Dr. santosh vishnoi

Tragedy

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Dr. santosh vishnoi

Tragedy

वृद्धा मां

वृद्धा मां

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हाथ में एक छोटी सी गठरी लिए, प्रौढ़ावस्था उम्र की एक महिला वृद्धाश्रम के मुख्य दरवाजे पर खड़ी थी। वो सामने बोर्ड पर लिखे शब्दों को अपनी धुंधली पड़ती दृष्टि से पढ़ने की कोशिश कर रही थी। किसी ने बताया बोर्ड पर लिखा है - 'यहां के सारे कमरे भर चुके हैं कोई कमरा खाली नहीं है। सेठ दामोदरन भाई वृद्धाश्रम ।' उम्मीद की एक आखिरी किरण थी वह भी खत्म हो चुकी। कुछ भूख या उम्मीद खोने के डर से उसको धरती घूमती हुई नजर आयी। आंखे खोली तो अपने आप को अस्पताल के बैंच पर पाया। एक डॉ और साथ में एक परिचारिका पास वाले बेड के मरीज़ को देख रहे थे। उसी मरीज की पहली दृष्टि इस वृद्धा के होश आने पर पड़ी। डॉ देखिए उन माताजी को होश आ गया। उस मरीज ने हाथ के इशारा करके डॉक्टर को बताया। डॉक्टर ने पलटकर माता जी को दूर से देखा। परिचारिका को कुछ निर्देशित कर डॉक्टर सीधा माता जी की ओर आ गए। उनकी आंखों की ओर सरसरी दृष्टि से देखते हुए पूछा क्या तकलीफ है आपको ? 

तकलीफ ये शब्द बोलने में भले ही छोटा हो लेकिन व्यक्त करने वाला व्यक्ति जानता है कि- क्या बोल कर बताई जा सकती है? तकलीफ शरीर की हो या मन की हमेशा आंखों से आंसू के रूप में ही व्यक्त हो सकती है। उस वृद्धा के साथ भी यही हुआ। तकरीबन 30 साल पहले वो इसी शहर से डॉली में बैठ कर विदा हुई थी। तब इस शहर में उसका सब कुछ था, घर - बार, मां बाप। उम्र के इस पड़ाव में वो फिर से इसी शहर में आएगी यह तो कभी उसने भी नहीं सोचा था। क्या मजबूरी थी, क्या दर्द था, जो उसे इसी शहर की ओर खींच लाई। कुछ ना कह सकी। बस भीगी पलकें कांपती हुई हथेली में पकड़े अपने पल्लू से पोंछ रही थी। साथ ही अस्पताल को फटी फटी आंखों से देख रही थी।

माताजी आपको क्या दर्द हो रहा है? बताएंगे तभी तो दवाई देंगे? सरकारी डॉक्टर खड़े खड़े थोड़ा खीज रहा था। एक एक मरीज के पास देर तक खड़ा रहे, इतना समय कहां होता है उसके पास। शायद उसे अन्य मरीज़ भी देखने थे।

" भूख लगी है".....वृद्धा थरथराते होंठों से बस इतना बोल पाई।

क्या?? जैसे डॉक्टर को ये उत्तर मिलेगा अंदाज़ा नहीं था। ये सुनकर तो सरकारी डॉक्टर का मन खिन्न हो गया। ये कोई मुफ्त का भण्डारा लगा हुआ है। ....कैसे कैसे गरीब आते हैं....भूख का इलाज करे या बीमारी का?? बड़बड़ाते हुए भी डॉक्टर ने परिचारिका को बुला माता के लिए चाय बिस्कुट मंगाया। महिला के पेट में बड़े दिनों बाद आज कुछ जाने वाला था। चाय के साथ कंप कंपाते हाथों से बिस्कुट पकड़े हुए उसके आंखों से आंसू बह चले। कोई और देख न सके इसलिए अपने आंचल के पल्लू को खींच कर आंखों के आेट कर लिया। .....

बरबस याद आया उसका 19 साल का बेटा जो उसके साथ अस्पताल में बैठा था। वो उसका इकलौता बेटा है। शादी के बाद से इसी शहर में रह रही है। शादी के दस साल होने के बाद एक तरह से उम्मीद खो जाने के बाद वो मां बनी और एक ही बेटा हुआ था। उसके बाद उसे फिर मातृत्व सुख नहीं मिला था। पति की गलत संगत के कारण शुरू से ही शराब की लत लग गई थी। पति को बीमारी ने तो बहुत पहले ही घेर लिया था। लेकिन उसके दुष्परिणाम अब दिखाई दे रहे थे। उसी का इलाज करवाने के लिए सरकारी अस्पताल के अहाते में बैठी थी। बेटा और मां पिछले दो साल से यही अस्पताल में बने हुए है। पति की लाईलाज बीमारी ने उनके घर के घुटने टिका दिए। पहले जेवर बिके, फिर घर बिका। रिश्तेदारों ने कन्नी काट ली। अब जब से अस्पताल में आए है तब से पास के मंदिर और किसी लंगर से खाकर गुजारा कर रहे थे। इन दो सालों में सरकारी अस्पताल के बेड से चिपका उसके पति का कंकाल जैसा शरीर देख कर मां और बेटे दोनों को वितृष्णा सी होने लगी थी। सांसे थम भी नहीं रही थी और अपने आप में जिंदा होने का कोई प्रत्यक्ष सबूत भी नहीं दे रही थी। सरकारी डॉक्टर की भाषा में ये कभी भी मर सकते हैं और हो सकता आगे पांच साल भी ऐसे पड़े पड़े निकाल दे। ऐसे में कोई क्या करे? न अकेला मरता अस्पताल में छोड़ सकते और ना ही फिर से जिंदा होने की उम्मीद कर सकते।

अबोध बालक के लिए सांसारिक दुनिया से अभी नाता जुड़ा ही नहीं। माता घरों में काम कर के गुजर बसर कर रही थी। वो भी अब पति की दवा दारू के बंदोबस्त में लगी हुई है। तीसरा साल लगते लगते बेटे का सब्र का बांध टूटा। वो अस्पताल में रहते हुए कई तरह के नए मित्र मंडली से परिचित हुआ। उसे बताया गया वो लोग दूसरे शहर में रह कर ठाठ से जीवन गुजारते और खूब पैसा भी मिलता। वहां उनका बड़ा सेठ है। तुम भी साथ चलो पैसा कमा कर वापस आकर अपने पिता का प्राइवेट अस्पताल में इलाज़ करवाओ। प्राइवेट अस्पताल में अच्छे डॉक्टर होते, पैसे लेकर मरीज़ को बचा लेते हैं।

बाते सुनकर वो बाल कल्पनाएं करता - पैसे लाया है कमा कर, मां के लिए नई साड़ी भी लाया...दो सालों में अस्पताल में रहते रहते घिस कर फट गई है...कहीं कहीं से बदन दिखता तो लोग देखकर उस पर हंसते....पिता को प्राइवेट अस्पताल से इलाज़ करवा कर घर ले जा रहा।.....सब पहले जैसा हो जाएगा। पैसा आएगा तो कोई घुड़क तो नहीं सकता। रात को अस्पताल के बरामदे में सोते हुए कोई लात मार कर ये नहीं कह सकता ये कोई सोने की जगह है...उठो । अपने घर में सोएंगे आराम से........

बच्चा दुविधा में सोच रहा मां को बता देगा तो साथ जाने नहीं देगी और अकेला चला गया तो मां को कौन देखेगा?

एक दिन वो बच्चा चला गया। एक उम्मीद से, सुखद भविष्य लाने के लिए। मां ने सुबह देखा बेटा नहीं दिखा। अस्पताल के इधर उधर सभी वार्डों में कोना कोना देखा और उसके आस पास भी ढूंढा। नहीं मिला। पुलिस में खबर भी की। अब वो रोज चार चक्कर पुलिस स्टेशन और अस्पताल के बीच निकालती रहती।

महीने दर महीने लोगों की कुदृष्टि, सहानुभूति, परायेपन के साथ गुजरते गए। एक दिन उसके पति की कुपित सांसे थम जाती है। अब वो विधवा ही नहीं आसराहीन भी है। अस्पताल में रह नहीं सकती। पुलिस स्टेशन के चक्कर भी कितने दिन लगाती। कोई ठौर ठिकाना नहीं। कहां जाए? याद आयी अपने पुरखों की मिट्टी। ट्रेन पर ट्रेन बदल कर बेटिकट वापस इसी शहर में आ गई।

जहां पहले घर बना था वहां गई तो वहां अपना कहने को कुछ नहीं था। बहु मंजिलें इमारतें खड़ी थी। पता नहीं कब पिता के गुजरने के बाद भाई - भतीजे जमीन बेच कर कहीं चले गए। चौकीदार ने बुढ़िया को टकटकी लगाए आसमान में इमारत को घूरते देखा तो दुत्कार के भगा दिया। अपनी गठरी संभाले वहां से चलती जा रही थी तो किसी ने पूछ लिया कहां जाना है?? सकुंचा कर बोली जहां रहने को मिल जाए! उसे पास के वृद्धाश्रम का पता बता कर छोड़ भी आया। और फिर......उसकी सोचने कि तंद्रा भंग हुई। चाय और बिस्कुट खाकर वो थोड़ा तरोताजा हुई। मन ही मन ईश्वर को याद कर वहां से उठ कर एक नए आशियाने की खोज में निकल पड़ी। इतनी देर बाद फिर से डॉक्टर हालचाल पूछने को आये तो माता जी को वहां नहीं पाया। बस उस जगह एक तुड़ा मुड़ा दस का नोट रखकर गई थी, यह उसके द्वारा पिलाए गए चाय - बिस्कुट के बदले की राशि थी या डॉक्टर की फीस... कह नहीं सकते।


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