अंतिम दर्शन
अंतिम दर्शन
बात 1984 की हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में दंगों की वजह से अशांति और असुरक्षा और हिंसा का माहौल व्याप्त था। लोग डर की वजह से घरों में दुबके हुए थे।
मैं अपने परिवार के साथ शहर के जिस क्षेत्र में रहती थी वो हिंदू बाहुल्य क्षेत्र होने की वजह से शांत था और अभी तक किसी भी अप्रिय घटना से बचा हुआ था। मुझे अगली सुबह मेरे भाई का तार मिला कि माँ की हालत बहुत गंभीर हैं और कल उनका आपरेशन है। वो बस तुमसे मिलने की रट लगाए हुए हैं ,जितनी जल्दी हो तुम आ जाओ। खबर मिलते ही मेरा मन उन्हें देखने के लिए व्याकुल हो उठा। तीन भाई -बहनों में सबसे छोटी होने की वजह से माँ का मेरे प्रति स्नेह सबसे अधिक था। मैंने तुरंत अपने जाने की तैयारी शुरू कर दी। एक घण्टे बाद मैं अपने पति विनोद एवं बच्चों के साथ घर से निकल पड़ी। घर के पास कोई रिक्शा नहीं दिख रहा था किंतु रेलवे स्टेशन पास ही होने की वजह से हमने पैदल ही स्टेशन जाने का निर्णय लिया ताकि समय बरबाद न हो। स्टेशन पहुँच कर पता चला कि इंदौर जाने वाली सारी गाड़ियाँ निरस्त कर दी गई हैं। कोई और उपाय न देखकर हमने बस स्टेशन जाने का निर्णय लिया। वहाँ पहुँच के पता चला कि अगली बस दो घंटे बाद की है। मायूस होकर दो घंटे इंतजार के बाद हम बस में सवार हो गए। जगह- जगह कर्फ़यू व रोड डायवर्जन की वजह से हम नियत समय से चार घंटे विलंब से अगली सुबह इंदौर पहुँच पाए। जब तक हम अस्पताल पहुँचे तब तक बहुत देर हो चुकी थी, मेरी माँ हमें हमेशा के लिए छोड़ के जा चुकी थी।
मेरा रो रो के बुरा हाल हो रहा था। विनोद ने किसी तरह मुझे संभालते हुए डाक्टर से बात की तो पता चला कि भाई व घर के बाकी लोगों को माँ के पार्थिव शरीर को घर ले जाए हुए दो घंटे हो चुके हैं। हम जल्दी जल्दी घर पहुँचे तो वहाँ से सब मेरा काफी देर इंतजार करने के बाद घाट दाह संस्कार के लिए जा चुके थे।
दंगों की वजह से, मेरी कोई खबर न होने की वजह से एवं डाक्टर के कहे अनुसार कि माँ के शव को ज्यादा देर रखना ठीक नहीं है, भाई को व पिता जी को माँ को घाट ले जाना पड़ा। पड़ोस के एक चाचा जी ने यह सब हमें बताया और इसके बाद वह स्वयं हमें अपनी गाड़ी से घाट ले कर पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर जैसे ही भाई ने मुझे देखा वह तुरंत हमें घाट पर नीचे लेकर गए ।
किंतु जब तक मैं वहाँ पहुँची केवल उनके महावर लगे चरणों के ही दर्शन कर सकी।। एक अन्तिम बार मैं उनको स्पर्श भी न कर पाई। इतना असहाय इतना लाचार मैंने अपने आप को कभी न पाया था।
अपनी जान से प्यारी माँ को शून्य में विलीन होते देखने के अलावा मैं उस दिन कुछ न कर सकी। उन्हें देखने , उनसे बात करने की कसक मेरे दिल में
ता उम्र रहेगी।
इन दंगों ने मेरे अलावा न जाने और कितनों का सुकून, शांति और परिवार छीने होगे, यह सोच कर ही रूह कांप जाती हैं।
महात्मा गांधी जी ने सही कहा था "आंख के बदले आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी "
अतः ऐसी परिस्थिति में हम सभी को अपने विवेक और संयम से काम लेना चाहिए ताकि देश और समाज को ऐसी भयावह स्थिति से बचाया जा सके।
