अधूरी आकांक्षाएं
अधूरी आकांक्षाएं
मीरा एक बहुत ही प्यारी बच्ची थी जिसे पेंटिंग का बहुत शौक था। वो जो भी देखती कैनवास पर हूबहू उतार देती। उसकी इच्छा फाईन आर्ट्स लेकर पढ़ने की थी लेकिन उसके पेरेंट्स चाहते थे कि वह एक इंजीनियर बने। इस साल मीरा के बोर्ड के पेपर थे और जैसे जैसे परीक्षा का समय नजदीक आ रहा था मीरा के ऊपर साइंस ग्रुप में अच्छे नंबर लाने का दबाव बढ़ता जा रहा था। मीरा परेशान रहने लगी और इसका असर उसके रिजल्ट पर भी पड़ा। मीरा को किसी भी विषय में अच्छे नंबर नहीं मिले थे।
पेरेंट्स के डर से अपने आप को कमरे में बंद कर लिया और जब तक उसके कमरे का दरवाजा खुला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मीरा सबको छोड़कर जा चुकी थी।
मीरा की मौत से उसके स्कूल के दोस्तों और शिक्षको को भी बहुत दुख हुआ। बच्चों को मनोस्थिति समझते हुए स्कूल की प्रधनाध्यपक ने एक बाल मनोविज्ञान चिकित्सक को आमंत्रित किया और साथ ही बीच के पेरेंट्स को भी बुलाया ताकि फिर कोई मीरा जैसा होनहार बच्चा अपनी जान ना गवाएं।
बाल मनोविज्ञान चिकित्सक ने सबका अभिवादन कर बोलना शुरू किया, "स्कूल की मई-जून के महीने में हमारे देश के हर घर में जहां बच्चों ने बोर्ड के पेपर दिये हो एक आतंक सा बना रहता है। बच्चे का ही नहीं पेरेंट्स का भी हर पल डिप्रेशन और इनसिक्योरिटी में कटता है कि.... रिजल्ट क्या होगा ? क्या अच्छे कालेजों में एडमिशन मिल पायेगा ? क्या वे डाक्टर या इंजीनियर बन पायेंगे ?"
आजकल पेरेंट्स बच्चों को फसल की तरह पाल रहे हैं कि कब फसल पके और कब उनकी अधूरी रह चुकी आकांक्षाएं पूरी हो और वो फसल काटे।
हमारे स्कूल कॉलेज भी आजकल बच्चों को अच्छे नागरिक नहीं बल्कि अच्छे मजदूर बनाने में लगे हैं। बच्चों का भोलापन, बचपना, खेलकूद सब भेंट चढ़ती जा रही है क्योंकि माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी को एक बेस्ट सोफ्टवेयर डेवलपर चाहिए या फिर गूगल कम्पनी को बेस्ट गेम डिजाइनर चाहिए।
उन्होंने आगे बोला "हर पेरेंट्स से एक ही विनती है कि बच्चों को उनका बचपन जीने दे, उनके बचपन को उजड़ने ना दे। बचपन की खुद से कुछ अपेक्षाएं होती है, निस्वार्थ कुछ सपने होते हैं। हो सकता है हमारे लिए उनका कुछ अर्थ ना हो लेकिन बच्चों के लिए लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं।
बच्चों को पक्के मकान नहीं मिट्टी के घरौंदे बनाने दे। ऐसा करके हम बच्चों से उनकी निष्पाप हंसी नहीं बल्कि एक देश से उसकी सृजनात्मक शक्ति छीन रहें हैं।"