अपनी अदालत
अपनी अदालत
सब के साथ मैं भी ख़ुश थी खाना पीना मौज मस्ती सब मैं भी सबकी नज़रों में इंजोय कर रही थी।
अपने मन को समझा कर की सब कुछ ज़रूरी है समाज में।
ढोलक की थाप पर ख़ुशियों भरे गीत गाने में मैंने भी कहाँ कोई कसर छोड़ी थी।
आख़िर बुआ जी की बेटी के रोका का मौक़ा था।
सुबह से ही साड़ी गहना पार्लर की बातें और खाना नाश्ता सब साथ-साथ ही चल रहा था।
बहू और भाभी का पूरा फ़र्ज़ दिल लगा कर निभाया मैंने बिना किसी भी न नुकुर के।
वैसे परिवार में सभी पढ़े-लिखे और धन सम्पदा से सम्पन्न थे।
तो कोई भी काम पुरानी भाभियों के जैसा चूल्हे-चौके का नहीं था।
बस सब के साथ उनकी हँसी में अपनी हँसी को प्रवाहित करना था।
और कभी नये बने रिश्तेदारों की बुराई तो कभी इसकी उसकी सास,ननद या चाची वैग़ैरा की बुराई का श्रोता बन बे वजह मुस्कुराना था।
तभी बड़ी बुआ जी की बेटी ने मुझ पर चुटीला सा प्रहार करते हुए कहा।
“भाभी आप कहीं अपनी कविता-कहानी न सुनाने लग पड़ना की हम लोगों को झेलना पड़ जाये आज कल बड़ी फ़ेमस हो रही हो साहित्य में जब-तब छाई रहती पत्र पत्रिका और फ़ेस बुक पर।”
और एक चुभता हुआ ठहाका मुझे अंदर तक बींध गया।
ये मेरा अपना शौक़ था जो किसी को भी डिस्टरब नहीं करता था।
मैंने सुर्ख़ हो गये अपने चेहरे पर अपनी लम्बी मुस्कान सज़ा ली।
फिर ख़ुद को अपने ही बनाए कटघरे में खड़ा कर सवाल पर सवाल दागने शुरू कर दिये।
आख़िर कब तक सभी रिश्तों को निभाने के लिये अपने सपनो की सुगम राह का रोका ख़ुद बख़ुद करती रहोगी।
एक और सवाल वक़ील बने मेरे मन ने मुझसे किया।
ऐसे ही कई मौक़ों पर छोड़े वह सभी मौक़े जो मुझे कई पायदान आगे बढ़ा सकते थे।
जो मुझे आज तक याद हैं क्या किसी ने कभी सोचा भी उन पर?
अब तक की सारी दलीलें सुन न्यायाधीश बने मेरे दिल ने मुझे निर्णय सुना दिया।
और अगले ही पल बिना देर किये मैंने अपनी शाम की फ़्लाइट बुक कर अपने स्थगित किये साहित्यिक सम्मान समारोह में जाने की घोषणा कर दी।
अब तक मेरे साहित्य प्रेम पर लगने वाले सभी ठहाकों को एक नई पंचायत का कारण मिल गया था।
पर मैं अपनी अदालत में अपना केस जीत चुकी थी।
