Dr. santosh vishnoi

Tragedy

4.8  

Dr. santosh vishnoi

Tragedy

अनकहे से फ़ासले

अनकहे से फ़ासले

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मुझे याद है मैं कुछ दिनों से बीमार महसूस कर रही थी, तमाम परहेज के बावजूद ठीक नहीं हो पा रही थी। एक शाम को अस्पताल के एक बेंच पर बैठी थी। हाथ में मेडिकल रिपोर्ट लिए। बुत बन कर कब तक बैठी रही नहीं जानती। तुम आज भी नहीं आये थे मेरे साथ। दरअसल लग रहा था कई दिनों से तुम दूर दूर भाग रहे थे। बस ये नहीं समझ पा रही थी तुम मुझसे दूर भाग रहे थे या अपने आप से। पास पड़ी हुई वो मेडिकल रिपोर्ट किसी अजगर की भाँति लग रही थी, जैसे वो मुझे धीरे धीरे अपने में समेट लेगी। दिल भरा हुआ था और दिल का गुब्बार निकालना चाहती थी लेकिन आँखे हैं कि साथ ही नहीं दे रही। आँसू पता नहीं अंतर के किस कोने में धूमिल हो चुके थे। 

अस्पताल से निकलना तो था ही लेकिन कहाँ जाऊँ। 


घर!!!!!! 


 घर है ही कहाँ। वो तो बस चारदीवारों से घिरा हुआ मकाँ है जो अपने आप में राहगीरों की पनाहगाह का सबूत देता है। 

घर आयी और उन रिपोर्टस को किसी दराज़ में कैद कर दिया गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं। जानती थी उसका तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं होंगे। तीन दिन के बाद तुम घर आये, लेकिन तुम्हे देख कर भी मेरे मुरझाये चेहरे पर भी कोई खास फर्क मैंने महसूस नहीं किया । शाम को खाने के बाद तुमने ही बात शुरू की। मुझे लगता हैं हमारा दोनों के लिए अब अलग हो जाना बेहतर है। मुझे ऑफिस से प्रोमोशन मिला है। मैं और शीतल सोच रहे हैं कि अब साथ ही रहे। तुम और मैं तो वैसे भी कभी साथ हैं नहीं, तो फिर जीवन भर इसे और क्यूँ ढोना। 

मेरे मुँह से सिर्फ 'हुं' ही निकल पाया था। 

तुम बोल कर आदतन उठे और बिना मेरी तरफ देखे बेडरूम की तरफ चले गए। मैं वैसे ही बैठी रही थी। समाने प्लेट में खाना परोस रखा था। ऐसा नहीं है कि मेरे मन में कोई दुःख जैसा भाव आ रहा था। या तुमसे कुछ शिकायत कर रही थी। पता तो मुझे भी था ये एक दिन आएगा... तुम नहीं कहते तो शायद मैं ही कह देती..... 

खाने को थोड़ी देर विराम देकर मैं कुर्सी के सहारे आराम की मुद्रा में बैठी, आँखों से चश्मा उतारा और हाथ में लिए विचारों के घोड़े दौड़ाती रही। 


 घर वालों के खिलाफ जाकर तुमसे शादी की थी। तब तो प्रेम का जादू सिर पर सवार था। तुम्हारे अलावा मुझे इस संसार में कोई नज़र ही नहीं आता था। पिता तो थे नहीं मेरे। माँ थी जो दो भाईयों के साथ रहती थी। जब उन्हें बताया तो भाइयों ने उल्टा माँ को ही सुना दिया था - लो ओर भेजो घर से दूर पढ़ने। दिल्ली जैसी जगह ने लड़की का दिमाग फेर कर रख दिया। यहाँ बुलंदशहर में रहती तो कभी हाथ से तो ना जाती। माँ तब भी कहाँ कुछ बोल पाई थी। दोनों भाईयों ने तुगलकी फरमान सुना दिया था। अगर दूसरे बिरादरी में विवाह करने का सोचा तो इस घर का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। लेकिन मैं कहाँ मानने वाली थी। 

आखिर शादी तो तुमसे ही की। तुम्हारे घरवाले भी इस शादी के खिलाफ थे, लेकिन वो तुम्हे तो अपनाये हुए थे बस मेरे लिए ही बहु की जगह नहीं बन पाई थी कभी। खैर मैंने भी कब तुमसे शिकायत की थी।। 

तुम अकेले ही हो आते थे कभी कभी बीच बीच में अपने घर। प्यार का परवान कुछ दिनों तक कायम रहा फिर आयी जीवन की ज़मीनी हकीकत। तुम दिनभर की नौकरी के बाद जब घर आते वजह बेवजह झलाने लगे थे। मुझे लगा घर की जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ रही है तो तुम परेशान हो रहे हो। जल्द ही मैंने भी एक स्कूल की अध्यापिका की नौकरी पकड़ ली। 


लगा था तुम्हारी जिम्मेदारी को हलका करूँगी। लेकिन जब तुम्हे बताया तो तुम भड़क उठे । --

'मैं क्या कम कमाता हूँ, या तुम्हे किसी चीज की कमी है', 'फिर क्यों नौकरी का बहाना करके बाहर जाना है।' 'क्यो ये अहसास दिलाना चाहती हो कि मैं तुम्हारी जरूरते पूरी नहीं कर पा रहा हूँ।'......

पहले सोचती थी शायद हमारा कोई बच्चा होगा तो हमें घर वाले अपना लेंगे। लेकिन में माँ नहीं बन पा रही थी। ऐसे में तुम्हे समझाया भी था क्या करूँगी पूरे दिन घर पर बैठ कर। लेकिन तुम नहीं माने, फिर मैं भी जिद कर बैठी। जब तुम नौकरी कर रहे हो तो मेरी नौकरी करने में क्या हर्ज है। बस वही हमारी अहम् की पहली जड़ जमी।


समय के साथ हम भी चलते रहे। 


हम दोनों एक ही घर में किराएदार की भाँति रहने लगे। दोनों के बीच मन और शरीर का जरूरत भर का रिश्ता शेष रह गया था। शादी के 5साल गुजर गए। हम माँ बाप नहीं बन पाए। तुम्हारे घर वाले दबी ज़बान से बोलते एक बांझ से शादी करने से अच्छा था बिना शादी किये ही रह जाता। मैं हर दिन टूटती थी। तुमसे बात करने की कोशिश करती लेकिन तुम तो ना जाने कौनसे पश्चाताप की मुद्रा में दूर होते चले गए। तुम्हें लगता तुमने घरवालों के खिलाफ़ शादी करके बहुत बड़ा गुनाह कर दिया था। लेकिन तुमने कभी सोचा मैंने तुम्हे पाने के लिए कितना कुछ खोया। तुम्हारे लिए परिवार में सबसे लड़ी, बाद में दुनिया से भी लड़ी। शादी के बाद भी सुखी परिवार की परिभाषा से में दूर ही रह गई। तुम्हारे परिवार ने मुझे कभी अपनाया ही नहीं। मेरे दुःख से तुम्हे क्या सहानुभूति होती तुम तो खुद अपने परिवार से दूर करने का इलज़ाम को भी मेरे हिस्से का मान परिवारवालों के दिये जाने वाले तानों को मौन स्वीकृति देने लगे। 

तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा तो मेरी जिंदगी में था नहीं जिससे अपना दुःख साँझा करती। तुम्हारी बेरूखी दिल को कुरेदती थी। धीरे धीरे तुम्हारी खीज़ तुम्हारी बातों से झलकने लगी। 

एक दिन तुम्हारा मेरी किसी बात से गुस्सा होकर घर छोङ कर चले जाना और आज पूरे तीन दिन से घर से गायब रहने ने मेरे अस्तित्व को अंदर तक झकझोर कर रख दिया। उस दिन अपने आप को असहाय महसूस करना बंद कर दिया। 

इन तीन दिनों में मैंने समझ लिया कि मेरा अब तुम्हारे लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है । उस दिन के बाद मैंने तुम्हारे जीवन में दखल देना बंद कर दिया । मेरा सारा ध्यान अब अपने आप को समेटकर बची हुई ताकत के साथ अपने आप को संवारने में लगने लगी। 

आज जब तुमने अलग होने की बात कही तो ये भी अहम् की चोट ही थी जो तुमने फिर की। कैसे बोलती तुम्हारे लिए मैंने घर छोड़ा और आज तुम मुझे छोड़ने की बात कर रहे हो। फिर लगा अच्छा ही है। कुछ निर्जीव रिश्तों मे कितना भी पानी दो उनको सूख ही जाना है। 

मैंने तलाक के कागज़ पर साइन कर के उसे टेबल पर रख दिया। साथ ही एक छोटी सी पर्ची में लिख दिया - "मैं बांझ नहीं हूं, मैं आज मां बनने वाली हूं । मैं जानती हूं कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं है। और ना ही तुम कभी पिता बनने वाले थे । मैं कभी कहना नहीं चाहती थी लेकिन आज जरूर कहूंगी कि तुम जैसे नामर्द इंसान का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है, मैं खुद तुम्हें हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं। "

मैं उठी, एक आख़िरी बार तुम्हारे कमरे में झांक कर देखा, तुम आराम से सो रहे थे। मैंने दूसरे कमरे से अपना समान साथ लिया, तुम्हे सोते हुए छोङ, एक नये जीवन की उस अनंत मंजिल की और चल पड़ी। 







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