Vijayta Suri

Tragedy

4.8  

Vijayta Suri

Tragedy

अंधी सोच

अंधी सोच

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770


मेघा एक बेबस असहाय वक़्त की मारी हुई वो लड़की थी जिसे ईश्वर ने असीम सुंदरता से नवाज कर साथ में गरीबी, लाचारी, अपाहिज बाप, दमे की मरीज माँ व तीन छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी तोह्फे में दे दी थी।छोटी सी उम्र में ही पूरे घर के भरण पोषण की जिम्मेदारी उसके नाजुक कंधों पर आन पड़ी थी।

जिस उम्र में लड़कियां तितली की तरह उड़ा करती हैं, उस उम्र में वह रोजी रोटी की तलाश में इधर से उधर भटक रही थी। बहुत दिनों के बाद आज उसे एक कंपनी में पार्ट टाइम जॉब मिल गया था। वह बेहद खुश थी। पढ़ाई के साथ-साथ अब काम भी चल रहा था परतु बॉस की ललचाई नजरें हमेशा उसका पीछा करती रहती। वह वक्त-बेवक्त उसे अपने केबिन में बुला लेता। उसकी बला की खूबसूरती मानों उसके लिए श्राप बन गई थी। कई बार उसका मन होता नौकरी छोड़ दे फिर अपनी आर्थिक तंगी के कारण घुटने टेक देती।

आखिर एक दिन वही हुआ जिसका डर था। मालिक ने मौका देखते ही उसे अपनी हवस का शिकार बना डाला। वो टूट कर बिखर गई। उस की आत्मा लहूलुहान हो गई। जिस्म मानों टुकड़े-टुकड़े हो गया था। उस की आशाएं-इच्छाएं पूरी तरह से दम तोड़ गई थी। उसे अपने ही शरीर से घिन आने लगी। वह दुख के अथाह सागर में डूब गई थी परंतु घर-परिवार के हालात उसे इस शोक को ज्यादा दिन तक मनाने का अवकाश नहीं देना चाहते थे। आखिर वो अपनी बेइंतहा तकलीफ को समेट अपनी जर्जर लाश को उठाकर एक बार फिर से काम की तलाश में निकली मगर हर तरफ वही भूखे भेड़ियों की घूरती आंखें, वासना की लपलपाती जीभ उसका पीछा कर रही थी।

बहुत सोचने के बाद मेघा इस निश्चय पर पहुंची। जब ईमानदारी से काम करने की सजा भी यह है तो क्यों न फिर इसे ही 'पेशा' बना लिया जाए ? कम से कम टूटने का दुख तो कम होगा। बस... अपने इसी फैसले को अंजाम दे दिया मेघा ने...। खुद को परिवार पर न्यौछावर कर डाला।

वह एक अत्यंत मेधावी छात्रा थी। पढ़ लिख कर प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहती थी पर जिंदगी व घर की जरूरतों ने उसे इस राह पर लाकर पटक दिया था।

अब धीरे-धीरे घर के हालात सुधरने लगे थे। माँ-बापू की दवाई, राशन-पानी और भाई-बहनों की फीस, सब समय पर होने लगा था। घर में शांति और सुकून सा छा गया था। अक्सर बिस्तर पर पड़े निढाल पिता बेबस नजरों से उसे देखते हुए ठंडी आह भर कर रह जाते। मेघा अंदर ही अंदर आहत हो जाती। काश, ईश्वर ने सुंदर रूप के साथ साथ सुंदर तकदीर भी दी होती परंतु अपने भाई-बहनों को खुश देखकर उसे भीतर तक एक अजीब सी शांति महसूस होती।

उसने अपने सपनों को मानों उनके भीतर उड़ेल दिया था। वह उन तीनों को पढ़ा लिखा कर काबिल इंसान बनाना चाहती थी। जो काम उसके पिता नहीं कर पाए वो कर्तव्य वह अपना जिस्म बेचकर अपने भाई-बहनों के लिए कर रही थी। एकाकी क्षणों में अपने भविष्य के बारे में सोचती तो वह तड़प उठती थी। उसकी आँखें आँसुओं से नम हो जाती, लेकिन अगले ही पल वह अपने मन को यह सोच कर तसल्ली दे देती उसका जन्म ही परिवार के लिए न्यौछावर होने को हुआ है।

उसने अपनी सारी इच्छाओं को मार डाला था। अपना पूरा ध्यान परिवार के भरण पोषण व छोटे भाई-बहनों की परवरिश की ओर मोड़ दिया था।

परंतु पिछले कुछ दिनों से मेघा की तबीयत ठीक नहीं थी। रह-रहकर उसे बुखार आ रहा था, इसलिए ज्यादातर बिस्तर पर ही पड़ी रहती, जिसे देख कर माँ-बापू दोनों परेशान हो जाया करते। मांँ खाँसते हुए उसके सिर पर हाथ फेर कर कहती, "मेघा तुम किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाती हो, अगर तुम बीमार पड़ गई तो घर का गुजारा कैसे चलेगा बेटा ?"

उसके शब्दों में भविष्य की चिंता साफ दिखाई देती थी। मेघा अंदर तक तड़प उठती लेकिन सेहत उसका साथ नहीं दे रही थी।

तभी अचानक एक दिन एक ग्राहक का फोन आया। उसने उसे घर पर ही बुलाया था, बदले में वह मोटी रकम देने को भी तैयार था ! कल भाई की बोर्ड के एग्जाम की फीस भरने का आखिरी दिन था। माँ की दवाई पिछले 4 दिन से खत्म थी। खाँस-खाँस कर उसका बुरा हाल हो रहा था। मकान मालिक भी 1 सप्ताह से किराए के लिए चिल्ला रहा था। घर में राशन खत्म होने की कगार पर था। पिता बेबस निगाहों से बिस्तर पर पड़े-पड़े लाचार से उसे घूरते रहते। यह सब देख कर उसने तुरंत हाँ कर दी। हालांकि, इसमें खतरा बहुत था पर उसकी जरूरतें उसके दिमाग पर बुरी तरह हावी हो रही थी।

आज शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था। वह समय पर अनमने मन से तैयार होकर दिए गए एड्रेस पर पहुंच गई थी। मालिक घर पर ही भूखे भेड़िए की तरह इंतजार कर रहा था। लगता था घर के नौकरों को छुट्टी दे रखी थी। टेबल पर खाने-पीने का सामान बड़े करीने से रखा था। कमरे में हल्का संगीत बज रहा था। चौड़ा माथा सामने से बाल उड़े हुए, नाक पर मोटा चश्मा, मोटे बदरंग होठ, मुँह में पान दबाए वो अधेड़ बड़ी बेसब्री से उसकी ओर ताक रहा था।

मेघा ने अभी उसकी ओर अपने कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक डोर बेल बज उठी। दरवाजे पर थपथपाहट की आवाज सुनाई दी ...उस अधेड़ के होश उड़ गए थे। वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ा.... अगले ही पल थपथपाहट ओर तेज हो गई। उसने लगभग काँपते हाथों से दरवाजा खोला। सामने उसकी बीवी खड़ी थी। बस फिर क्या था। अगले ही पल कोहराम मच गया था। देखते ही देखते मोहल्ला इकट्ठा हो गया। मेघा कुछ समझ पाती उससे पहले ही उसे बालों से घसीटते हुए सड़क पर कुछ लोग ले आए थे। चारों तरफ भारी भीड़ जुट गई थी। हर कोई उस अबला पर जोर आजमा रहा था। लात और घूंसों की मानों बरसात हो रही थी। उसकी दर्द विदारक चीखें चारों तरफ गूंज रही थी।

वह बार-बार हाथ जोड़कर छोड़ देने की गुहार लगा रही थी परंतु किसी पर भी उसकी हृदय विदारक चीखों का कोई असर नहीं हो रहा था। आधी भीड़ तमाशाई बनी हुई अपने अपने फोन पर उन पलों को समेट रही थी बाकी जज बनकर अपना अपना फैसला सुना रही थी।

मेघा के मुँह से खून बह निकला था.... कपडे बदन का साथ छोड़ चुके थे ...बाल बिखरे हुए वह सड़क पर औंधे मुँह गिरी हुई अपने आप को लात-घूंसों से बचाने का भरसक प्रयास करती। वह कई बार भागने का प्रयत्न करती पर अगले ही पल किसी ज़ालिम के हाथों फिर से पकडी जाती ....पूरी भीड़ में मानों सब जिंदा लाशें ही थी ...किसी के मन में भी उसे छुड़ाने का भाव तक नहीं जागा था। एक बार उठ कर भागने में कामयाब हुई भी ..तभी ना जाने कहाँ से दो लड़कों ने उस पर पैट्रोल की बारिश कर दी। वह पैट्रोल से तरबतर भागने का असफल प्रयास कर रही थी। इतने में कहीं से जलती हुई तीली आई और उसका पूरा शरीर धू-धू कर जलने लगा। वह तड़प तड़प कर आग बुझाने का प्रयास करती... कभी जमीन पर लोट जाती ....कभी आग की तपन से उठ कर फिर बदहावास सी भागने लगती और भीड़ से आग बुझाने की प्रार्थना करती। उसकी भयावह चीखें किसी भी इंसान का कलेजा चीर देती.... पर यह निर्णायक भीड़, जिंदा लाशें अपने फैसले पर अटल ही नहीं बल्कि खुश भी थी।

काफी देर तक जद्दोजहद करती हुई मेघा भीड़ से मदद की गुहार करती रही, परंतु किसी का भी मन नहीं पसीजा। आखिरकार बेहोश होकर वह गिर पड़ी। तभी जोर से बिजली कड़की, सुबह से जो काली घटाएँ छाई थी उन्होंने बूंदाबांदी का रूप ले लिया था मेघा के लिए आज की बरसात की बूंदे उसके सुलगते बदन को कहीं न कहीं शीतलता दे रही थी। शायद वह उसके नाम के साथ अपनी सार्थकता को निभाने आई थी। आज प्रकृति भी मानो उसकी तकलीफ पर रो रही थी। जब आँख खुली तो वह अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी थी। पास ही डॉ. व पुलिस इंस्पेक्टर खड़े वार्तालाप कर रहे थे। मेघा से उसकी तकलीफ़ बरदाशत नहीं हो रही थी। दर्द से छटपटाते हुए उसने अपनी आप-बीती सुनाने के बाद उन दोनों की आँखों में उभर आए आँसुओं को देखा व अपने परिवार की देखभाल तथा न्याय के लिए हाथ जोड़ दिए।

रात भर वह कराहती रही, सुबह की पहली किरण के साथ ही उसने अंतिम हिचकी ली।

वह अपनी छिन्न-भिन्न काया व तड़पती आत्मा को लेकर विदा हो चुकी थी .....

पर समाज के बुद्धिजीवियों के समक्ष अंगारों से जलते हुए अनगिनत जवलंत प्रश्न छोड़ गई थी।


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