नजरिया
नजरिया
जून की गर्म दोपहरी में दूर-दूर तक फैली हुई गर्म हवा थमने को तैयार ही नहीं थी,अजीब सी खामोशी चारों ओर पसरी हुई थी। तभी रामू काका की आवाज आई, "बिटिया गर्मी बहुत है, बरामदे से उठकर अंदर आ जाओ, नींबू पानी बना दूँ क्या?" आवाज सुनकर साक्षी की तंद्रा टूटी, समय देखा ३:00 बज रहे थे। वह आहिस्ता से उठी और अपने स्टडी रूम में जाकर बैठ गई। न जाने क्यों आज उसका कुछ भी करने को मन नहीं हो रहा था। कुछ देर सुस्ताने के बाद वह रसोई घर की खिड़की पर जाकर खड़ी हो गई। देखा किचन गार्डन में दो छोटी-छोटी चिड़िया एक डाली से दूसरी डाली पर फुदक रही थी। उन्हें देख कर अजीब सी खुशी व स्फूर्ति का एहसास हुआ। कई दिनों से उसने गार्डन की तरफ देखा तक ना था, आज इन नन्हे मेहमानों को देख कर दो घड़ी पहले छाई उदासी, निराशा के भाव उड़ चुके थे!
तभी उसका ध्यान नीचे की तरफ गया, उसका दिल तेजी से धड़कनें लगा...पेड़ के नीचे उन पर धाक लगाए एक बिल्ली बैठी थी। यह देख कर साक्षी का मन घबरा गया, कहीं इन छोटे-छोटे चिड़ियों के बच्चों को उनकी आजादी की कीमत जान देकर न चुकानी पड़े? अभी वह सोच ही रही थी कि... एकदम से बिल्ली उन पर झपट पड़ी। साक्षी की चीख निकल गई पर बच्चे बड़ी होशियारी से उड़ गए। उनकी माँ ने चीं...चीं करके शोर मचा दिया बाकी चिड़िया भी इकट्ठी हो गई और बेचारी बिल्ली को पीछे हटना पड़ा। तभी उसकी नजर नाली पर पड़ी चार छोटे-छोटे बिल्ली के बच्चे वहाँ म्याऊं-म्याऊं चिल्ला रहे थे। अचानक से साक्षी की सारी सहानुभूति बिल्ली की तरफ मुड़ गई। दो पल पहले जो बिल्ली उसे दुश्मन दिखाई दे रही थी अब वह मासूम, मजबूर, लाचार दिखने लगी थी! वह यह सोचने पर मजबूर हो गई, कुदरत यह तेरी कैसी रचना है? दोनों ही माँ हैं, दोनों अपना-अपना उत्तरदायित्व निभा रही हैं, बिना किसी स्वार्थ लाभ लपेट के फिर मासूम कौन और जालिम कौन?
अचानक उसके मन में सुबह से उठ रही दुविधा टल गई। जब से उसका बेटा नौकरी के लिए घर से दूर गया है, उसका मन अजीब-सी कशमकश में फंसा रहता था। कितनी मुश्किलों से पाला पोसा बड़ा किया, आज वह अपने से कोसों दूर विदेश में चला गया है! दिन भर अकेली बैठी सोचती कि अब उसका क्या काम? कब शाम को पति आएंगे, दो बात करेंगे। दोनों बच्चे अपनी-अपनी जगह सेटल हो गए अब उनके पास पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं और साक्षी के पास समय ही समय है! कभी-कभी उनके लिए किया गया त्याग याद करके उसका मन खीज से भर उठता पर आज इस नन्ही चिड़िया को व बिल्ली को देख कर उसकी सोच बदल गई। यह पशु-पक्षी भी तो बच्चों की परवरिश के लिए कैसे जान जोखिम में डालते हैं। खुद भूखे रहते हैं पर पूरे जी जान से बच्चों की परवरिश करते और फिर बड़ा होने पर इन्हें स्वच्छंद घूमने के लिए आजाद कर देते, यह कब उनसे कोई आशा, अपेक्षा रखते। बच्चे कब कहाँ उड़ कर अपना घोंसला बना लेते, घर बना लेते कौन जाने? अगर यह पक्षी निस्वार्थ भाव से अपने बच्चों को उड़ान भरने देते हैं तो फिर हम इंसान इतने स्वार्थी क्यों, हम क्यों नहीं? अब साक्षी की सोच का नजरिया बदल चुका था मन की उलझन दूर हो चुकी थी।