अपना काम
अपना काम
मैं अनिर्णय की स्थिति में था। कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। लेकिन फैसला तो लेना ही था। अब और इस मुद्दे को टाला नहीं जा सकता था।
ज़िंदगी का भी बहुत ही अजब तरीका है। कभी आप एक चीज़ के लिए तरसते हैं तो कभी आपके सामने चुनाव की स्थिति खड़ी हो जाती है। जैसा कि मेरे साथ हुआ था।
दरअसल किस्सा यूं है कि स्नातक हो जाने के बाद मैंने विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के इम्तिहान देने शुरू कर दिए थे। पर तीन साल दिन रात एक कर देने पर भी कुछ हासिल नहीं हुआ।
इस बात से मैं परेशान हो गया था। लोग पूँछते कि क्या कर रहे हो तो मेरा जवाब होता प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूँ। इस पर उनका जवाब होता कि अभी तक कुछ हुआ नहीं। तब मुझ पर जो बीतती वह बयां नहीं कर सकता हूँ। अतः मैंने भी आखिरी प्रतियोगी परीक्षा देने के बाद कि यह मानते हुए कि कुछ नहीं होगा अपना रोजगार करने का निर्णय लिया।
मेरा संबंध गांव से था। किसानी हमारा मुख्य पेशा था। पिताजी बटाई पर खेती कराते थे क्योंकी कोई देखने वाला नहीं था। मैंने पिताजी से कहा कि वह खेत मुझे दे दें।
उनसे खेत लेने के बाद मैंने उनमें पारंपरिक खेती के स्थान पर फूलों की खेती आरंभ कर दी। ऐसा नहीं था कि मैंने बिना विचारे ही यह काम शुरू किया था। मैंने देखा था कि शहर में फूलों की बेहद मांग है। मैंने फूलों की खेती के बारे में भी कुछ जानकारियां जुटाई थीं।
ईश्वर का नाम लेकर अपने बड़ों की रज़ामंदी से मैंने फूलों की खेती आरंभ कर दी। आरंभिक मुश्किलों के बाद काम चल पड़ा। मैंने कुछ आदमी रख लिए। कुछ खेती में मदद करते थे। कुछ फूलों को शहर पहुँचाने का काम करते थे।
मैं शहर जाकर होटल, रेस्टोरेंट, मैरिज हॉल तथा फूलों की दुकान वालों से संपर्क करता था। उनकी मांग के हिसाब से फूलों की सप्लाई करता था। मौसम के अनुसार फूलों की मांग देख कर अलग अलग किस्म के फूल उगाता था। दो सालों में मैं एक सफल व्यापारी बन गया था।
अभी कुछ दिनों पहले मेरे पिता के फुफेरे भाई जो कई सालों से मुंबई में थे का गांव आना हुआ। चाचाजी मेरे काम को देख कर बहुत खुश हुए। उनका मुंबई में एक थ्री स्टार होटल था। चलते समय उन्होंने मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा।
"तुम चाहो तो मेरे होटल की ज़िम्मेदारी संभाल लो। मैं तुम्हें मुनाफे का बीस प्रतिशत दूँगा। तुम मेरे होटल के बारे में पता कर सकते हो। मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि यहाँ जो कमाते हो उससे बहुत अधिक मिलेगा।"
मैंने इंटरनेट पर उनके होटल के बारे में पढ़ा। लोगों ने होटल के बारे में अच्छी प्रतिक्रिया दी थी। चाचाजी यह कह कर चले गए कि सोंच लो पर महीने भर में अपना निर्णय दे देना।
उनके जाने के बाद मैं कई दिनों तक इस बात को टालता रहा। पर परसों चाचाजी ने फोन कर कहा कि इस हफ्ते के अंत तक जो हो बता दो। तबसे मैं इसी बारे में सोंच रहा था।
चाचाजी का ऑफर लुभावना था। उन्होंने सैलरी की जगह मुनाफे का हिस्सा देने की बात कही थी। यदि मैं उनका ऑफर मान लेता तो पहले से अधिक कमाई के साथ महानगर में रहने को मिलता।
दूसरी तरफ यदि मैं अपने काम को ही जारी रखता तो मैं अपना मालिक खुद होता। अपनी मेहनत से अपना कारोबार और अधिक बढ़ा सकता था। तब सौ फीसद आय मेरी होती।
मैंने स्थिति को दोनों तरफ से जाँच कर देखा था। दोनों ही स्थितियों के अपने फायदे और नुक्सान थे।
लेकिन निर्णय तो मुझे लेना ही था।
मैं अपने खेत पर गया था। वहाँ काम का जायजा ले रहा था। उसी समय दो लड़के मेरे पास आए। दोनों की उम्र बीस इक्कीस साल होंगी। उन्होंने मुझे नमस्ते कर कहा।
"भइया आप हमारी प्रेरणा हैं।"
मैंने आश्चर्य से पूँछा।
"क्यों ?"
"सर आपने हमें राह दिखाई कि हम अपने पारंपरिक काम को अगर समय के अनुसार ढाल लें तो कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं। हम अपने काम से पैसा कमा सकते हैं। हमने भी ऐसा ही करने का फैसला किया है।"
अपनी बात कह कर वह चले गए। मुझे भी अब कोई संदेह नहीं रहा था।
मैंने चाचाजी को फोन कर विनम्रता से कह दिया कि मैं अपने काम से बहुत खुश हूँ।
