अंतर्द्वंद
अंतर्द्वंद
आज सुबह से ही मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, हो भी क्यों न अंततः तीन वर्ष पश्चात हम एक दूसरे से मिलने जो वाले थे। क्या पहनूँ क्या ना पहनूँ मन इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था रवीन्द्र से मेरा परिचय एक सोशल नेटवरकिंग साइट के माध्यम से हुआ था। उस वक्त मैं बी.टेक तृतीया वर्ष की छात्रा थी और रवीन्द्र एम बी ऐ प्रथम वर्ष के छात्र थे। शुरुआत में एक वर्ष तक हमारी सिर्फ हाय -हैलो ही हो पाती थी। परंतु अंतिम वर्ष में आते आते थीसेस कार्य की वजह से हमारी बातचीत का सिलसिला बढ़ गया था। कभी कभी यह मेरे थीसिस कार्य में सहायता भी कर देते थे। इस तरह बी टेक समाप्त होते होते हम एक दूसरे को अच्छी तरह समझने लगे थे। इतने दिन चैट पर बात करने के बाद भी हमें कभी फोन पर बात करने की या मिलने की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई। इन्होंने अपना फोन नम्बर मुझे ईमेल कर दिया था कि अगर कभी मेरा मन हो तो मैं काँल कर सकती हूँ। जैसे जैसे समय बीतता गया हम कब एक दूसरे को पसंद करने लगे हमें पता ही नहीं चला। आज रवीन्द्र ने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो मैंने हँस कर उत्तर लिखा कि ऐसी बाते चैट पर नहीं होती हैं तो इन्होंने मिलने के लिए कहा और मैं मना नहीं कर पाई। परंतु आज अखबार में यह खबर पढ़ कर कि एक लड़के ने लड़की को मिलने के बहाने बुलाकर अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसे धोखा देकर उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ किया। इसलिए जहाँ दिल उनसे मिलने के लिए जितना खुश था मन वही डर की वजह से चिन्तित था। दिल और दिमाग़, प्रेम और कर्तव्य के अंतर्द्वंद में फंस कर रह गया था। दिल कह रहा था कि रवीन्द्र औरों की तरह बिलकुल नहीं है वही दिमाग़ कह रहा था कि प्यार में अंधा होना भी ठीक नहीं है। फ़िर मैंने एक निर्णय लिया कि मेरे किसी भी काम की वजह से मेरे पापा की प्रतिष्ठा समाज में धूमिल नहीं होनी चाहिए ,और मैंने अपनी छोटी बहन को फोन कॉल करके रवीन्द्र से मिलने के बारे में बता दिया और यह भी कहा कि अगर मैं एक घण्टे मे वापस ना आई तो वो पिता जी को सब कुछ बता दे।
मैंने ना चाहते हुए भी पेप़र स्प्रे की एक बोतल अपने पर्स में रख ली , फिर मैं तैयार होकर नियत समय एवं नियत जगह पर पहुँच गई। गाड़ी का नम्बर ढूँढते ढूँढते नज़र एक नौजवान पर रुक गई जो पहले से ही मुझे एक टक देख रहे थे, उन्होंने नेबी ब्लु रंग का पुलोवर पहन रखा था। मैं कुछ कह पाती उससे पहले ही वह बोले " हैंलो आई एम रवीन्द्र।" मैंने हाय किया और कहा कि मुझे एक घण्टे में वापस घर पहुँचना हैं, आप बताए कि क्या प्लान हैं। इन्होंने हँसते हुए कहा कि -"जो आदेश मैडम का।" इनसे मिलकर मेरा सारा डर जाता रहा। कुछ ही देर में हम बरिसता की कॉफी के साथ यह चर्चा कर रहे थे कि अब घर वालों को शादी के लिए कैसे मनायेंगे ।फिर इन्होंने नियत समय पर मुझे बाहिफाजत घर छोड़ दिया। घर पहुँच कर मैंने अपनी बहन और रवीन्द्र को मैसेज किया कि मुलाकात अच्छी रही।
आज दस वर्ष बाद सब कुछ एक सपने सरीखा लगता है। हम दोनों आज शादी की दसवीं वर्षगांठ पर सुबह से पूजा और पार्टी की तैयारियों में व्यस्त थे। तभी मुझे याद आया कि अभी तक डेकोरेशन वाला नहीं आया है। मैंने उसे फोन कॉल करने के लिए जैसे ही फोन उठाया किसी ने पीछे से मेरे कान में धीमे से कहा कि-"पेप़र स्प्रे गर्ल कोई शक।" मैंने डर के सहसा पीछे देखा तो यह सीने पर हाथ बांधे खड़े मुसकुरा रहे थे। एक दूसरे से नज़र मिलते ही हम खिलखिला कर हँस पड़े।

