बेटे का फर्ज
बेटे का फर्ज
रुक्को ताई अब थक कर अपने कमरे में जा बैठी। आज पति का पहला वार्षिक श्राद्ध था। कई दिन से तैयारी में लगी थी। उसे पूरी उम्मीद थी कि तीनों बेटे समय पर पहुंच जाएंगे। पर रात जब सबको फोन किया तो सभी ने कुछ न कुछ ज़रूरी काम का हवाला देकर मज़बूरी जता दी। बूढ़ी माँ को समझते देर न लगी कि अब उनके जीवन में उनका कोई स्थान नहीं। पिता जब तक थे उनके लिए बैंक थे। हर ज़रूरत पूरी करते। उनके जाते ही यह प्रश्न उठ गया अब माँ किसके साथ रहेंगी। तेरहवीं तक तीनों भाइयों ने अपनी अपनी असमर्थता बता दी।
तब ताई ने हो कहा था "अभी साल भर तो यहीं रहना होगा मुझे। "
यह सुन सभी ने चैन की सांस ली। जबकि पिता जी के बैंक बैलेंस और ज़मीन मकान का हिसाब को तो श्मशान से लौटते ही होने लगा था। वो तो पड़ोसन चाची ने ही टोक दिया
" बेटों! सुनो बुरा न मानना। रुको सिर्फ पिता जी ही गए हैं तुम्हारे, बाकी सब तो यहीं है। ये बातें बाद में भी हो सकती हैं। अभी माँ को देखो और अन्य काम पर ध्यान दो, अभी माहौल देखो " यही बातें अब उन्हें याद आ रही थीं। सुबह से ही वह भारी मन से काम करने लगी। मन बेचैन और उदास था। तभी पंडित जी आ गए थे। सारी बातें जान कर उन्होंने सांत्वना दी।
"बहन जी ! चिंता न करें। मैं सब संभाल लूंगा। वैसे ही कर्म काण्ड तो हमारा क्षेत्र है मनुष्य की भावना श्रेष्ठ है।"
तभी रूक्को ताई का भतीजा और कुछ रिश्तेदार भी पहुंच गए। भतीजे ने तर्पण और श्राद्ध का जिम्मा ले लिया। ताई अभी अपने परायों के इन्हीं विचारों में खोई थी कि भतीजे ने वापस जाने की आज्ञा मांगी। ताई ने अश्रुपूरित नेत्रों से उसे बहुत देर तक निहारा और उसे हृदय से लगा लिया।
"बेटे! आज तुमने असली बेटे का धर्म निभाया,क्या कहूं ? मैं भी तुम्हारे लिए कुछ कर पाऊं तो ?"
भतीजे ने भी गले लग पैर छुए "ताई माँ ! सदा आशीष देती रहना" कह एकदम निकल गया।
