अपने लोग
अपने लोग
कई वर्षों बाद साक्षी अपने मायके आई ।यद्यपि यहां अब कोई भी अपना नहीं था ।माता पिता के गुजरने के बाद घर खंडहर जैसी स्थिति को प्राप्त होने को था।भाई भी विदेश में बस गया।
साक्षी को एक बार अपना घर देखने की प्रबल इच्छा थी।बचपन के दिनों को एक बार महसूस करना चाहती थी।
वह अपनी बेटी सपना के साथ सुबह आई ,
सोचा वहां रहना तो मुश्किल ही होगा।किसी होटल में रह लेंगे। अतः पूरा दिन एक एक जगह घूम लेंगे और यादों को मन में,और कुछ जगहों को कैमरे में कैद कर लेंगे।
एक बेटी के लिए तो मायके की छोटी से छोटी वस्तु कितनी प्यारी और महत्त्व पूर्ण होती है उसे वही समझ सकती है।
साक्षी और सपना ने मिल कर आंगन की सफाई शुरू ही की ताकि द्वार खोला जा सके।कुछ घर की दयनीय हालत और धूल से आंखे भर आई।
तभी दो तीन महिलाएं आ पहुंची।एक दूसरे का परिचय मिलते ही वे ऐसे गले मिली मानों मां बेटी मिल रही हों। झट से उसके हाथ से झाडू खींच अपने घर ले जाने लगी। चाय नाश्ता करवाया।बोली बच्चे साफ सफाई करेंगे
उसके बाद ही देखना।फिर उनके परिवार की बातें बहुत देर तक होती रहीं
साक्षी ने होटल जाने की बात की तो सभी कुछ नाराज़ सी होकर बोली " बेटी ! मायके।आकर कोई होटल नहीं।इतने वर्षों बाद आई हो।हम सब तुम्हारे अपने ही हैं।चाची ,ताई ,बुआ, भाई -बहन।चाचा, ताऊ , दादा ,दादी। सभी तुम से मिलकर खुश होंगे।"
उन सबके आत्मीय व्यवहार से साक्षी का मन गदगद हो उठा।आंखों से आंसू छलकने लगे।
सपना तो इतना हैरान थी कि मां से पूछ बैठी
"मां यहां तो हमारे इतने अपने लोग है ,तुम तो बेकार ही चिंतित थी ।कितने अनकहे रिश्तों की सौगात मिली यहां आज।" अब आम यहां आते रहेंगे न माँ ?
