का मूलमंत्र मिल गया।
