अग्नि परीक्षा सामाजिक कहानी
अग्नि परीक्षा सामाजिक कहानी
प्रिय अमन
विराट को अपना अक्स समझ कर पालने की जो गुजारिश तुमने की थी। और मैंने उसे हॉस्टल भेज दिया। तुम्हें अच्छा नहीं लगा ,मैं समझती हूं. पर घाव वक्त के साथ टीस बनकर नासूर बन ही जाता है। तुम नहीं जानते हमारा प्रेम विवाह हो कर भी आहिस्ता आहिस्ता वक्त ने एहसास करवा दिया था कि इस रिश्ते से परिवार वाले नाखुश थे. क्योंकि वह अपने ऊंचे ओहदे वाले लड़के के लिए जाती और दहेज दोनों ही चाहते थे। मैंने सामंजस्य बिठाने की बहुत कोशिश की। पर तुम्हारे जन्म के बाद उन में आए परिवर्तन ने मेरे अंतस को भेद दिया. मुझे स्वार्थी ठहरा कर खुद पुनर विवाह के बंधन में बंध गए।
अंतता तुम्हें भी समझ आ गया माता-पिता कितने स्वार्थी होते हैं। अपने स्वार्थ के लिए औलाद को बरगलाते हैं. मुझ पर तलाक का भी दबाव दिया जाता तो शायद मैं इंतजार भी करती। देर सवेर उन्हें एहसास हो ही जाता. पर पुनर्विवाह समस्या का समाधान नहीं। दोष मेरा भी कम नहीं था एक दूध पीते बच्चे को निहित स्वार्थ में आकर छोड़ा। एक तरह से मैं भी मां कहलाने लायक न थी और जब तुम अपने छोटे सौतेले भाई को उसकी दादी और मां के गुजरते ही मेरे पास लेकर आए. उसको लेकर जो संवेदना मेरे मन में जब पनपी, वह एक छलावा लगी। इस सच के बावजूद क्या उसे मैं अपनी ममता से अलग कर सकती हूं? नहीं मैं मां जो हूं।
सुबह जब वह जा रहा था ,तो मेरा मन भर आया .जी मैं आया उसे गले से लगाकर उस पर खूब स्नेह वर्षा करूं ' पर ना कर सकी। उसकी जुदाई मेरे लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम न थी। जैसे-जैसे वह मेरी नजरों से ओझल होता जा रहा था वैसे वैसे मैं उसके बिछोह की अग्नि में दग्ध हुई जा रही थी।
तुम्हारी मां रीमा
लिखते लिखते रीमा की आंखों से टप टप आंसू गिर रहे थे। पर वह भावनाओं के आगे बेबस थी।